श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
स्वान्तर्दशासूचक अर्थ में श्रील कविराज गोस्वामिपाद ने श्रीलीलाशुक को समस्नेहा सखी का स्वभाव प्राप्त कहा है। सखीभाव से श्रीलीलाशुक बोले- हे कृष्ण! तुम पुनः श्रीराधा के निकट आगमन कर अपनी वंशीनाद के अनुचर कटाक्षों द्वारा श्रीराधा को कुञ्ज में भेजकर मुझ पर अनुगह करो। यदि कहो कि तुम्हारी प्रार्थना पूरी करने से अन्याय गोपियाँ क्रोध करेंगी, तो इसका उत्तर यह है कि तुम प्रसन्न रहो, फिर यदि अन्य सब अप्रसन्न हों तो हमारा क्या बिगड़ेगा? फिर यदि तुम ही अप्रसन्न होओ, श्रीराधा के निकट न आओ, तो अपनी प्रियसखियों द्वारा ही क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? समस्नेहा सखियों का स्वभाव ही ऐसा है कि श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधा भी उन्हें दुःख ही देती हैं-
‘श्रीराधा मानिनी थीं, तब अकस्मात आईं श्यामा की सखी वकुलमाला ने चम्पकलता से कहा सखि! श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधा मेरे अंतःकरण को सभी प्रकार से व्यथित करती हैं। हाय! इसी प्रकार श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण भी मुझे अतिशय व्यथा पहुँचाते हैं। अतएव जिस जन्म में एक साथ श्रीराधाकृष्ण के उत्सवप्रद वदनचंद्रमा नेत्रों को आस्वीद्य न हों, मेरा वह जन्म ही न हो।’ श्रील लीलाशुक के इस श्लोक का बाह्य अर्थ निःसंकोच किया जा सकता है। विश्व में ऐसा कोई उपासक है, जो इस श्लोक के भाव के अनुसार अपने अभीष्ट भगवान् से प्रार्थना करने में कुण्ठित होगा? असाधारण स्वरूप, ऐश्वर्य और माधुर्य को लेकर ही भगवान् की भगवत्ता है। सर्वमयत्व सर्वव्यापित्व ही उनका स्वरूप है; असाधारण असमोर्ध्व प्रभुता ही उनका ऐश्वर्य रूप-गुण-लीला की सुचारुता ही उनका माधुर्य है। यद्यपि इन तीनों का अनुभव ही यथार्थ भगवदनुभव है, माधुर्य भगवत्ता का सार होने के कारण माधुर्यज्ञान उनके स्वरूप और ऐश्वर्य के ज्ञान को आवृत किए रखता है। जो लोग माधुर्य के उपासक हैं, भगवान् को मधुर समझते, उनके लिए वे चिरसुन्दर चिरमधुर प्रेममय रसमय हैं। वे श्रीहरि के माधुर्य-आस्वादन को छोड़ और किसी बात की कामना नहीं करते। उन्हें पाकर उन लोगों के लिए और कुछ भी पाने को नहीं बचता; और यदि उन्हें नहीं पाते, तो विश्व में किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं रहती। श्रीमुख की वाणी है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उ. नी.
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