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विरहविधुरा श्रीराधा रासस्थली पर सहसा श्रीकृष्ण को आते देखकर चौंक गईं। पहले तो समझ ही नहीं पाईं कि ये कौन हैं। उन्हें लगा कि स्वयं मार (कन्दर्प) उपस्थित हुए हैं। उनके मन में भय का सञ्चार हुआ; इसीलिए सोचा कि यह क्या ‘मार’ हैं? जो जगत् को मार डालने में समर्थ है, वे ही मार है। भय की बात ही है, कारण- वे एक तो श्रीकृष्णविरह विधुरा हैं, ऊपर से इसका अत्याचार हुआ, तब तो विपद की सीमा ही न रहेगी। यही सोचकर वे भीत हुईं। राधाप्रेम के स्वभाव के वश ही कृष्ण में कामज्ञान होता है। श्रीकृष्ण-विरह दुःख में जर्जरित होकर श्रीमती कभी कभी सोचती हैं कि श्रीकृष्ण को भूल पाऊँ तो शान्ति मिले। वे सखियों को भी आदेश देती हैं कि कृष्णकथा त्याग कर अन्य कोई बात करो, किन्तु इससे भी कोई लाभ नहीं होता। श्रीराधाभाव में गंभीरालीला में श्रीमन्महाप्रभु का प्रलाप है-
- “देखि एइ उपाये, कृष्णेर आशा छाड़ि दिये,
- आशा छाड़िले सुखी हय मन।
- छाड़ो कृष्णकथा अधन्य, कहो अन्य कथा धन्य,
- जाते कृष्णेर हय विस्मरण।।
- कहितेइ हैलो स्मृति, चित्ते हैलो कृष्णस्फूर्ति,
- सखी के कहे हइया विस्मिते।
- जारे चाहि छाड़िते, सेइ सुइया आछे चित्ते,
- कोनों रीते ना पारि छाड़िते।।
- राधाभावेर स्वभाव आन, कृष्णेर कराय कामज्ञान,
- कामज्ञाने त्रास हैलो चिते।
- कहे – जे जगत मारे, से पशिलो अन्तरे,
- एइ वैरी नादेय पासरिते।।”[1]
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