श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
मुनिवृन्द उसके स्वरूप के विषय में सोचते हैं, पर कुछ भी निर्धारण नहीं कर पाते। व्यास आदि शास्त्रकार भी वाक्य द्वारा उनके स्वरूप-निरूपण में समर्थ नहीं। अलौकिक सौन्दर्य-माधुर्य के कल्लोलित सिन्धु श्रीकृष्ण का सौन्दर्य वर्णन करना सम्भव नहीं, कारण– इस विश्व के किसी भी वाक्य (भाषा) द्वारा उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। व्यास, शुक, नारद आदि मुनि प्रेम के अनुरूप श्रीकृष्णमाधुर्य का अनुभव प्राप्त करते हैं, सही है, किन्तु इस प्रकार के वाक्य के अभाव में अपना अनुभव सम्यक् व्यक्त नहीं कर पाते। इसीलिए कहा गया है कि मूकास्वादनवत् गूँगा मधुररस का आस्वादन करता है, किन्तु वाक्य के अभाव में अपना आनन्द व्यक्त नहीं कर पाता। श्रीकृष्णमाधुरी के विषय में भी ही जानना होगा।
‘हे सखे ! तुम यशोदा के पुत्र नहीं, तुम सभी जीवों के अंतर्यामी हो; ब्रह्मा की प्रार्थना कर विश्वपालन के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हो।’ उसी प्रकार राधारानी ने सखियों के आगे श्रीकृष्ण की दुर्लभता बताई है। मुनिजन वाक्य द्वारा भी उनका स्वरूप निरूपण करने में असमर्थ हैं। उलिल्खिति श्लोक की वैष्णवतोषणी टीका में लिखा है- “ऐश्वर्यज्ञानमिंद मुन्यादिमुखतः तन्माहात्म्य- श्रवणेन ततो निजभावानुरूप्येण श्रीगोपिकानन्दनतामय केवलमाधुर्यानुभवेऽपि तेदेतदैश्वर्यं याचकरीत्या निजाभीष्ट साधनमात्राय प्रयोजितमिति ज्ञेयम्।” श्रीकृष्णविरहिणी व्रजरमणियों ने इस श्लोक में श्रीकृष्ण के स्वरूप- ऐश्वर्य का वर्णन इस प्रकार किया- वे सर्वान्तर्यामी हैं और ब्रह्मा की प्रार्थना पर विश्वपालक बने हैं। यह बात इन रमणियों ने गर्गाचार्य भागुरि आदि मुनियों के मुख से बारबार सुनी थी। इसलिए श्रीकृष्ण के स्वरूपैश्वर्य की ये सब बातें उनकी सुनी मात्र थीं, उनके हृदय में अनुभूत नहीं। वे तो अपने भाव के अनुसार श्रीकृष्ण क यशोदानन्दन और अपना प्राणवल्लभ जानकर उनके माधुर्यानुभवरस में मग्न रहती थीं; बस इतना ही है विरह के समय अपने अभीष्ट की पूर्ति के लिए याचकरीति से दैन्य दिखाते हुए भाषा में ऐश्वर्य की बात कर बैठतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10/31/4
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