श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संन्यासी के द्वारा जो परमात्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है, वही तत्त्व कर्मयोगी गृहस्थाश्रम में रहकर भी स्वाधीनता पूर्वक प्राप्त कर सकता है। अतः कर्मयोग गृहस्थों की तो मुख्य विद्या है, पर संन्यास आदि अन्य आश्रम वाले भी इसका पालन करके परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग ही कर्मयोग है। अतः कर्मयोग का पालन किसी भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय, देश, काल आदि में किया जा सकता है। किसी विद्या में श्रेष्ठ और प्रभावशाली पुरुषों का नाम लेने से उस विद्या की महिमा प्रकट होती है, जिससे दूसरे लोग भी वैसा करने के लिये उत्साहित होते हैं। जिन लोगों के हृदय में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व है, उन पर ऐश्वर्यशाली राजाओं का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिये भगवान सृष्टि के आदि में होने वाले सूर्य का तथा मनु आदि प्रभावशाली राजाओं के नाम लेकर कर्मयोग का पालन करने की प्रेरणा करते हैं। क्रियाओं और पदार्थों में राग होने से अर्थात उनके साथ अपना संबंध मानने से कर्मयोग नहीं हो पाता। गृहस्थ में रहते हुए भी सांसारिक भोगों से अरुचि[1] होती है। किसी भी भोगों को भोगें, अंत में उस भोग से अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है- यह नियम है। आरंभ में भोग की जितनी रुचि[2] रहती है, भोग भोगते समय वह उतनी नहीं रह जाती, प्रत्युत क्रमशः घटते-घटते समाप्त हो जाती है; जैसे- मिठाई खाने के आरंभ में उसकी जो रुचि होती है, वह उसे खाने के साथ-साथ घटती चली जाती है और अंत में उससे अरुचि हो जाती है। परंतु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचि को महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचि को ही तृप्ति[3] मान लेता है। परंतु वास्तव में अरुचि में थकावट अर्थात भोगने की शक्ति का अभाव ही होता है। जिस रुचि या कामना का किसी भी समय अभाव होता है वह रुचि या कामना वास्तव में स्वयं की नहीं होती। जिससे कभी भी अरुचि होती है, उससे हमारा वास्तविक संबंध नहीं होता। जिससे हमारा वास्तविक संबंध है, उस सत्-स्वरूप परमात्मतत्त्व की ओर चलने में कभी अरुचि नहीं होती, प्रत्युत रुचि बढ़ती ही जाती है- यहाँ तक कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर भी ‘प्रेम’ के रूप में वह रुचि बढ़ती ही रहती है। ‘स्वयं’ भी सत् स्वरूप है, इसलिये अपने अभाव की रुचि भी किसी की नहीं होती। कर्म, करण[4] और उपकरण[5] ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं, फिर इनसे मिलने वाला फल कैसे नित्य होगा? वह तो नाशवान ही होगा। अविनाशी की प्राप्ति से जो तृप्ति होती है, वह नाशवान फल की प्राप्ति से कैसे हो सकती है? इसलिये साधक को कर्म, करण और उपकरण- तीनों से ही संबंध विच्छेद करना है। इनसे संबंध विच्छेद तभी होगा, जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा, अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं मानेगा; प्रत्युत अपने कहलाने वाले कर्म, करण और उपकरण- इन तीनों से अपना संबंध विच्छेद करने के लिये इन्हें संसार का ही मानकर संसार की ही सेवा में लगा देगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उपरति अथवा कामना का अभाव
- ↑ कामना
- ↑ फल
- ↑ शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि
- ↑ पदार्थ अर्थात कर्म करने में उपयोगी सामग्री
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