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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 16
ब्रह्मन! इस प्रकार ‘त्रैमासिक’ व्रत बताया गया। इस व्रत का अनुष्ठान कर लिया जाये तो यह विशिष्ट संतति देने वाला और पति सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। इस व्रत के प्रभाव से सौ जन्मों तक नारी का अखण्ड सौभाग्य बना रहता है और निश्चय ही वह सौ जन्मों तक सत्पुत्र की जननी होती है। उसका कभी पति और पुत्र से वियोग नहीं होता। पुत्र दास की भाँति उसकी आज्ञा का पालक होता है तथा पति भी उसकी बात को मानने वाला होता है। वह सती नारी प्रतिक्षण श्रीराधा-कृष्ण की भक्ति से सम्पन्न होती है। व्रत के प्रभाव से उसको ज्ञान तथा श्रीहरि की स्मृति प्राप्त होती है। इस सामवेदोक्त व्रत का पूर्वकाल में हम दोनों ने भी पालन किया था। ब्रह्मन! दूसरी स्त्रियों द्वारा उस व्रत का अनुष्ठान होता देख पार्वतीदेवी ने प्रसन्नतापूर्वक दोनों हाथ जोड़ भक्तिभाव से सिर झुकाकर भगवान शंकर से कहा। पार्वती बोलीं– जन्नाथ! आज्ञा कीजिये। मैं उत्तम व्रत का पालन करूँगी। हम दोनों के इष्टदेव श्रीहरि के व्रतों में यह श्रेष्ठ व्रत है। नाथ! श्रीहरि की आराधना समस्त मंगलों की कारणरूपा है। यज्ञ, दान, वेदाध्ययन, तीर्थ सेवन और पृथ्वी की परिक्रमा– ये सब श्रीहरि की आराधना की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। जिसके बाहर और भीतर प्रतिक्षण श्रीहरि की स्मृति बनी रहती है, उस जीवन्मुक्त पुरुष के दर्शन से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उसके चरणकमलों की धूल पड़ने से वसुधा उसी क्षण शुद्ध हो जाती है तथा उसके दर्शनमात्र से तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, धर्म, शेषनाग, आप महेश्वर और गणेश– ये सब लोग जिनके चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उन्हीं के समान महातेजस्वी हो गये हैं। जो जिसका सदा ध्यान करता है, वह निश्चय ही उसे प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं– ध्याता पुरुष गुण, तेज, बुद्धि और ज्ञान की दृष्टि से अपने ध्येय के समान ही हो जाता है। श्रीकृष्ण के चिन्तन, तप, ध्यान और सेवा से मैंने आप-जैसा स्वामी और पुत्र भी प्राप्त किया है। मुझे अनायास ही सब कुछ मिल गया। मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। मुझे आप-जैसे स्वामी मिले। कार्तिकेय और गणेश-जैसे पुत्र प्राप्त हुए तथा श्रीकृष्ण के अंशस्वरूप हिमवान-जैसे पिता मिले। प्रभो! मेरे लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है? पार्वती की यह बात सुनकर भगवान शंकरबहुत प्रसन्न हुए। उनका शरीर पुलकित हो उठा और वे हँसकर मधुर वाणी में बोले। श्री महादेव जी ने कहा– ईश्वरि! तुम महालक्ष्मीस्वरूपा हो। तुम्हारे लिये क्या असाध्य है? तुम सर्वसम्पत्स्वरूपा और अनन्तशक्तिरूपिणी हो। देवि! तुम जिसके घर में हो, वह सम्पूर्ण ऐश्वर्य का भाजन है। शुभप्रदे! मैं, ब्रह्मा और विष्णु तुममें भक्ति रखकर तुम्हारे कृपाप्रसाद से ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार में समर्थ हुए हैं। हिमालय कौन है? मेरी क्या बिसात है और कार्तिकेय तथा गणेश क्या हैं? तुम्हारे बिना हम सब लोग असमर्थ हैं और तुम्हारा सहयोग पाकर हम सभी सब कुछ करने में समर्थ हैं। जो पतिव्रता के योग्य हैं और जो प्राचीनकाल से श्रुति में सुनी गयी है, वह आज्ञा परमेश्वर की आज्ञा है। पतिव्रते! उस ईश्वरीय आज्ञा को स्वीकार करके तुम व्रत का पालन करो। अब तक जिन स्त्रियों ने इस व्रत का पालन किया है, उन सबकी अपेक्षा विलक्षण ढंग से तुम इस त्रैमासिक व्रत का अनुष्ठान करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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