सुबोधनी
पुनस्तद्दौर्लभ्यस्फूर्त्या तद्दर्शनकारिणोऽभिनन्दन – सदैन्यमाह- ये सुकृतिनस्तत एव कृतः पुण्यानां भक्तिलक्षणानां पुञ्जो यैस्त एवाद्यं पुमांसं पुरुषश्रेष्ठं पश्यन्ति। न तु तद्विपरीता मादृशाः। एतत्कृपैव निदानमाह- स्निग्धजनस्या-वलोकितधुरया तदतिशयेन परिणद्धे स्ववशीकृते नेत्रे यस्य। तेनैवाविष्कृतं यत्स्मितं तदेव सुधा तया मधुरावधरोष्ठौ यस्य। श्रेष्ठतामेवाह- अवतंसितानि बर्हिवर्हाणि येन।।67।।
सारंगरंगदा
अथातिदैन्योदयात् सदैन्यं तद्दर्शनकारिणोऽभिनन्दन्त्या वचोऽनुवदन्नाह- तमाद्यं पुमांसं पुरुषश्रेष्ठं ये कृतिनः कृतपुण्यपुञ्जास्त एवालोकयन्ति। आकर्णयन्तीति पाठे- एतादृशं ये श्रृण्वन्ति त एव धन्याः, किमुत ये पश्यन्तीत्यर्थः। आद्यं प्रेमवज्जनैरा- स्वाद्यमिति वा। कीदृशम्- प्रणयकरुणरसैरार्द्रया- वलोकितधुरा तदतिशयेन परिणद्धे युक्ते नेत्रे यस्य। आविष्कृतं यत् स्मितं तदेव सुधा तयातिमधुरा- वधरोष्ठौ यस्य। तथा, अवतंसितानि बर्हिणां बर्हाणि येन तम्। दशान्तर द्वये सुगमम्।।67।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीकृष्ण के विरह में राधारानी के हृदय में अतिशय दैन्य का उदय हुआ। वे अपने प्रलाप में श्रीकृष्ण का दर्शन करने वाले व्यक्ति का दैन्य के साथ अभिनन्दन करने लगीं। श्रीलीलाशुक उनकी उसी दैन्यवाणी का अनुवाद कर रहे हैं। उस आद्यपुरुष अर्थात् श्रेष्ठ श्रीकृष्ण का पुञ्ज पुञ्ज पुण्यशाली कृति व्यक्ति ही दर्शन करते हैं। यहाँ ‘आद्यपुरुष’ से उसी ‘श्रियः कान्ताः कान्तः परमपुरुषः’ (ब्रह्मसंहिता) साक्षात् परम रमा गोपीगणकान्ता एवं परमपुरुष कान्त व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही समझने होंगे। श्रील प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद कहते हैं- ‘यो ब्रह्म-रुद्र-शुक-नारद-श्रीष्ममुखैरालक्षितो न सहसा पुरुषस्य तस्य’[1] अर्थात् ब्रह्म महादेव शुक नारद, भीष्म जैसे महाभागवतगण भी सहसा उन परमपुरुष व्रजेन्द्रनन्दन का साक्षात्कार करने में समर्थ नहीं होते। फिर उनका दर्शन कौन करेगा? श्रीमती राधारानी की वाणी का अनुवाद कर श्रीलीलाशुक कह रहे हैं- जिन्होंने भूरि-भूरि पुण्य सञ्चय किया है, वे कृतिगण ही उनके दर्शन करते हैं। वस्तुतः विश्व में ऐसा कोई पुण्य नहीं, जिसके फलस्वरूप श्रीकृष्णदर्शन हो सकें श्रीकृष्णदर्शन का एकमात्र उपाय है उनके चरणों में प्रेम। विशेषतः गोपीजनवल्लभ परमपुरुष श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ रहस्यमय लीला के दर्शन के लिए तो गोपिका आनुगत्यमय प्रेम की ही आवश्यकता है। हाँ, श्लोक में जिस पुण्य की बात कही गई है, वह लोकोक्ति मात्र है। जैसे देवर्षि नारद ने श्रीमती यशोदा माँ की स्तुति में कहा है-
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