ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 29-31
मृत्युकाल उपस्थित होने पर समस्त पापी जीवों को वे स्वयं दिखाई पड़ते हैं। शिव, देवी, सूर्य और गणपति के उपासक तथा अपने कर्मों में निरत रहने वाले सिद्ध एवं योगी पुरुषों को अपने पुण्य-प्रभाव से उनके सम्मुख नहीं जाना पड़ता। जो अपने धर्म में सदा निरत रहते हैं, जिनका हृदय विशाल है तथा जो पूर्ण स्वतन्त्र हैं, जिन्हें स्वप्न में भी कहीं भी इष्टदेव का दर्शन प्राप्त हो सका है, ऐसे वैष्णव पुरुषों को वे बलवान एवं निश्शंक यम-किंकर कभी दिखाई नहीं देते। साध्वि! भगवान श्रीहरि की सेवा में संलग्न रहने वाले पुण्यात्मा, योगी, सिद्ध, व्रती, तपस्वी और ब्रह्मचारी पुरुष नरक में नहीं जाते, यह ध्रुव सत्य है। जो शक्तिशाली मनुष्य बल के अभिमान में आकर खलता के कारण अपने कटुवचनों के द्वारा बान्धवों को दग्ध करता है, वह अग्निकुण्ड नामक नरक में जाता है। उसके शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने वर्षों तक उसे उस नरक में वास करना पड़ता है। फिर वह तीन बार पशु-योनि में जन्म पाता है। जो मूर्ख मानव घर पर आए हुए भूखे और प्यासे दुःखी ब्राह्मण को भोजन नहीं देता, वह तप्तकुण्ड नामक नरक में जाता है। अपने रोम के बराबर वर्षों तक उस दुःखप्रद नरक में वास करने के पश्चात् साथ जन्मों तक वह पक्षी होता है। जो मनुष्य रविवार, सूर्यसंक्रान्ति, अमावस्या और श्राद्ध के दिन वस्त्रों को क्षार पदार्थ से धोता है, उसे सूत के बराबर वर्षों तक क्षारकुण्ड में रहना पड़ता है। फिर सात जन्मों तक वह धोबी होता है। जो अपने अथवा दूसरे के द्वारा दी हुई ब्राह्मण और देवताओं की वृत्ति को छीन लेता है, वह साठ हजार वर्षों के लिए विटकुण्ड नामक नरक में जाता है। पुनः पृथ्वी पर आकर उतने ही वर्षों तक वह विष्ठा के कीड़े की योनि में रहता है। जो दूसरों के तड़ाग में बिना उसकी आज्ञा लिए तड़ाग निर्माण कराता है[1] तथा भाग्यदोष से उसका विधिवत उत्सर्ग करता है, ऐसा व्यक्ति उस दोष के कारण मूत्रकुण्ड नामक नरक में जाता है। उसे वहाँ वे ही मूत्रादि अपवित्र वस्तुएँ भोजन के लिए मिलती हैं। फिर सात जन्मों तक भारतवर्ष में वह गोधा होकर रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तड़ाग बनवाने का झूठा यश लेता है।
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