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सारंगरंगदा
अथात्याधिभारोत्पन्नतानवातिशयाद् ग्लानिरुत्पन्ना, तच्चेष्टा त्रिभिः श्लोकैः। तत्र प्रथमं भूमौ निपत्य नेत्रे निमील्य तददर्शनोत्पन्नविषाद- दैन्याभ्याम् अधुनैवागतं तं परिरप्स्यसे धैर्यं कुर्वित्याश्वासयन्तीः सखीः प्रति सनैराश्यं प्रलपन्त्या वचोऽनुवदन्नाह- आगतेऽप्यस्मिन्नशक्त्या भुजचालनाद्यसामर्थ्यात् साक्षादालिंगनं दूरे तावदास्ताम् विलोचना-भ्यामपि तं बालं किशोरशेखरं परिरब्धुं मम दैवसामग्री भाग्यरूपदर्शन-साधनं दूरे। नास्त्ये-वेत्यर्थः। हन्त विषादे। विषादे हेतुः- अम्विति। तत्रापि भावोद्गारिवामनेत्र प्रान्तेन दर्शनमास्ताम्, द्वाभ्यामपीतर जनवद्दर्शनभाग्यं नास्तीत्याह- द्वाभ्यामपि। नन्वधुनैव द्रक्ष्यसि, किमिति खिद्यस इत्यत्र नेत्रोन्मीलने प्रयतमाना तदशक्त्याह- आभ्याम्। स चेदागच्छेदागच्छतु नाम, मम पुनराभ्यां तद्दर्शनं नास्त्येवेति भावः। स्वान्तर्दशायाम्तया सह विलसन्तं तम्। अन्यत्समम्।।ब्रह्मर्थः स्पष्टः।।43।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- अत्यंत मनः पीड़ा से तनाव या अंग की कृशता से अतिशय ग्लानि उत्पन्न होने पर राधारानी जो चेष्टायें व्यक्त कर रही हैं, वही तीन श्लोकों में बताई जा रही हैं। श्रीमती की तनाव दशा-
- “पुन नाहि हेरब से चान्द बयान।
- दिने दिने क्षीणतनु ना रहे पराण।।
- आर कतो पियागुण कहिबो कान्दिया।
- जीवन संशय हैलो पिया ना देखिया।।
- उठिते बसिते आर नाहिक शकति।
- जागिया जागिया कतो पोहाइबो राति।।
- सो सुखसम्पद मोर कोथाकारे गेलो।
- पराण पुतलि मोर के हरिया निलो।।
- आर ना जाइबो सेइ जमुनार जले।
- आर ना हेरबो श्याम कदम्बेर तले।।
- निलाज पराण मोर रहे कि लागिया।
- ज्ञानदास कहे मोर फाटि जाय हिया।।”
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