श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
हे वत्स हनुमान ! तुमने मेरा जो उपकार किया, उसका कोई प्रत्युपकार नहीं दीखता। अतएव मैंने विचार कर देख लिया कि मैं तुम्हारा चिर ऋणी हूँ। मैं तुम्हारा ऋण किसी प्रकार भी नहीं चुका सकता। उनके पास देने योग्य कुछ नहीं है, इसलिए बोले-
हे मारुति ! मैं तुम्हें अपना सर्वस्व प्रदान करूँगा यह सुनकर उन्होंने अपने श्रीचरणों में पड़े हनुमान को उठाकर प्रगाढ़ आलिंगन दान किया। यह आलिंगन दान ही उनका सर्वस्व दान है, यह उनके श्रीमुख की वाणी से ही पता चला। बाद में कहा-
हे कपिलश्रेष्ठ ! इस विश्व में मेरा आलिंगन प्राप्त करना परम दुर्लभ है। तुम मेरे भक्त और परम प्रिय हो, तभी तुम्हें आलिंगन दान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | श्लोक संख्या | श्लोक | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज