श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
इस उक्ति से राधारानी का भ्रमविकार विशेष रूप से प्रकट हुआ है। श्रीकृष्ण की भुजाओं की स्मृति से उत्कण्ठा की अतिशयता में राधारानी ने जो प्रलाप किया है, श्रीलालाशुक ने उसी का अनुवाद करते हुए कहा- हे प्राणनाथ! कुञ्ज में प्रेरण करने के लिए तुमने जिन कटाक्षों का प्रयोग किया उनसे मेरे प्रति प्रसन्नता प्रकट करो। अर्थात् वहाँ से आगमन कर पुनः उसी प्रकार कटाक्ष- निक्षेप कर मुझे कुञ्ज में भेजो। तुम्हारा वह कटाक्ष संकेत वंशी निनाद का अनुचर है। अर्थात् श्रीकृष्ण जब वंशीध्वनि द्वारा संकेत करते हैं, तो उनका कटाक्ष उस ध्वनि का अनुसरण कर श्रीराधा को कुञ्ज में जाने का संकेत करता है। उस समय का वह वंशीनिनाद अति मधुर और परम आनन्दजनक है। यदि कहो कि रास में समागत सभी गोपियों के बीच ऐसा संकेत करने से अर्थात् वैसे वंशीनिनाद और कटाक्ष द्वारा तुम्हें विलासकुञ्ज में भेजने से अन्यायन्य गोपियाँ तुम्हारे ऊपर और मेरे प्रति क्रोध करेंगी, जैसे महारास में तुम्हारे प्रति उन लोगों को क्षोभ हुआ-
‘जो कृष्णसहगामिनी व्रजरमणी हम सबको वञ्चित कर हम सभी के भोग्य श्रीकृष्ण– अधरूपी धन का अपहरण कर अकेली निर्जन में उपभोग कर रही हैं, उसके ये पगचिह्न देख कर हमारे चित्तों में बड़ा ही क्षोभ हो रहा है।’ उन्होंने मेरे प्रति भी क्षोभ किया था-
‘देखो, देखो, उस कामुक कृष्ण के इस स्थान पर अपनी प्रेयसी कामिनी का केश-प्रसाधन किया है और पुष्पों से उनका चूड़ा बाँधने के लिए यहाँ उपवेशन किया है।’ इसलिए वेणुनाद के साथ कटाक्ष करने से वे अब भी क्रोध करेंगी, उससे केलिरस में विग्न होगा अतएव ऐसी प्रार्थना न कर (तुम) सखियों के बीच रहकर स्वयं को सुखी करो- ऐसी प्रार्थना का प्रयोजन नहीं है- श्रीकृष्ण की ऐसी उक्ति की संभावना समझकर (वे) गर्व और दैन्य के साथ बोलीं- ‘त्वयि प्रसन्ने’ इत्यादि, हे कृष्ण ! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न रहो, मेरे पास आकर वंशीनाद और कटाक्ष द्वारा मुझे केलिकुञ्ज में भेजो, तो इस रजनी में वृन्दावन में समागत अन्यान्य सहस्र-सहस्र गोपियों के अप्रसन्न होने से भी मेरी क्या बात, मेरी सखियाँ ही मुजे क्या सुख देंगी? तुम्हारे विरह में उन लोगों का दर्शन और सान्निध्य भी मेरे लिए अति दुःखद ही होगा। जैसे श्रीगीतगोविन्द में श्रीजयदेव ने लिखा है- ‘रिपुरिव सखी-संवासोऽयमिति’ अर्थात् श्रीकृष्णविरह के समय सखियों के साथ सहवास श्रीमती को शत्रुसहवास की तरह दुःखद होता है। फिर ‘प्रियसखीमालापि ज्वालायत’ अर्थात् प्रियविरह में प्रियसखियाँ भी ज्वाला ही प्रदान करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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