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सारंगरंगदा
पुनः कियद् दूरे स्थित्वा ताभिः सह चुम्बना-लिंगनादिभि- र्विलसन्तं तमालोक्य विस्मितः सन् क्षणं विचार्य, अस्य नैतदाश्चर्यमित्याह- एतादृशममुं वन्दे। न केवलं व्रजवनस्यैव किन्त्वखिलानां भुवनानामेकं श्रेष्ठ नीलमणिरूपं भूषणं तद्वतस्थितम्। तदुक्तं श्रीजयदेवैः[1]- “त्रैलोक्यमौलिस्थली- नेपथ्योचितनीलरत्नम्” इति। तथा, अधिभुषिता विष्णवादिस्वरूपेण पादसम्वाहन- पराणां लक्ष्मीणां स्वपादस्पर्शेन कुचकुम्भा येन। आसां सर्वासान्तु नायकमणिवत् कण्ठस्थितमित्याश्चर्यम्। यद्वा, नन्वीशस्य प्रकाशभेदेन नैतच्चित्रं यतोऽखिलानां वैकुण्ठनामेकभूषणं स्वयमेव तत्तद्रूपेण तेषु स्थितम्। तथा, अधिभूषितास्तत्त् प्रेयसीनां लक्ष्मीणां कुचकुम्भा येन। क्षणं विमृश्य नैतत् प्रकाशभेद इत्याह आसां त्वेकेन वपुषैव नायकमणिम्। तच्चिमेवैतत्, वन्दनमेव कार्यं न तु विचार्थमित्यर्थः। अथवा, ‘यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपः’[2] ‘नायंश्रियोंऽग’[3] इत्यादिदिशा स्वामाधुर्येण तामाकृष्या- धिभुव्युषितौ विरहवन्हिज्वालया तापितौ तस्याः कुचकुम्भौ येन। उष दाहे[4]।।90।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद बोले- श्रीलीलाशुक कुछ दुरी बनाये रखकर श्रीकृष्ण को विलासपरायण देखकर- गोपवधुओं को चुम्बन आलिंगन आदि करते देखकर विस्मित हुए। क्षणभर विचार कर निश्चय किया कि श्रीकृष्ण के लिए ऐसा विलास किञ्चित भी आश्चर्यजनक नहीं। ऐसे अद्भुत केलिपरायण श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। ये केवल व्रजवन के ही भूषण नहीं, अखिल भुवनों के नीलमणिरूपी श्रेष्ठ भूषण हैं। अथवा भुवनों में श्रेष्ठ स्थान है वृन्दावन। उसी वृन्दावन की युवतियों के कण्ठहार के नीलमणिरूपी भूषण हैं; हार के बीच की नायकमणि की तरहहृदय के उल्लसित करने वाले के रूप में स्थित हैं। श्रील जयदेव गोस्वामी ने भी कहा है- “त्रैलोक्यमौलिस्थलीनेपथ्योचितनीलरत्नमिति” अर्थात् जो त्रिभुवन के मुकुटसदृश श्रीवृन्दावन के विभूषणोचित नीलरत्न हैं। त्रिभुवन ही क्यों, अप्राकृत चिन्मय वैकुण्ठ आदि धामों के मुकुट वृन्दावन की धरणी पर आविर्भूत होकर धरणी की शोभासम्पदा के रूप में विराज रहे हैं। यथा श्रीचैतन्य- चरितामृत में[5]-
- “प्रकृतिर पार परव्योम नामे धाम।
- कृष्णविग्रह जैछे विभुत्वादि गुणवान्।।
- सर्वग अनन्त विभु वैकुण्ठादि धाम।
- कृष्ण कृष्ण अवतारेर ताहाइँ विश्राम।।
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