श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः किमिह कृणुमः (कमुपायं कुर्मः), कस्य ब्रूमः (वक्तुमपि न शक्नुमः), कृतं कृतमाशया (आशया यत्कृतं तत् विफलमेव), अन्यां धन्यां कथां कथयत, अहो हृदयेशयः (यत्कथां त्युक्तुमिच्छामः स एव हृदि वर्तते), मधुर मधुरस्मेराकारे मनोनयनोत्सवे कृष्णे कृपणकृपणा (कृपणादपि कृपण) तृष्णा चिरं बत लम्बते (प्रतिक्षणं वर्द्धते)।।42।। अनुवाद- अब क्या उपाय काम में लूँ? किससे कहूँ? श्रीकृष्णप्राप्ति की आशा करना व्यर्थ। अधन्य कृष्णकथा छोड़ और कोई धन्य (अच्छी) बात करो, पर नहीं, वे तो हृदय में बसे हैं, उनकी बात त्यागूँ कैसे? मधुर-मधुर मृदुहास्ययुक्त जिनकी मूर्ति हैं, जो मन और नेत्रों के उत्सव हैं, उन्हीं श्रीकृष्ण के लिए मेरी अति दीना तृष्णा निरन्तर बढ़ रही है।।42।। कृष्णवल्लभा |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हरिणी छन्दः
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