सुबोधनी
एतत्तवातिस्तुतिर्न, किन्तु सत्यमेवेति सगर्वमाह- हे देव सरसताया भारवाहाः सहस्रशोयथेष्टं सन्तु। तेभ्यस्त्वमतिसरस इति तैः सह विवादं नैव कुर्मः। तथा, कमनीयतानां योऽसाधारण- गुणस्तस्य साम्राज्ये बद्धं व्रतं यैर्नित्यकमनीया वा कतिपये कामं सन्तु। तान् प्रति नैवं प्रियं ब्रूमहे। किन्तु, यत् सत्यं तदेव ब्रूमः। किं तत् रमणीयतानां परिणतिर्नराकृतितया त्वय्येवावधिं प्राप्ता। अतः स्वभावोक्त्या न स्तुतिरित्यर्थः।।100।।
सारंगरंगदा
ननु कति कति सरसमधुरशेखरा लोके सन्ति, किमिति तान् हित्वा मया विवदमानः स्वोक्तिमेव स्थापयन्मामेवात्युक्त्या स्तौषीति तान् प्रति सावहेलं तं प्रति सविनयमाह- हे देव सारस्यधौरेयकाः सरसताभारवाहिनः सहस्रशः कामं सन्तु। तेषां मध्ये कमनीयतापरिमल- स्वराज्य बद्धव्रताः सर्वातिकमनीया वा कतिपये कामं सन्तु। ते ते न सन्तीत्येवं त्वया सह न विवदामहे। न च तव प्रियं ब्रूमहेऽसद्गुणाध्यारोपेण त्वां स्तौमि। किन्तु सत्यमेव ब्रूमहे। यद्तो या रमणीयता- परिणतिः सा त्वय्येव पारंगता। अवधिं प्राप्ता। अतः स्वभावोक्त्या नायं विवादः स्तुतिर्वेति भावः।।100।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीकृष्ण ने लीलाशुक से कहा- इस जगत् में कितने-कितने सरस-मधुर-शेखर व्यक्ति हैं, उन्हें छोड़कर तुम मेरे साथ विवाद कर अपनी बात की स्थापना के लिए अत्युक्ति द्वारा मेरी स्तुति कर रहे हो; उनके प्रति अवहेलना क्यों दिखा रहे हो? यह सुनकर श्रीलीलाशुक ने सविनय कहा- हे देव ! इस जगत् में सरसता- भारवाही सहस्र-सहस्र व्यक्ति हैं तो रहने दो। उन लोगों में कमनीयता परिमल स्वराज्यबद्धव्रत अर्थात् सर्वातिकमनीय या कतिपय व्यक्ति हो या न हों- इस विषय में तुम्हारे साथ मेरा कोई विवाद नहीं मैं तुम्हें प्रिय लगने वाली बात भी नहीं कह रहा, और असत् गुणों का आरोप कर उन लोगों की न्यूनता प्रतिपादन क दृष्टि से कोई युक्ति भी उत्थापित करना नहीं चाहता- अथवा प्रिय वाक्यों से स्तव कर तुम्हारी मनस्तुष्टि के लिए कोई बात नहीं कहूँगा; जो सत्य है वही कहूँगा। इसका कारण है- केवल तुम में ही रमणीयता की परिणति की पराकाष्ठा है। अतएव मेरी यह स्वाभाविक सत्य उक्ति है, इसमें विवादपरता या स्तुतिपरता कुछ भी नहीं।
|