श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
जो लोग अपने अभीष्ट श्रीकृष्ण की रतिविशेष पाना चाहते हैं, वे साधकरूप से यथावस्थित देह से और सिद्धरूप से अभीष्ट की सेवोपयोगी अन्तश्चिन्तित देह से व्रजवासियों अर्थात् श्रीराधा ललिता विशाखा रूपमञ्जरी आदि तथा श्रीरूप-सनातन आदि गोस्वामियों के अनुगत बनकर उनका अनुसरण करते हुए सेवा करें। श्रीरूपमञ्जरी आदि के आनुगत्य में सिद्धस्वरूप से मानसी सेवा और श्रीरूपसनातन आदि के आनुगत्य में साधकदेह से दैहिकादि सेवा करेंगे।
साधक यथावस्थित देह से (जिस देह से वे इस संसार के सम्स्त कार्य कर रहे हैं उस देह से) श्रवण कीर्तन अर्चना वंदन आदि बाहारी सेवा करेंगे और मानस (मन में) श्रीगुरुप्रदत्त का चिंतन करते हुए आठों पहर श्रीश्रीराधाकृष्ण की मानस सेवा करेंगे। इस लीलाचिन्तन से साधक का चित्त क्रमश: अभीष्ट के चरणों में प्रगाढ़ तन्मयता प्राप्त करता है। साधक परिपक्व होने पर साधक यथावस्थित देह को त्यागकर अंतश्चिन्तित देह से लीलाराज्य में साक्षात श्रीश्रीयुगलकिशोर की सेवा पाकर सदा-सदा के लिये धन्य होते हैं। श्रील नरोत्तम ठाकुर महाशय ने लिखा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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