श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः – मौलिश्चन्द्रकभूषणः (यस्य मौलि-श्चन्द्रकैर्भूषणम्) मरकतस्तम्भाभिरामं वपुः (वपुः मरकतस्तम्भादपि रमणीयम्) वक्तं चित्रविमुग्ध-हासमधुरम् (चित्रवद्विशिष्ट हासेन मधुरं वदनम्) विलोले दृशौ (दृशौ क्रीडाविष्टे सतृष्णे च) वाचः शैशवशीतला (वाचः कैशोरेण तापहारिण्यः) मदगजश्लाघ्या विलासस्थितिः (मन्थरगमन-करचालनादिना विलासेन स्थितिर्मत्तगजैरपिश्लाघ्या) अये बाले ! क एष मन्दं मन्दं मथुरावीथीं मिथो गाहते? (मिथो रहसि एक एव विलासगत्या क्रमेण आगच्छति)?।।57।। अनुवाद- अरी सहचरी ! वह देख, गोकुल के पथ पर धीरे-धीरे एकाकी वह कौन जा रहा है! सिर पर शिखिपुच्छ (मोर पंख), मरकतमणि के स्तम्भ की तरह अभिराम वपु, मुख विचित्र विमुग्ध हास्य से भरा, नेत्र भावविलास के कारण सतृष्ण कटाक्ष से युक्त, वचन कैशोर-शीतल, गमनकर-चरण आदि का सञ्चालन मत्तगज से भी अधिक प्रशंसनीय !।।57।। कृष्णवल्लभा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शार्छूलविक्रीडितं छन्दः
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