ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 35
कार्तवीर्यार्जुन ने कहा– हे राम! आप श्रीहरि के अंश, हरि के भक्त और जितेन्द्रिय हैं। मैंने जिनके मुख से धर्म श्रवण किया है, आप उनके गुरु के भी गुरु हैं। जो कर्मवश ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म-चिन्तन करता है और अपने धर्म में तत्पर एवं शुद्ध है, इसीलिये वह ब्राह्मण कहलाता है। जो मनन करने के कारण नित्य बाहर-भीतर कर्म करता रहता है, सदा मौन धारण किये रहता है और समय आने पर बोलता है, वह मुनि कहलाता है। जिसकी सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में, घर और जंगल में तथा कीचड़ और अत्यन्त चिकने चन्दन में समता की भावना है, वह योगी कहा जाता है। जो सम्पूर्ण जीवों में समत्व-बुद्धि से विष्णु के भावना करता है और श्रीहरि की भक्ति करता है, वह हरिभक्त कहा जाता है[1]। ब्राह्मणों का धन तप है। चूँकि तपस्या कल्पतरु और कामधेनु के समान है, इसीलिये उनकी निरन्तर तप में इच्छा लगी रहती है। रजोगुणी पुरुष कर्मों के रागवश राजसिक कार्य करता है और रागान्ध होकर रजोगुणी कार्यों में लगा रहता है; इसी कारण वह राजा कहा जाता है। मुने! रागवश मैंने कामधेनु की याचना की थी; अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का इसमें कौन-सा अपराध हुआ? फिर भी, आपके पिता ने महान बल-पराक्रम से सम्पन्न बहुत-से भूपालों का वध कर डाला। इस समय यहाँ शिशु-अवस्था वाले राजकुमार ही आये हैं। आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को इक्कीस बार भूपालों से शून्य कर देने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन कीजिये। युद्ध करना तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाना उनके लिये निन्दित नहीं है; परंतु ब्राह्मणों की रण-स्पृहा लोक और वेद– दोनों में विडम्बना की पात्र है। वाणी ही जिनका बल और तप ही जिनका धन है, उन ब्राह्मणों की शान्ति ही प्रत्येक युग में स्वस्तिकारक कर्म है। युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं है। शान्तिपरायण ब्राह्मण युद्ध के लिये उद्योगशील हो, ऐसा तो न देखने में ही आया है और न सुना ही गया है। भगवान नारायण के विद्यमान रहते यह दूसरी तरह का उलट-फेर कैसे हो गया? रणांगण में यों कहकर राजेन्द्र कार्तवीर्य शान्त हो गया। उसके उस वचन को सुनकर सभी लोग मौन हो गये। तदनन्तर परशुराम के सभी भाई, जो बड़े शूरवीर तथा हाथों में अत्यन्त तीखे शस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आज्ञा से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। तब जो स्वयं मंगलस्वरूप तथा मंगलों का आश्रयस्थान था, उस महाबली मत्स्यराज ने भी उन सबको युद्धोन्मुख देखकर युद्ध करना आरम्भ किया। उस राजेन्द्र ने बाणों का जाल बिछाकर उन सभी को रोक दिया। तब जमदग्नि पुत्रों ने उस बाण-समूह को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुने! राजा ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्यास्त्र चलाया; परंतु मुनियों ने माहेश्वर-अस्त्र के द्वारा खेल-ही-खेल में उसे काट दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्मणा ब्राह्मणो जातः करोति ब्रह्मभावनम्। स्वधर्मनिरतः शुद्धस्तस्माद् ब्राह्मण उच्यते।।
अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते कर्म नित्यशः। मौनी शश्वद् वदेत् काले यो हि स मुनिरुच्यते।।
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पङ्के सुस्निग्धचन्दने। समता भावना यस्य स योगी परिकीर्तितः।।
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया। हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स च स्मृतः।।-(गणपतिखण्ड 35। 70-73)
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