श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘हे भृगुवर ! यह कृष्णनाम मधुरादपि मधुर है। मंगल की अपेक्षा परममंगल चित्स्वरूप श्रीकृष्णनाम निखिल वेदरूपी कल्पलतिका का उत्तम फल है। श्रद्धा से हो, हेला (अनादर) से हो, एक बार कृष्णनाम गाने से यह नरमात्र का निस्तार कर देता है।’ फिर यह कृष्णनाम ‘दिव्य’ अर्थात् परम मनोहर है। आनन्द देकर सभी के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करना ही कृष्णनाम का स्वभाव है। ‘आनन्दाम्बुधिवर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्।’ इसीलिए मनोहर कृष्णनाम जिह्वा से उच्चारित होकर बहुत सी जिह्वाओं की प्राप्ति के लिए वासना जगाता है, कानों को स्पर्श करते ही अर्बुद (असंख्य, दस करोड़) कानों की इच्छा उत्पन्न करता हैं, चित्त प्रांगण की संगिनी बनकर समस्त इंदियों के व्यापार (गतिविधियों) को स्तिमित (स्थिर, निश्चेष्ट) कर देता है- न जानें कितने अद्भुत अमृत से गढ़े हैं ये दो अक्षर ‘कृ’ और ‘ष्ण’।
श्रीवृहद्भागवतामृत में भी श्रील सनातन गोस्वामिपाद ने लिखा है-
नामामृतरस मात्र एक इन्द्रिय में प्रादुर्भूत होकर अपने माधुर्यरस से समुदय इन्द्रियों को ही आप्लावित कर डालता है। गोपी-भाव के आगे कृष्णनाम का मनोहरता- धर्म अत्यंत विचित्र है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विदग्धमाधव
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