श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘श्रीकृष्ण की अंगकान्ति नीलकान्तमणि, दलिताञ्जन, मेघपुञ्ज एवं नीलपद्म की तरह है; केशकलाप सुचिक्कण कृष्णवर्ण है, चूड़े में मनोहर मयूरपुच्छ शोभा पा रहा है।’ लेकिन यहाँ ‘मरकतस्तभाभिरामं वपुः’- जिनकी देह मरकतस्म्भ से भी अधिक अभिराम है। वजसुन्दरियों के सान्निध्य में श्रीकृष्ण की नीलकान्ति उन लोगों की स्वर्णकान्ति की छटा लगने से अनतिश्यामल मरकतमणि की तरह दिखाई देती है। रासरजनी में स्वर्णवर्णा व्रजदेवियों के सान्निध्य में श्रीकृष्ण की नीलकान्ति मरकतमणि की तरह प्रभावित हुई थी।
‘श्रीकृष्ण रासस्थली में स्वर्णवर्णा गोपीमण्डली में हेमकान्तिमणियों के बीच महामरकत मणि की तरह अतिशय शोभा को प्राप्त हुए थे।’ तड़ितवर्णा (विद्युत-चमक वाली) राधारानी के सान्निध्य में श्रीकृष्ण के श्यामल अंग में मरकतकान्ति अतिशय रूप से उच्चलित होती है।
‘राधारानी की अंगकान्ति श्रीकृष्ण की कान्ति को मरकतमयी कर देती है और श्रीकृष्ण की अंगच्छटा भी श्रीराधा की कान्ति को हरिद् वर्ण करती है। जब श्रीराधाश्याम भिन्न-भिन्न स्थानों में अवस्थान करते हैं, तो वे गौरवपूर्ण और श्याम वर्ण हुए रहते हैं। साथ-साथ रहने पर वे दोनों ही समान वर्ण या मरकत वर्ण लगते हैं।’ यही कारण है कि श्रीमती श्रीकृष्ण की देह को मरकतमणि के स्तम्भ की तरह सुन्दर- सुठाम अनुभव कर रही हैं। वपु मरकतमणि स्तम्भ से भी अधिक अति अभिराम है। स्वाभाविक रूप से सुन्दर मुख आश्चर्यजनक और मनोहर हास्य से अति मधुर हो रहा है। आकर्ण विश्रान्त (कानों तक फैले) नयन सतृष्ण भ्रुविलास से चञ्चल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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