श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
स्वान्तर्दशामूलक अर्थ: सखीभाव में श्रीलीलाशुक बोले- राधारानी को कुञ्ज में भेजने के भाव से युक्त श्रीकृष्ण का वदनचंद्रातप मेरी तप्त चित्तधारा को आच्छादन कर सुशीतल करे। बाह्य दशा में विरही लीलाशुक भूमि पर गिर कर कह रहे हैं- हे विभो ! कोई अनिर्वचनीय ताप मेरे मर्मस्थल पर दृढ़ आघात कर मर्मस्थान को चूर चूर करे, उससे पूर्व ही मेरी चित्तधारा तुम्हारे मुखचंद्र-चंद्रतप से ढक जाय। चंद्र का नाम है हिमांशु या सुधांशू। चंद्रमा तापनाशक है- ऐस कविप्रसिद्धि है। दिन का प्रखर सूर्यताप रात को पूर्णचंद्र के उदय होने पर सुशीतल होता है। विश्व का ताप नष्ट कर देता है, पर यह चंद्र कृष्णविहारी के विरहताप को बढ़ाता ही है। उसके विरहताप का उपशम करने वाला एकमात्र अभीष्ट श्रीकृष्ण का वदनचंद्र है। श्रीकृष्ण के वदनचंद्र को ‘चंद्रताप’ कहा गया है। श्रीकृष्ण का पदापद्म-चंद्रातप त्रितापदग्ध जीगज्जीवों की त्रिताप ज्वाला की शांति का एकमात्र चंद्रताप है। श्रीकृष्ण के प्रति उद्धव जी की उक्ति है-
‘हे ईश ! इस घोर संसार मार्ग में त्रितापज्वाला से आक्रान्त सन्तप्तचित्त मानव के लिए अमृतराशि वर्षणशील तुम्हारे चरणकमलों के आतपत्र (छाता) को छोड़ अन्य आश्रय’ नहीं देखता।’ शरणागत जन के सभी दुःखों का निवारण और सर्वत्र अपनी माधुरी का वर्षण वर्णित हुआ है- “शरणागतानां सर्वदुःखदूरीकरणं निजमाधुरीणां सर्वतो वर्षणञ्चात्राभिहितम्” (भक्तिसंदर्भ में टीका श्रीजीवपाद)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 11/19/9
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