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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 7
परंतु योगमाया ने उस गर्भ को खींचकर रोहिणी के पेट में रख दिया। रक्षकों ने राजा को यह सूचना दी कि देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया। उसी गर्भ से भगवान अनन्त प्रकट हुए, जो ‘संकर्षण’ नाम से प्रसिद्ध हुए। तदनन्तर देवकी का आठवाँ गर्भ प्रकट हुआ जो वायु से भरा हुआ था। नवाँ मास व्यतीत होने के पश्चात दसवाँ मास उपस्थित होने पर सर्वदर्शी भगवान ने उस गर्भ पर दृष्टिपात किया। समस्त नारियों में श्रेष्ठ देवी देवकी स्वयं तो रूपवती थीं ही, भगवान के दृष्टिपात करने पर तत्काल ही उनका सौन्दर्य चौगुना बढ़ गया। कंस ने देखा, देवकी के मुख और नेत्र खिल उठे हैं। वह तेज से प्रज्वलित हो योगमाया के समान दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही हैं; मूर्तिमान ज्योतिःपुंज-सी दिखायी देती है। उसे देख असुरराज कंस को बड़ा विस्मय हुआ। उसने मन-ही-मन कहा– ‘इस गर्भ से जो संतान होगी, वही मेरी मृत्यु का कारण है’– ऐसा कहकर कंस यत्नपूर्वक देवकी और वसुदेव की रखवाली करने लगा। उसने सात द्वार वाले भवन में उन दोनों को रख छोड़ा था। दसवें मास के पूर्ण होने पर जब वह गर्भ वायु से पूर्ण हो गया। तब सबसे निर्लिप्त रहने वाले साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी के हृदय-कमल में निवास किया। उस समय महामनस्वी वसुदेव ने देवकी पर दृष्टिपात करके समझ लिया कि प्रसवकाल संनिकट आ गया है। फिर तो वे भगवान श्रीहरि का स्मरण करने लगे। रत्नमय प्रदीप से युक्त उस परम मनोहर भवन में उन्होंने तलवार, लोहा, जल और अग्नि को लाकर रखा। मन्त्रज्ञ मनुष्य तथा भाई-बन्धुओं की स्त्रियों को भी बुला लिया। भय से व्याकुल वसुदेव ने विद्वान ब्राह्मण तथा बन्धुओं को भी सादर बुला भेजा। इसी समय जब रात के दो पहर बीत गये, आकाश में बादल घिर आये, बिजलियाँ चमकने लगीं, अनुकूल वायु चलने लगी तथा रक्षक निद्रित हो शय्या पर इस तरह निश्चेष्ट सो गये, मानो मरकर अचेत हो गये हों; तब धर्म, ब्रह्मा तथा शिव आदि देवेश्वरगण वहाँ आये तथा गर्भस्थ परमेश्वर की स्तुति करने लगे। देवता बोले– भगवन! आप समस्त संसार की उत्पत्ति के स्थान हैं, किंतु आपकी उत्पत्ति का स्थान कोई नहीं है। आप अनन्त, अविनाशी, निष्पाप, सगुण, निर्गुण तथा महान ज्योतिःस्वरूप हैं। आप निराकार होते हुए भी भक्तों के अनुरोध से साकार बन जाते हैं। आप पर किसी का अंकुश या नियन्त्रण नहीं है। आप सर्वथा स्वच्छन्द, सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा समस्त गुणों के आश्रय हैं। आप संतों को सुख देने वाले, दुष्टों को दुःख प्रदान करने वाले, दुर्गमस्वरूप एवं दुर्जनों के नाशक हैं। आप तक तर्क की पहुँच नहीं होती है। आप सबके आधार हैं। शंका और उपद्रव से शून्य हैं। उपाधिशून्य, निर्लिप्त और निरीह हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं। अपनी आत्मा में रमण करने वाले पूर्णकाम, निर्दोष और नित्य हैं। आप सौभाग्यशाली और दुर्भाग्यरहित हैं तथा प्रवचनकुशल हैं। आपको रिझाना या लाँघना कठिन ही नहीं, असम्भव है। आपके निःश्वास से वेदों का प्राकट्य हुआ है; इसलिये आप उनके प्रादुर्भाव में हेतु हैं। सम्पूर्ण वेद आपके स्वरूप हैं। छन्द आदि वेदांग भी आपसे भिन्न नहीं हैं। आप वेदवेत्ता और सर्वव्यापी हैं। ऐसा कहकर देवताओं ने बारंबार उनको प्रणाम किया। उन सबके नेत्रों में हर्ष के आँसू छलक रहे थे। उन सबने फूलों की वर्षा की। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर (मूल श्लोक में कहे गये) बयालीस नामों का पाठ करता है, वह श्रीहरि की दृढ़भक्ति, दास्यभाव और मनोवांछित फल पाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देवा ऊचुः–
जगद्योनिरयोनिस्त्वमनन्तोऽव्यय एव च। ज्योतिःस्वरूपो ह्यनघः सगुणो निर्गुणो महान्।।
भक्तानुरोधात् साकारो निराकारो निरंकुशः। स्वेच्छामयश्च सर्वेशः सर्वः सर्वगुणाश्रयः।।
सुखदो दुःखदो दुर्गो दुर्जनान्तक एव च। निर्व्यूहो निखिलाधारो निःशङ्को निरुपद्रवः।।
निरुपाधिश्च निर्लिप्तो निरीहो निधनान्तकः। आत्मारामः पूर्णकामो निर्दोषो नित्य एव च।।
सुभगो दुर्भगो वाग्मी दुराराध्यो दुरत्ययः। वेदहेतुश्च वेदाश्च वेदाङ्गो वेदविद् विभुः।।
इत्येवमुक्त्वा देवाश्च प्रणेमुश्च मुहुर्मुहुः। हर्षाश्रुलोचनाः सर्वे ववृषुः कुसुमानि च।।
द्विचत्वारिंशन्नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्। दृढां भक्तिं हरेर्दास्यं लभते वाञ्छितं फलम्।।-(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 7। 55-61)
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