श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘जिस राग का किसी प्रकार भी अपगम नहीं होता, जो सर्वथा निरपेक्ष है, जो निरन्तर अपनी कान्ति से वर्द्धनशील है, उसी को माञ्जिष्ठराग कहा जाता है। जैसे श्रीराधामाधव का परस्पर राग।’ विदग्धमाधव नाटक से राधारानी के मञ्जिष्ठराग का दृष्टान्त दिया गया है-
‘श्रीराधा की पूर्वराग की दशा में उनके प्रेम की परीक्षा के लिए श्रीपौर्णमासी देवी ने जब यह कहकर कि उनमें श्रीकृष्ण को पाने की योग्यता नहीं उन्हें उपदेश दिया कि वे श्रीकृष्ण के प्रति अपने राग का परित्याग कर दें, राधारानी बोलीं- हे देवि ! मैंने आपके आग्रह पर श्रीकृष्ण के प्रति राग परित्याग किया। आप मेरे प्रति स्निग्ध हैं (स्नेह रखती हैं), सो आशीर्वाद दीजिए कि मैं इसी समय देहत्याग कर मधुकरी (भ्रमरी) बनकर जन्म लूँ और आज ही प्रदोष आरम्भ होने पर उत्तरगोष्ठ में घर आये मुरारि के मुख के आमोद-उद्गार से सुवासित वनमाला की गन्ध ग्रहण करने का सौभाग्य पा सकूँ।’ जो श्रीकृष्ण राग त्याग करने की बात सुनते ही श्रीकृष्ण के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्धाभास (संबंध आभास) प्राप्त करने का संकल्प कर सभी गुणरत्नों की खान अपनी देह त्याग कर निर्यग् योनि में भ्रमरी की देह पाने के लिए पौणमासी देवी से वर की प्रार्थना कर रही हैं, वे श्रीकृष्ण को कैसे भूलेंगी? इसलिए सखियों से कहती हैं- सखियों ! उन्हीं मुकुन्द को भूलने की चेष्टा करने पर भी भूल नहीं पाती। मैं क्या करूँ? सखियाँ कहती हैं- उससे मन को हटाकर अन्यत्र लगाने की चेष्टा करो। श्रीमती का उत्तर है- मैंने वह भी करके देख लिया पर मेरा मन मेरे वश में तो नहीं। श्री पौर्णमासी ने नान्दीमुखी से कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उ.नी. 14/139
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