श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सर्वत्र सभी अवस्थाओं में सर्वदा तन्मनस्क होने के कारण जिस अतिशय भान्ति का उदय होता है, पण्डितगण उसे ‘उन्माद’ आख्या (नाम) दिया करते हैं। उस उन्माद में इष्ट वस्तु के प्रति द्वेष, निश्वास, निमेष एवं विरह आदि का उदय होता है। राधारानी की पूर्वराग-दशा में उन्माद की अवस्था का उदाहरण देते हुए श्रीमद् रूपगोस्वामिपाद ने लिखा है-
पूर्वरागवती राधारानी को विशाखाजी ने श्रीकृष्ण का चित्रपट दिखाया, तो श्रीराधा में वैमनस्य आ गया। सखियों ने उस वैमनस्य का कारण पूछा, तो श्रीमती बोलीं- सखियों! किसी एक शिखिपुच्छचूड़ (चूड़े में मोर पंख लगाये) नवीनयुवक ने अंग में मरकतमणि की कान्ति विस्तार करते हुए चित्रपट से निकलकर हँसते– हँसते मेरे प्रति कटाक्षपात किया था, उसी से मेरी मति उन्मादित हो गई है। आह! अब चंद्रमा मुझे अग्नि की तरह ज्वालामय और अग्नि शशि की तरह शीतल लग रहे हैं। आह ! अब चंद्रमा मुझे अग्नि की तरह ज्वालामय और अग्नि शशि की तरह शीतल लग रहे हैं (चंद्रमा उद्दीपन के कारण विरहिणी की विरहपीड़ा बढ़ाता है, इसलिए अग्नितुल्य ज्वालामय लगता है। उधर अग्नि में प्रवेश कर विरहिणी प्राण त्याग कर शान्ति प्राप्त करेगी, इसलिए अग्नि चंद्रमा की तरह शीतल लगती है)। महाजन पदकर्ता ने श्रीराधा की विरहोन्माद दशा का वर्णन किया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विदग्धमाधव
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