श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । व्याख्या- ‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्यवयम्’- भगवान ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओं का उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए कर्मयोग के द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अतः यहाँ के ‘इमम्, अव्ययम् योगम्’ पदों का तात्पर्य पूर्व प्रकरण के अनुसार तथा राजपरंपरा के अनुसार ‘कर्मयोग’ लेना ही उचित प्रतीत होता है। यद्यपि पुराणों और उपनिषदों में भी कर्मयोग का वर्णन आता है, तथापि वह गीता में वर्णित कर्मयोग के समान सांगोपांग और विस्तृत नहीं है। गीता में भगवान ने विविध युक्तियों से कर्मयोग का सरल और सांगोपांग विवेचन किया है। कर्मयोग का इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदों में देखने में नहीं आता। भगवान नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान के साथ जीव का संबंध भी नित्य है। अतः भगवत्प्राप्ति के सब मार्ग[3] भी नित्य हैं।[4] यहाँ ‘अव्ययम्’ पद से भगवान कर्मयोग की नित्यता का प्रतिपादन करते हैं। परमात्मा के साथ जीवन का स्वतः सिद्ध संबंध[5] है। जैसे पवित्रता स्त्री को पति की होने के लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पति की तो है ही, ऐसे ही साधक को परमात्मा का होने के लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्मा का है ही; परंतु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदि के साथ जब वह अपना संबंध मान लेता है, तब उसे ‘नित्योग’ अर्थात के साथ माने हुए संबंध को मिटाने के लिये कर्मयोगी शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओं को संसार की ही मानकर संसार की सेवा में लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूल का छोटा से छोटा कण भी विशाल पृथ्वी का ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्मांड ही एक अंश है। ऐसा मानने से ‘कर्म’ तो संसार के लिये होंगे, पर ‘योग’[6] अपने लिये होगा अर्थात नित्य योग का अनुभव हो जायगा। भगवान ‘विवस्वते प्रोक्तावान्’ पदों से साधकों को मानों यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात कर्म करते ही रहते हैं और सब को प्रकाशित करने पर स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकों को भी प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य कर्मों का पालन स्वयं करते रहना चाहिये[7] और दूसरों को भी कर्मयोग की शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त[8] रहना चाहिये। सृष्टि में सूर्य सब के आदि हैं। सृष्टि की रचना के समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्प में थे, वैसे ही प्रकट हुए- ‘सूर्या चंद्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’। उन[9] सूर्य को भगवान ने अविनाशी कर्मयोग का उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोग की बात बता रहा हूँ, वह कोई आज की नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टि के आदि से अर्थात सदा से है, उसी योग की बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने पुत्र
- ↑ अपने पुत्र
- ↑ योगमार्ग, ज्ञानमार्ग भक्तिमार्ग आदि
- ↑ गीता के आठवें अध्याय में भगवान ने शुक्ल और कृष्ण- दोनों गतियों को भी नित्य बताया है- शुक्ल कृष्णे होते ह्योते जगतः शाश्वते मते (गीता 8।26)।
- ↑ नित्य योग
- ↑ नित्ययोग
- ↑ गीता 3।19
- ↑ निष्काम, निर्मम और अनासक्त
- ↑ सबके आदि
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