श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण के दर्शन न पाकर तीव्र विरहताप में दग्ध हुईं श्रीराधा कह रही हैं- हे विभो ! तुम सभी तापों का हरण करने में समर्थ हो। जब तक कोई अनिर्वचनीय विरहताप मेरी चित्तवृत्ति को स्तम्भित न करे, अथवा समस्त मर्मस्थलों पर दृढ़ अभिघात (चोट) कर इंद्रिय आदि के सन्धिबन्धन-वियोगरूपी अति प्रगाढ़ अवस्था उत्पन्न कर मुझे सन्तप्त न करे, तब तक तुम्हारा मुखचंद्ररूपी चंद्रातप (शामियाना, चँदोवा) मुझे दुगुना ढक ले। ‘आयुर्घृतमितिवत्’- घृतसेवन से आयु बढ़ती है; तभी कहा जाता है घृत ही आयु है। उसी प्रकार मोहहेतुक ताप को ही यहाँ ‘मोह’ कहा गया है। अपना मुखचंद्र दिखाकर मेरा ताप दूर करो, यही भावार्थ है। चित्तवृत्ति की बहुलता के कारण ‘चित्तधारा’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके द्वारा ‘व्याधि’ दशा भी बताई है।
‘अभीष्ट की अप्राप्ति के कारण शरीर की जो पाण्डुता या विवर्ण अवस्था हैं और जो उत्ताप है, उसे व्याधि कहते हैं। इसमें शीत, स्पृहा, मोह, निःश्वास, पतन आदि हुआ करता है।’
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | श्लोक संख्या | श्लोक | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज