श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अथवा हे देवदेवदेव। देवगण मर्त्यपूज्य हैं, फिर कृष्णपार्षदगण देवताओं के भी पूज्य हैं। जो उन पार्षदों के देवता या ईश्वर हैं, वे ही देवदेवदेव हैं। तुम्हारी जय हो। भगवत् पार्षद देवताओं के भी पूज्य हैं, इसका प्रमाण उद्धृत कर रहे हैं। श्रीमद् भागवत द्वितीय स्कन्ध से- ‘हरेरनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः।’[1] श्रीवैकुण्ठ वर्णन में कहा गया है- श्रीहरि के सेवक उनके पार्षदगण सुर-असुर द्वारा अर्चित हैं। जिनका स्वरूप और नाम त्रिभुवन- मंगल दिव्य आनन्दमय है, ऐसे देव तुम्हारी जय हो। श्रवण मन-नयन के अमृत-अवतार के रूप में जिनका प्राकट्य है, ऐसे अमृतावतार तुम्हारी जय हो। प्राकृत विश्व का अमृत नहीं, अप्राकृत अमृतावतार। ‘सुधा छानिया केबा ओ सुधा ढेलेछे गो, तेमति श्यामेर चिकणदेहा।’ (चण्डीदास) प्राकृत अमृत पान करने पर स्वादु लगता है, किन्तु यह अमृतावतार, श्रवण, मन और नेत्रों की भी सुधा है- प्रत्येक इन्द्रिय के लिए अपूर्व आस्वादन से भरा है।।108।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/9/10
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