श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः- हृद्यविभ्रमाणाम् (हृद्याः मनोज्ञाः विभ्रमाः विलासाः यासां तासाम्) व्रजबालसुंदरीणां हृदयम् (हृदयाभिज्ञम्) तरलम् (चंचलं यद्वा व्रजबालसुंदरीणां तरलं हृन्नायकनीलमणिम्) हर्षविशाललोलननेत्रं किञ्चन तरुणं धाम मम हृदये (चेतसि) सन्निधत्ताम (सन्निहितं भवतु)।।11।। अनुवाद- जो मनोज्ञ विभ्रमशालिनी व्रजसुंदरियों के हृदयाभिज्ञ (मन को समझने वाले) हैं, जो चंचल अथवाव्रजदेवियों के हृन्नायकमणि (कझठहार की मध्यमणि) हैं, जिनके आनंद से भरे विशाल चपल नयन हैं, जो तरुण हैं- ऐसा ही कोई अनिर्वचनीय ज्योतिः पुञ्ज मेरे चित्त में विहार करे।।11।। कृष्णवल्लभा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ औपच्छन्दसिकं छन्दः
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