ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 27
परशुराम ने कहा– माता! जो पिता की आज्ञा भंग करने वाले तथा पिता के हिंसक का वध नहीं करता, वह महान मूर्ख है। उसे निश्चय ही रौरव नरक में जाना पड़ता है। आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में हथियार लेकर मारने के लिये आने वाला, धन का अपहरण करने वाला, क्षेत्र का विनाश करने वाला, स्त्री को चुराने वाला, पिता का वध करने वाला, बन्धुओं ही हिंसा करने वाला, सदा अपकार करने वाला, निन्दक और कटु वचन कहने वाला– ये ग्यारह वेद विहित घोर पापी हैं। ये मार डालने योग्य हैं। इसी बीच वहाँ स्वयं महर्षि भृगु आ पहुँचे। वे मनस्वी मुनि अत्यन्त भयभीत थे और उनका हृदय दुःखी था। उन्हें देखकर रेणुका और परशुराम उनके चरणों पर गिर पड़े। तब भृगु मुनि उन दोनों से ऐसी वेदोक्त बात कहने लगे जो परलोक के लिये हितकारिणी थी। भृगु जी बोले– बेटा! तुम तो मेरे वंश में उत्पन्न ज्ञान सम्पन्न हो; फिर विलाप कैसे कर रहे हो। इस संसार में सभी चराचर प्राणी जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं। पुत्र! सत्य के सार तथा सत्य के बीज तो श्रीकृष्ण ही हैं। तुम उन्हीं का स्मरण करो। वत्स! जो बीत गया, सो गया; क्योंकि बीती हुई बात पुनः लौटती नहीं। जो होने वाला है, वह होता ही है और आगे भी जो होने वाला होगा वह होकर ही रहेगा; क्योंकि निषेकजन्य (प्रारब्धजन्य) कर्म सत्य (अटल) होता है। भला, कर्मफल भोग को कौन हटा सकता है? वत्स! श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार के भूत, वर्तमान और भविष्य की रचना की है, उनके द्वारा निरूपित उस कर्म को कौन निवारण कर सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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