श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीमज्जीवगोस्वामिपाद ने माधुर्यानुभव का लक्षण बताया है- “माधुर्यानुभवी नाम माधुर्यभावनात्मक- साधनोत्पन्न- प्रेमविशेषलब्ध- रसापरपर्याय आस्वादविशेषः” (भ.र.सि. 4/5/15 टीका)- ‘माधुर्यभावनात्मक साधना से उत्पन्न जो प्रेमविशेष है, उस प्रेमविशेष से प्राप्त श्रीकृष्ण-रूप आदि का आस्वादविशेष ही माधुर्यानुभव है। यह रसानुभव का ही दूसरा पर्याय है।’ उसी रस या माधुर्य के जो वारिधि हैं, अर्थात् विशाल सिन्धु हैं, उसका मत्ततारूपी जल महामादक है- यही है माधुर्य! इसके प्रति आकृष्ट होने पर मन इतर (अन्य) वस्तुओं को भूलकर स्रोतशैवाल की तरह इधर-उधर सञ्चरण करता रहता है। उस सिंधु की जो तरंग है, अर्थात् उच्छलति अवस्था है, उसका भंग या प्रकार विशेष ही तरंगभंगिमा है; वह मादक विशेष है, इसलिए उसमें मदविकार-विशेष हुआ करता है। वैसा जो श्रृंगार है, अर्थात् श्रृंगाररसमय विलास है, उससे संकुलित या व्याप्त तथा शीत अर्थात् दुरन्त कामताप का निर्वापक- ऐसी जिनकी किशोरमूर्ति है। अथवा श्रीकृष्ण का माधुर्य ही समुद्र है, उसमें ब्रजसुंदरियों का सौभाग्य यौवन आदि जनितमद ही जल है, उसकी जो तरंगभंगिमा है, उसके द्वारा जो श्रृंगार है, उससे जो संकुलित या संपूरित है। इस प्रकार की व्याख्या जैसी भावगंभीर है, वैसी ही सुरसाल है।।।14।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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