श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
माधुर्य के उपासक अनुगामी- श्रीलीलाशुक कहते हैं, मैं उसी माधुर्य में ही मग्न हुआ रहना चाहता हूँ। तभी उत्सुकता के साथ तीन श्लोक पढ़े हैं। इस श्लोक में कहते हैं- ‘देवे’ दिव्यति द्योतते इति देव। उन्हीं परम ज्योतिर्मय देव में मैं लीन हुआ रहूँगा। प्रश्न हो सकता है- वे क्या ज्ञानियों के ब्रह्मलीन होने की तरह श्रीकृष्ण में लीन होना चाहते हैं? नहीं, श्रीकृष्ण रसाविष्ट होकर लीला करेंगे, लीलाशुक तन्मय होकर उसी लीला को देखने की आकांक्षा कर रहे हैं। वे कृष्ण कैसे हैं? श्लोक में यही बताते हैं- ‘अहिमकर- करनिकर- मृदु-मुदित-लक्ष्मी-सरसतर-सरसिरुह-सदृश-दृशि’। ‘अहिमकर’ का अरथ सूर्य। जिसकी किरण या रश्मि शीतल नहीं, वही अहिमकर। शीतल नहीं, फिर उष्ण भी नहीं- ‘’अहिमकर कहने से ऐसी सूर्य किरणें समझ में आती हैं। उसी सूर्य की किरणों से स्पर्श से जो कमल मृदुल कोमल या स्निग्ध है। ‘मुदिता’ का अर्थ है हृष्टा और स्फीता – ऐसी लक्ष्मी या शोभा द्वारा सरसतर अर्थात् अति सरस जो सरसिज या कमल है, उसी कमल की तरह जिनके नयन हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण में लीलाशुक का मन लीन है। तात्पर्य यही है कि मध्यान्हकालीन सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के प्रभाव से कमल के भीतर मकरन्द रहने पर भी उसके बाहर शुष्कता रहती है, अतएव कर्कशता भी प्रकट होती है। उधर अति प्रातःकालीन सूर्यकिरणों के स्पर्श से भी कमल भलीभाँति विकसित ही नहीं हो पाता। अतएव नातिप्रखर (जो अति प्रखर न हों, ऐसी) सूर्यकिरणों के संयोग से कमल उत्तम रूप से विकसित भी होता है और बाहरी स्निग्धता भी रहती हैं। ऐसी ही है श्रीकृष्ण के नयनों की शोभा, यही बताया गया है। और कैसे कृष्ण ? ‘व्रज-युवति-रतिकलह-विजयी-निजलीला-मदमुदित-वदनशशि-मधुरिमणि’ व्रज की युवतियों अर्थात् गोपांगनाओं के साथ श्रीकृष्ण का रतिविषयक को कलह है अर्थात् दृढ़ आलिंगन, हारत्रोहन (तोड़ना, नष्ट करना), चुम्बन, लीलाकमल- ताड़न आदि है, उसमें श्रीकृष्ण की विजयलीला या श्रृंगारभावजलीला के मद या हर्ष से जिनका वदनचंद्रमा आनन्दित है। इस रतिकलह में उन लोगों की आँखों का काजल श्रीकृष्ण के वदन पर लग जाता है, तभी वदन को ‘शशि’ या कलंकी चंद्रमा कहा गया है। जैसे-जैसे उन सुकोमल व्रजबालाओं की प्रगाढ़ आलिंगन करते हैं, वैसे-वैसे (उसी मात्रा में) उनके अंग में सरसता आती है, यही बताया गया है। व्रजबालाओं के साथ उस लीला के अनुस्मरण से अंतःकरण की वृत्ति तदाकार होती है। श्रीश्रीगौरांग महाप्रभु इस विशेष कलियुग में श्रीश्रीराधा-कृष्ण युगल-उपासना का अति रहस्यमय संदेश विश्ववासियों के लिए लाये हैं और उन्होंने अन्यान्य युगों के दीर्घ आयुवाले, अटूट साधनशक्ति संपन्न, पवित्रचेता मनुष्यों के लिए भी अति दुर्लभ व्रजरससाधना का प्रवर्तन किया है इस कलियुग के पापताप के मारे लोगों के लिए। श्रीमन्महाप्रभु की उस परम हार्द (प्रिय, काम्य) वस्तु का विश्व में प्रचार किया है उनके नित्यपार्षद श्रीश्रीरूपसनातन आदि ने। इस रागानुगाभक्ति की भजन-परिपाटी के विषय में श्रील रूपगोस्वामिपाद ने लिखा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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