सुबोधनी
मया लोचनेन ते मनश्चञ्चलं कृतमित्याशंक्याह- हे अधीर, अनेन बिम्बाधरस्य विभ्रमेण स्मितादिना। ह्या खेदे, हन्ताश्चर्ये, तयोराधिक्ये वीप्सा। मनो दुनोषि तत्र लोभमुत्पाद्याकुली- करोषि। कथं तत्र तत्करणम्-केनापि मनोहरेण। तद्वक्तुं न शक्नुम इत्यर्थः। हर्षेण स्निग्धा या वेणोः स्वरसम्पत्तया च।।36।।
सारंगरंगदा
अथ पूर्वस्वप्रेरणस्मृत्योन्माद दशारूढायाः कथं मया ते मनश्चपलं कृतमिति वदतस्तस्य पूर्ववद् दर्शनादर्शनोत्थवैक्लव्योद्विग्नायास्त- मुपालभमानायाः प्रलापमनुवदन्नाह- निरक्षर संकेतकथनेनाधीरो यो बिम्बाधरस्तस्य विभ्रमेण मनो दुनोषि दुःखयसि। हे धूर्तेति शेषः। हा खेदे, हन्त विषादे, तयोरतिशये वीप्सा। ननु भ्रान्तासि तत्राह- अनेन साक्षाद् दृश्यमानेन। नन्वेवं चत् तदा कुञ्जं गच्छ तत्राह- केनापि प्रतीयमानस्याप्य सत्यत्वान्निर्वक्तुमशक्येन। अतो मनोहरेण मनोमात्रं हरति, कार्यं न सिद्धयतीन्द्रजलवद् यत्तेन। तथा हर्षैरार्द्रयतीति हर्षार्द्रस्तादृशो यः संकेतवेणुस्वरस्तत् सम्पदा च तादृश्या तथा करोषि। अतः कुलस्त्रीवध- रंगिणस्तव तत्र का भीतिरिति भावः।। स्वान्त- र्दशायामनुभवेऽपि मिथ्यात्वान्मनो दुनोषि मात्रम्। अन्य् समम्।। बाह्ये- स्फूर्त्या तथोक्तिः। अर्थः स्पष्ट एव।।36।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद का व्रजभाव का अर्थः श्रीकृष्ण ने पहले कटाक्ष प्रेरणा द्वारा राधारानी को संकेत कुञ्ज भेजा था, अब श्रीकृष्ण के अदर्शनजनित विरह में उसी अतीत की प्रेरणा-स्मृति के कारण वे उन्माद दशा को प्राप्त हुईं। इस अवस्था में उन्हें लगा कि श्रीकृष्ण मानो उनके आगे आकर कह रहे हैं- हे प्रिये ! तुम्हारा मन मैंने कैसे चञ्चल किया है? पिछले सुख को याद कर तुम्हारा चित्त उन्मत्त हुआ है, इसके लिए क्या मैं उत्तरदायी हूँ? श्रीकृष्ण के ये परिहास वचन सुनकर और उन्हीं सामने देखकर श्रीराधा के मन में दर्शन और अतदर्शन से उत्पन्न वैकलव्य एवं उद्वेग और भी बढ़ गये। उस अवस्था में श्रीकृष्ण के प्रति अनुयोग कर उन्होंने जो प्रलाप, किया है, श्री लीलाशुक इस श्लोक में उसी का अनुवाद कर रहे हैं। उन्माद के लक्षण श्री उज्ज्वलनीलमणि ग्रंथ में बताये हैं-
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