श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रील विलवमंगल ठाकुर के इस वर्णन से यह समझा जा सकता है कि भगवान् के श्रीनारायण आदि स्वरूपों की तुलना में व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की माधुरी कहीं अधिक रसप्रद और आश्चर्यजनक हैं। श्रील विल्वमंगल ठाकुर ने व्रजगोपिका के भाव से श्रीकृष्णमाधुरी की आस्वादन किया है। व्रजगोपियाँ श्रीनारायण की चतुर्भुज मूर्ति के दर्शन करती हैं, तब भी वह रूप उन लोगों के चित्त में किसी प्रकार का भावान्तर उत्पन्न नहीं कर सकता। यहाँ तक कि स्वयं व्रजेन्द्रनन्दन के श्रीनारायणमूर्ति धारण पर भी गोपियों को भावान्तर नहीं होता।
इससे प्रतिपन्न होता है कि श्रीनारायण के सौन्दर्य– माधुर्य की अपेक्षा व्रजेन्द्रनन्दन का सौन्दर्य– माधुर्य अधिक है। अपनी अनुरञ्जिनी शक्ति द्वारा सभी के चित्त को आकर्षित कर अपनी ओर लगाना ही श्रीकृष्णस्वरूप का एक असाधारण गुण है। यह गुण उनके स्वरूप में हर समय अभिव्यक्त रहता है। इसीलिए उनका नाम है ‘कृष्ण’। केवल भक्त या अनुरक्त ही नहीं, पुरुष योषित (स्त्री) स्थावर जंगम जो भी उनके दर्शन करता है, वही विमुग्ध होता है। “पुरुष योषित किंवा स्थावर जंगम्। सर्वचित्ताकर्षक साक्षात् मन्मथमदन।।”[2] व्रजगोपिकाओं ने श्रीकृष्ण से कहा है- “त्रैलोक्यसौभागमिदञ्च निरीक्ष्य रूपं यद्गोद्विजदुममृगाः पुलकान्यविभ्रन्।” – हे प्रिय ! त्रिभुवनसुन्दर ! तुम्हारी इस रूपमाधुरी के दर्शन कर धेनुगण निर्निमेष (अपलक) नेत्रों से तुम्हारे वदन की ओर देखती रहती हैं, शुक-सारिका आदि पक्षी शाखाओं पर बैठे निमीलित (बन्द) आँखों से मुनियों की तरह इस रूप का ध्यान करते हैं, वृक्ष फलभार से अवनत होकर अपने शाखापल्लवों द्वारा तुम्हारा पादपीठ स्पर्श कर धन्य होते हैं और मधुधारा वर्णण के बहाने आनन्दाश्रु बहाते हैं, मालती माधवी मल्लिका आदि लतायें तुम्हारी रूपमाधुरी देखकर प्रेम पुलकित चित्त से राशि-राशि कुसुम विकसित करने के बहाने आनन्दपुलक प्रकट करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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