श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः – आर्द्रस्मितार्द्रश्रिया (य आर्द्रं सरसं यत्स्मितं तेन आर्द्रा स्निग्धा या श्रीः शोभातया) अरुन्धतीहृदयम् आरुन्धानम् (अरुन्धत्या हृदयं अपि आरुन्धानं रुन्धत्) आतन्वानमन-न्यजन्मनयनश्लाघ्यामनर्घ्यां दशम् (न विद्यते अन्यजन्म येषां तेषां नयनानां दिव्यचक्षुषां अनर्घ्यां दशां विस्तारयत्), अहनि अहनि अहनि (प्रतिदिनम्) विहारक्रमान् (क्रमेण विहारान्) साकारान् (मूर्तिमतः) आचिन्वानम् (सञ्चिन्वन्तम्) व्रजसुन्दरी स्तनतटीसाम्राज्यम् आनन्दम् उज्जृम्भते।।87।। अनुवाद- जिन्होंने मृदुहास्य की सरसशोभा द्वारा अरुन्धती का हृदय तक अवरुद्ध कर लिया है; जिनका अन्य जन्म नहीं होता से लोगों के दिव्य चक्षुओं में जो नयनश्लाघ्य अनुपम दशा का विस्तार कर रहे हैं; व्रजसुन्दरियों का स्तनतटीरूपी साम्राज्य प्राप्त कर जो प्रतिदिन साक्षात् मूर्ति से प्रकाशित होकर नव-नव भाव से विहार कर रहे हैं- वही आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण मेरे चित्त में प्रकाशित हो रहे हैं।।87।। कृष्णवल्लभा |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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