श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 149 में भगवान विष्णु के सहस्रनामों का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन द्बारा विष्णु के नामों का वर्णन

जिनके स्मरण करने मात्र से मनुष्य जन्म-मृत्यु-रूप संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है, सबकी उत्पत्ति के कारणभूत उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। सम्पूर्ण प्राणियों के आदिभूत, पृथ्वी को धारण करने वाले, अनेक रूपधारी और सर्वसमर्थ भगवान विष्णु को प्रणाम है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण विधिरूप धर्म तथा पापों का क्षय करने वाले धर्म-रहस्यों को सब प्रकार सुनकर शान्तनुपुत्र भीष्म से फिर पूछा।

युधिष्ठिर बोले- दादा जी! समस्त जगत में एक ही देव कौन है तथा इस लोक में एक ही परम आश्रयस्थान कौन है? किस देव की स्तुति- गुण-कीर्तन करने से तथा किस देव का नाना प्रकार से ब्राह्य और आन्तरिक पूजन करने से मनुष्य कल्याण की प्राप्तिकर सकते हैं? आप समस्त धर्मों में किस धर्म को परम श्रेष्ठ मानते हैं? तथा किसका जप करने से जीव जन्म-मरणरूप संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है?

भीष्म जी ने कहा- बेटा! स्थावर-जंगमरूप संसार के स्वामी, ब्रह्मादि देवों के देव, देश-काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न, क्षर-अक्षर से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम का सहस्रनामों के द्वारा निरन्तर तत्पर रहकर गुण-संकीर्तन करने से पुरुष सब दुखों से पार हो जाता है। तथा उसी विनाशरहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से, उसी का ध्यान करने से तथा स्तवन एवं नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुखों से छूट जाता है। उस जन्म-मृत्यु आदि छः भाव-विकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरन्तर स्तुति करने से मनुष्य सब दुखों से पार हो जाता है।

ब्राह्मणों के हितकारी, सब धर्मों को जानने वाले, प्राणियों की कीर्ति को बढ़ाने वाले, सम्पूर्ण लोकों के स्वामी, समस्त भूतों के उत्पत्ति-स्थान एवं संसार के कारणरूप परमेश्वर का स्तवन करने से मनुष्य सब दुखों से छूट जाता है। सम्पूर्ण धर्मों में मैं इसी धर्म को सबसे बड़ा मानता हूँ कि मनुष्य कमलनयन भगवान वासुदेव का भक्तिपूर्वक गुण-संकीर्तनरूप स्तुतियों से सदा अर्चना करे। पृथ्वीपते! जो परम महान तेजःस्वरूप है, जो परम महान तपःस्वरूप है, जो परम महान ब्रह्म है, जो सबका परम आश्रय है, जो पवित्र करने वाले तीर्थादि कों में परम पवित्र है, मंगलों का भी मंगल है, देवों का भी देव है तथा जो भूतप्राणियों का अविनाशी पिता है, कल्प के आदि में जिससे सम्पूर्ण भूत उत्पन्न होते हैं और फिर युग का क्षय होने पर महाप्रलय में जिसमें वे विलीन हो जाते हैं, उस लोकप्रधान, संसार के स्वामी, भगवान विष्णु के हजार नामों को मुझसे सुनो, जो पाप और संसार-भय को दूर करने वाले हैं। महान आत्मस्वरूप विष्णु के जो नाम गुण के कारण प्रवृत्त हुए हैं, उनमें से जो-जो प्रसिद्ध हैं और मन्त्रदृष्टा मुनियों द्वारा जो सर्वत्र गाये गये हैं, उन समस्त नामों को पुरुषार्थ-सिद्धि के लिये वर्णन करता हूँ।

भगवान विष्णु के सहस्रनामों का वर्णन

ऊँ सच्चिदानन्दस्वरूप,- 1. विश्वम- विराटस्वरूप, 2. विष्णुः- सर्वव्यापी, 3. वषट्कारः- जिनके उद्देश्य से यज्ञ में वषट क्रिया की जाती है, ऐसे यज्ञस्वरूप, 4. भूतभव्यभवत्प्रभुः- भूत, भविष्यत और वर्तमान के स्वामी, 5. भूतकृत-रजोगुण को स्वीकार करके ब्रह्मारूप से सम्पूर्ण भूतों की रचना करने वाले, 6. भूतभृत्-सत्त्वगुण को स्वीकार करके सम्पूर्ण भूतों का पालन-पोषण करने वाले, 7. भावः- नित्यस्वरूप होते हुए भी स्वतः उत्पन्न होने वाले, 8. भूतात्मा-सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, 9. भूतभावनः- भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाले।[1] 10. पूतात्मा-पवित्रात्मा, 11. परमात्मा-परमश्रेष्ठ नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव, 12. मुक्तानां परमा गतिः-मुक्त पुरुषों की सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप, 13. अव्ययः- कभी विनाश को प्राप्त न होने वाले, 14. पुरुषः- पुर अर्थात शरीर में शयन करने वाले, 15. साक्षी- बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, 16. क्षेत्रज्ञः- क्षेत्र अर्थात समस्त प्रकृतिरूप शरीर को पूर्णतया जानने वाले, 17 अक्षरः- कभी क्षीण न होने वाले। 18. योगः-मनसहित सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों के निरोधरूप योग से प्राप्त होने वाले, 19. योगविदां नेता- योग को जानने वाले भक्तों के स्वामी, 20. प्रधानपुरुषेश्वरः- प्रकृति और पुरुष के स्वामी, 21. नारसिंहवपुः- मनुष्य और सिंह दोनों के-जैसाशरीर धारण करने वाले नरसिंहरूप, 22. श्रीमान- वक्षःस्थल में सदा श्री को धारण करने वाले, 23. केशवः- (क) ब्रह्मा, (अ) विष्णु और (ईश) महादेव- इस प्रकार त्रिमूर्तिस्वरूप, 24. पुरुषोत्तमः- क्षर और अक्षर- इन दोनों से सर्वथा उत्तम। 25. सर्वः-सर्वरूप, 26 शर्वः- सारी प्रजा का प्रलयकाल में संहार करने वाले, 27. शिवः- तीनों गुणों से परे कल्याणस्वरूप, 28. स्थाणुः- स्थिर, 29. भूतादिः- भूतों के आदिकारण, 30. निधिरव्ययः- प्रलयकाल में सब प्राणियों के लीन होने के लिये अविनाशी स्थानरूप, 31. सम्भवः- अपनी इच्छा से भली प्रकार प्रकट होने वाले, 32. भावनः- समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले, 33. भर्ता- सबका भरण करने वाले, 34. प्रभवः- उत्कृष्ट (दिव्य) जन्म वाले, 35. प्रभुः- सबके स्वामी, 36. ईश्वरः- उपाधिरहित ऐश्वर्य वाले। 37. स्वयम्भूः- स्वयं उत्पन्न होने वाले, 38. शम्भुः- भक्तों के लिये सुख उत्पन्न करने वाले, 39. आदित्यः- द्वादश आदित्यों में विष्णुनामक आदित्य, 40. पुष्कराक्षः- कमल के समान नेत्र वाले, 41. महास्वनः- वेदरूप अत्यन्त महान् घोषवाले, 42. अनादिनिधनः- जन्म-मृत्यु से रहित, 43. धाता- विश्व को धारण करने वाले, 44. विधाता- कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, 45. धातुरूत्तमः- कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने वाले एवं सर्वश्रेष्ठ। 46. अप्रमेयः- प्रमाणादि से जानने में न आ सकने वाले, 47. हृषीकेशः- इन्द्रियों के स्वामी, 48. पद्मनाभः- जगत के कारणरूप कमल को अपनी नाभि में स्थान देने वाले, 49. अमरप्रभुः- देवताओं के स्वामी, 50. विश्वकर्मा- सारे जगत की रचना करने वाले, 51. मनुः- प्रजापति मनुरूप, 52. त्वष्टा- संहार के समय सम्पूर्ण प्राणियों को क्षीण करने वाले, 53. स्थविष्ठः- अत्यन्त स्थूल, 54. स्थविरो ध्रुवः- अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर। 55. अग्राह्यः- मन से भी ग्रहण न किये जा सकने वाले, 56. शाश्वतः- सब काल में स्थित रहने वाले, 57. कृष्णः- सबके चित्त को बलात अपनी ओर आकर्षित करने वाले परमानन्दस्वरूप, 58. लोहिताक्षः- लाल नेत्रों वाले, 59. प्रतर्दनः- प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करने वाले, 60. प्रभूतः- ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से सम्पन्न, 62. त्रिककुब्धाम- ऊपर-नीचे और मध्यभेदवाली तीनों दिशाओं के आश्रयरूप, 62. पवित्रम्-सबको पवित्र करने वाले, 63. मंगलं परम-परम मंगलस्वरूप। 64. ईशानः- सर्वभूतों के नियन्ता, 65. प्राणदः- सबके प्राणदाता, 66. प्राणः- प्राणस्वरूप, 67. ज्येष्ठः-सबके कारण होने से सबसे बडे़, 68. श्रेष्ठः- सबमें उत्कृष्ट होने से परम श्रेष्ठ, 69. प्रजापतिः- ईश्वररूप से सारी प्रजाओं के स्वामी, 70. हिरण्यगर्भः- ब्रह्माण्डरूप हिरण्यमय अण्ड के भीतर ब्रह्मारूप से व्याप्त होने वाले, 71. भूगर्भः- पृथ्वी को गर्भ में रखने वाले, 72. माधवः- लक्ष्मी के पति, 73. मधुसूदनः- मधुनामक दैत्य को मारने वाले।[2] 74. ईश्वरः- सर्वशक्तिमान ईश्वर, 75. विक्रमी- शूरवीरता से युक्त, 76. धन्वी- शार्गंधनुष रखने वाले, 77. मेधावी- अतिशय बुद्धिमान्, 78. विक्रमः- गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, 79. क्रमः- क्रम विस्तार के कारण, 80. अनुत्तमः- सर्वोत्कृष्ट, 81. दुराधर्षः- किसी से भी तिरस्कृत न हो सकने वाले, 82. कृतज्ञः- अपने निमित्त से थोड़ा-सा भी त्याग किये जाने पर उसे बहुत मानने वाले यानि पत्र-पुष्पादित थोड़ी सी वस्तु समर्पण करने वालों को भी मोक्ष दे देने वाले, 83. कृतिः- पुरुष-प्रयत्न के आधाररूप, 84. आत्मवान्- अपनी ही महिमा में स्थित। 85. सुरेशः- देवताओं के स्वामी, 86. शरणम-दीन-दुखियों के परम आश्रय, 87. शर्म-परमानन्दस्वरूप, 88. विश्वरेताः- विश्व के कारण, 89. प्रजाभवः- सारी प्रजा को उत्पन्न करने वाले, 90. अहः- प्रकाशरूप, 91. संवत्सरः- कालरूप से स्थित, 92. व्यालः- शेषनागस्वरूप, 93. प्रत्ययः- उत्तम बुद्धि से जानने में आने वाले, 94. सर्वदर्शनः- सबके दृष्टा। 95. अजः- जन्मरहित, 96. सर्वेश्वरः- समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, 97. सिद्धः- नित्यसिद्ध, 98. सिद्धिः- सबके फलस्वरूप, 99. सर्वादिः- सब भूतों के आदि कारण, 100. अच्युतः- अपनी स्वरूप स्थिति से कभी त्रिकाल में भी च्युत न होने वाले, 101. वृषाकपिः- धर्म और वराहरूप, 102. अमेयात्मा- अप्रमेयस्वरूप, 103. सर्वयोगविनिःसृतः- नाना प्रकार के शास्त्रोक्त साधनों से जानने में आने वाले। 104. वसुः- सब भूतों के वासस्थान, 105. वसुमनाः- उदार मनवाले, 106. सत्यः- सत्यस्वरूप, 107. समात्मा-सम्पूर्ण प्राणियों में एक आत्मारूप से विराजने वाले, 108. असम्मितः- समस्त पदार्थों से मापे न जा सकने वाले, 109. समः- सब समय समस्त विकाकरों से रहित, 110. अमोघः- भक्तों के द्वारा पूजन, स्वतन अथवा स्मरण किये जाने पर उन्हें वृथा न करके पूर्णरूप से उनका फल प्रदान करने वाले, 111. पुण्डरीकाक्षः- कमल के समान नेत्रों वाले, 112. वृषकर्मा- धर्ममय कर्म करने वाले, 113. वृषाकृतिः- धर्म की स्थापना करने के लिये विग्रह धारण करने वाले। 114. रुद्रः- दुख के कारण को दूर भगा देने वाले, 115. बहुशिराः- बहुत से सिरों वाले, 116. बभ्रुः- लोकों का भरण करने वाले, 117. विश्वयोनिः- विश्व को उत्पन्न करने वाले, 118. शुचिश्रवाः- पवित्र कीर्तिवाले, 119. अमृतः- कभी न मरने वाले, 120. शाश्वतस्थाणुः- नित्य सदा एकरस रहने वाले एवं स्थिर, 121. वरारोहः- आरूढ़ होने के लिये परम उत्तम अपुनरावृत्तिस्थानरूप, 122. महातपाः- प्रताप (प्रभाव) रूप महान् तपवाले। 123. सर्वगः- कारणरूप से सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, 124. सर्वविद्भानुः- सब कुछ जानने वाले प्रकाशरूप, 125. विष्वक्सेनः- युद्ध के लिये की हुई तैयारी मात्र से ही दैत्यसेना को तितर-बितर कर डालने वाले, 126. जनार्दनः- भक्तों के द्वारा अभ्युदयनिःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थ की याचना किये जाने वाले, 127. वेदः- वेदरूप, 128. वेदवित -वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत् जानने वाले, 129. अव्यंगः- ज्ञानादि से परिपूर्ण अर्थात् किसी प्रकार अधूरे न रहने वाले सर्वांगपूर्ण, 130. वेदांगः- वेदरूप अंगों वाले, 131. वेदवित्- वेदों को विचारने वाले, 132. कविः- सर्वज्ञ। 133. लोकाध्यक्षः- समस्त लोकों के अधिपति, 134. सुराध्यक्षः- देवताओं के अध्यक्ष, 135. धर्माध्यक्षः- अनुरूप फल देने के लिये धर्म ओर अधर्म का निर्णय करने वाले, 136. कृताकृतः- कायर्करूप से कृत और कारणरूप से अकृत, 137. चतुरात्मा-ब्रह्मा, विष्णु, महेश और निराकार ब्रह्म- इन चार स्वरूपों वाले, 138. चतुव्र्यूहः- उत्पत्ति, स्थिति, नाश और रक्षारूप चार व्यूहवाले, 139. चतुर्दंष्ट्रः- चार दाढ़ों वाले नरसिंहरूप, 140. चतुर्भुजः- चार भुजाओं वाले, वैकुण्ठवासी भगवान विष्णु।[3] 141. भ्राजिष्णुः- एकरस प्रकाशस्वस्प, 142. भोजनम्- ज्ञानियों द्वारा भोगने योग्य अमृतस्वरूप, 143. भोक्ता- पुरुषरूप से भोक्ता, 144. सहिष्णुः- सहनशील, 145. जगदादिजः- जगत् के आदि में हिरण्यगर्भ रूप से स्वयं उत्पन्न होने वाले, 146. अनघः- पापरहित, 147. विजयः- ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि गुणों में सबसे बढ़कर, 148. जेता-स्वभाव से ही समस्त भूतों को जीतने वाले, 149. विश्वयोनिः- सबके कारणरूप, 150. पुनर्वसुः- पुनः-पुनः अवतार-शरीरों में निवास करने वाले। 151. उपेन्द्रः- इन्द्र के छोटे भाई, 152. वामनः- वामनरूप से अवतार लेने वाले, 153. प्रांसुः- तीनों लोकों को लाँघने के लिये त्रिविक्रमरूप से ऊँचे होने वाले, 154. अमोघः- अव्यर्थ चेष्टा वाले, 155. शुचिः- स्मरण, स्तुति और पूजन करने वालों को पवित्र कर देने वाले, 156. ऊर्जितः- अत्यन्त बलशाली, 147. अतीन्द्रः- स्वयंसिद्ध ज्ञान-ऐश्वर्यादि के कारण इन्द्र से भी बढ़े-चढ़े हुए, 158. संग्रहः- प्रलय के समय सबको समेट लेने वाले, 159. सर्गः- सृष्टि के कारणरूप, 160. धृतात्मा- जन्मादि से रहित रहकर स्वेचछा से स्वरूप धारण करने वाले, 161. नियमः- प्रजा को अपने-अपने अधिकारों में नियमित करने वाले, 162. यमः- अन्तःकरण में स्थित होकर नियमन करने वाले।। 163. वेद्यः- कल्याण की इच्छा वालों के द्वारा जानने योग्य, 164. वैद्यः- सब विद्याओं के जानने वाले, 165. सदायोगी- सदा योग में स्थित रहने वाले, 166. वीरहा- धर्म की रक्षा के लिये असुर योद्धाओं को मार डालने वाले, 167. माधवः- विद्या के स्वामी, 168. मधुः- अमृत की तरह सबको प्रसन्न करने वाले, 169. अतीन्द्रियः- इन्द्रियों से सर्वथा अतीत, 170. महामायः- मायावियों पर भी माया डालने वाले, महान् मायावी, 171. महोत्साहः- जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये तत्पर रहने वाले परम उत्साही, 172. महाबलः- महान बलशाली। 173. महाबुद्धिः- महान् बुद्धिमान, 174. महावीर्यः- महान् पराक्रमी, 175. महाशक्तिः- महान् सामर्थ्यवान्, 176. महाद्युतिः- महान् कान्तिमान्, 177. अनिर्देश्यवपुः- वर्णन करने में न आने योग्य स्वरूप, 178. श्रीमान्- ऐश्वर्यवान, 179. अमेयात्मा- जिसका अनुमान न किया जा सके ऐसे आत्मावाले, 180. महाद्रिधृक्- अमृतमन्थन और गोरक्षण के समय मन्दराचल और गोवर्धन नामक महान् पर्वतों को धारण करने वाले। 181. महेष्वासः- महान् धनुषवाले, 182. महीभर्ता- पृथ्वी को धारण करने वाले, 183. श्रीनिवासः- अपने वक्षःस्थल में श्री को निवास देने वाले, 184. सतां गतिः- सत्पुरुषों के परम आश्रय, 185. अनिरुद्धः- किसी के भी द्वारा न रुकने वाले, 186. सुरानन्दः- देवताओं को आनन्दित करने वाले, 187. गोविन्दः- वेदवाणी के द्वारा अपने को प्राप्त करा देने वाले, 188. गोविदां पतिः-वेदवाणी को जानने वालों के स्वामी। 189. मरीचिः- तेजस्वियों के भी परम तेजरूप, 190. दमनः- प्रमाद करने वाली प्रजा को यम आदि के रूप से दमन करने वाले, 191. हंसः- पितामह ब्रह्मा को वेद का ज्ञान कराने के लिये हंसरूप धारण करने वाले, 192. सुपर्णः- सुन्दर पंखवाले गरुड़स्वरूप, 193. भुजगोत्तमः-सर्पों में श्रेष्ठ शेषनागरूप, 194. हिरण्यनाभाः- सुवर्ण के समान रमणीय नाभिवाले, 195. सुतपाः- बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप से सुन्दर तप करने वाले, 196. पद्मनाभः- कमल के समान सुन्दर नाभिवाले, 197. प्रजापतिः- सम्पूर्ण प्रजाओं के पालनकर्ता।[4] 198. अमृत्युः- मृत्यु से रहित, 199. सर्वदृक्- सब कुछ देखने वाले, 200. सिंहः- दुष्टों का विनाश करने वाले, 201. संधाता- प्राणियों को उनके कर्मों के फलों के संयुक्त करने वाले, 202. सन्धिमान्- सम्पूर्ण यज्ञ और तपों के फलों को भोगने वाले, 203. स्थिरः- सदा एक रूप, 204. अजः- दुर्गुणों को दूर हटा देने वाले, 205. दुर्मर्षणः-किसी से भी सहन नहीं किये जा सकने वाले, 206. शास्ता- सब पर शासन करने वाले, 207. विश्रुतात्मा- वेदशास्त्रों में प्रसिद्ध स्वरूपवाले, 208. सुरारिहा- देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले। 209. गुरुः- सब विद्याओं का उपदेश करने वाले, 210. गुरुतमः- ब्रह्मा आदि को भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले, 211. धाम- सम्पूर्ण जगत के आश्रय, 212. सत्यः- सत्यस्वरूप, 213. सत्यपराक्रमः- अमोघ पराक्रम वाले, 214. निमिषः- योगनिद्रा से मुँदे हुए नेत्रों वाले, 215. अनिमिषः- मत्स्यरूप से अवतार लेने वाले, 216. स्त्रग्वी-वैजयन्तीमाला धारण करने वाले, 217. वाचस्पतिरूदारधीः- सारे पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाली बुद्धि से युक्त समस्त विद्याओं के पति। 218. अग्रणीः- मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले, 219. ग्रामणीः- भूतसमुदाय के नेता, 220. श्रीमान्- सबसे बढ़ी-चढ़ी कान्तिवाले, 221. न्यायः- प्रमाणों के आश्रयभूत तर्क की मूर्ति, 222. नेता- जगत् रूप यन्त्र को चलाने वाले, 223. समीरणः- श्वासरूप से प्राणियों से चेष्ठा कराने वाले, 224. सहस्रमूर्धा-हजार सिरवाले, 225. विश्वात्मा- विश्व के आत्मा, 226. सहस्राक्षः- हजार आँखों वाले, 227. सहस्रपात्- हजार पैरों वाले। 228. आवर्तनः- संसारचक्र को चलाने के स्वभाव वाले, 229. निवृत्तात्मा- संसारबन्धन से नित्य मुक्तस्वरूप, 230. संवृतः- अपनी योगमाया से ढके हुए, 231. सम्प्रदमर्दनः- अपने रुद्र आदि स्वरूप से सबका मर्दन करने वाले, 232. अहःसंवर्तकः- सूर्यरूप से सम्यक्तया दिन के प्रवर्तक, 233. वन्हिः- हवि को वहन करने वाले अग्निदेव, 234. अनिलः- प्राणरूप से वायुस्वरूप, 235. धरणीधरः- वराह और शेषरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले। 236. सुप्रसादः- शिशुपालादि अपराधियों पर भी कृपा करने वाले, 237. प्रसन्नात्मा- प्रसन्न स्वभाव वाले, 238. विश्वधृक्- जगत को धारण करने वाले, 239. विश्वभुक्- विश्व का पालन करने वाले, 240. विभुः- सर्वव्यापी, 241. सत्कर्ता- भक्तों का सत्कार करने वाले, 242. सत्कृतः- पूजितों से भी पूजित, 243. साधुः- भक्तों के कार्य साधने वाले, 244. जन्हुः- संहार के समय जीवों का लय करने वाले, 245. नारायणः- जल में शयन करने वाले, 246. नरः- भक्तों को परमधाम में ले जाने वाले। 247. असंख्येयः- जिसके नाम और गुणों की संख्या न की जा सके, 248. अप्रमेयात्मा-किसी से भी मापे न जा सकने वाले, 249. विशिष्टः- सबसे उत्कृष्ट, 250. शिष्टकृत- श्रेष्ठ बनाने वाले, 251. शुचिः- परम शुद्ध, 252. सिद्धार्थः- इच्छित अर्थ को सर्वथा सिद्ध कर चुकने वाले, 253. सिद्धसंकल्पः- सत्य-संकल्पवाले, 254. सिद्धिदः- कर्म करने वालों को उनके अधिकार के अनुसार फल देने वाले, 255. सिद्धिसाधनः- सिद्धिरूप क्रिया के साधक। 256. वृषाही- द्वादशाहादि यज्ञों को अपने में स्थित रखने वाले, 257. वृषभः- भक्तों के लिये इच्छित वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 258. विष्णुः- शुद्ध सत्त्वमूर्ति, 259. वृषपर्वा- परमधाम में आरूढ़ होने की इच्छा वालों के लिये धर्मरूप सीढि़यों वाले, 260. वृषोदरः- अपने उदर में धर्म को धारण करने वाले, 261. वर्धनः- भक्तों को बढ़ाने वाले, 262. वर्धमानः- संसाररूप से बढ़ने वाले, 263. विविक्तः- संसार से पृथक् रहने वाले, 264. श्रुतिसागरः- वेदरूप जल के समुद्र।[5]

265. सुभुजः- जगत की रक्षा करने वाली अति सुन्दर भुजाओं वाले, 266. दुर्धरः- ध्यान द्वारा कठिनता से धारण किये जा सकने वाले, 267. वाग्मी- वेदमयी वाणी को उत्पन्न करने वाले, 268. महेन्द्रः- ईश्वरों के भी ईश्वर, 269. वसुदः- धन देने वाले, 270. वसुः- धनरूप, 271. नैकरूपः- अनेक रूपधारी, 272. बृहदू्रपः- विश्वरूपधारी, 273. शिपिविष्टः- सूर्यकिरणों में स्थित रहने वाले, 274. प्रकाशनः- सबको प्रकाशित करने वाले। 275. ओजस्तेजोद्युतिधरः- प्राण और बल, शूरवीरता आदि गुण तथा ज्ञान की दीप्ति को धारण करने वाले, 276. प्रकाशात्मा- प्रकाशरूप, 277. प्रतापनः- सूर्य आदि अपनी विभूतियों से विश्व को तप्त करने वाले, 278. ऋद्धः- धर्म, ज्ञान और वैराग्यादि से सम्पन्न, 279. स्पष्टाक्षरः- ओंकाररूप स्पष्ट अक्षरवाले, 280. मन्त्रः- ऋक्, साम और यजु के मन्त्रस्वरूप, 281. चन्द्रांशुः- संसारताप से संतप्तचित्त पुरुषों को चन्द्रमा की किरणों के समान आहलादित करने वाले, 282. भास्करद्युतिः- सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप। 283. अमृतांशूद्भवः- समुद्रमन्थन करते समय चन्द्रमा को उत्पन्न करने वाले, 284. भानुः- भासने वाले, 285. शशबिन्दुः- खरगोश के समान चिह्नवाले चन्द्रस्वरूप, 286. सुरेश्वरः- देवताओं के ईश्वर, 287. औषधम्- संसार रोग को मिटाने के लिये औषधरूप, 288. जगतः सेतुः- संसार-सागर को पार कराने के लिये सेतुरूप, 289. सत्यधर्मपराक्रमः- सत्यस्वरूप धर्म और पराक्रमवाले। 290. भूतभव्यभवन्नाथः- भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी, 291. पवनः- वायुरूप, 292. पावनः- जगत् को पवित्र करने वाले, 293. अनलः- अग्निस्वरूप, 294. कामहा- अपने भक्तजनों के सकामभाव को नष्ट करने वाले, 295. कामकृत- भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 296. कान्तः- कमनीयरूप, 297. कामः- (क) ब्रह्मा, (अ) विष्णु, (म) महादेव- इस प्रकार त्रिदेवरूप, 298. कामप्रदः- भक्तों को उनकी कामना की हुई वस्तुएँ प्रदान करने वाले, 299. प्रभुः- सर्वसामर्थ्यवान। 300. युगादिकृत्- युगादि का आरम्भ करने वाले, 301. युगावर्तः- चारों युगों को चक्र के समान घुमाने वाले, 302. नैकमायः- अनेक मायाओं को धारण करने वाले, 303. महाशनः- कल्प के अन्त में सबको ग्रसन करने वाले, 304. अदृश्यः- समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय, 305. अव्यक्तरूपः- निराकार स्वरूपवाले, 306. सहस्रजित-युद्ध में हजारों देवशत्रुओं को जीतने वाले, 307. अनन्तजित्-युद्ध और क्रीड़ा आदि में सर्वत्र समस्त भूतों को जीतने वाले। 308. इष्टः- परमानन्दरूप होने से सर्वप्रिय, 309. अविशिष्टः- सम्पूर्ण विशेषणों से रहित, 310. शिष्टेष्टः- शिष्ट पुरुषों के इष्टदेव, 311. शिखण्डी- मयूरपिच्छ को अपना शिरोभूषण बना लेने वाले, 312. नहुषः- भूतों को माया से बाँधने वाले, 313. वृषः- कामनाओं को पूर्ण करने वाले धर्मस्वरूप, 314. क्रोधहा- क्रोध का नाश करने वाले, 315. क्रोधकृत्कर्ता- क्रोध करने वाले दैत्यादि के विनाशक, 316. विश्वबाहुः- सब ओर बाहुओं वाले, 317. महीधरः- पृथ्वी को धारण करने वाले। 318. अच्युतः- छः भावविकारों से रहित, 319. प्रथितः- जगत की उत्पत्ति आदि कर्मों के कारण विख्यात, 320. प्राणः- हिरण्यगर्भरूप से प्रजा को जीवित रखने वाले, 321. प्राणदः- सबका भरण-पोषण करने वाले, 322. वासवानुजः- वामनावतार में इन्द्र के अनुजरूप में उत्पन्न होने वाले, 323. अपां निधिः- जल को एकत्र रखने वाले, समुद्ररूप, 324. अधिष्ठानम- उपादान कारणरूप से सब भूतों के आश्रय, 325. अप्रमत्तः-कभी प्रसाद नकरने वाले, 326. प्रतिष्ठितः- अपनी महिमा में स्थित।[6]

327. स्कन्दः- स्वामिकार्तिकेयरूप, 328. स्कन्दधरः- धर्मपथ को धारण करने वाले, 329. धुर्यः- समस्त भूतों के जन्मादिरूप धुर को धारण करने वाले, 330. वरदः- इच्छित वर देने वाले, 331. वायुवाहनः- सारे वायुभेदों को चलाने वाले, 332. वासुदेवः- सब भूतों में सर्वात्मारूप से बसने वाले, 333. बृहद्भानुः- महान् किरणों से युक्त एवं सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्यरूप, 334. आदिदेवः- सबके आदिकारण देव, 335. पुरंदरः-असुरों के नगरों का ध्वंस करने वाले। 336. अशोकः- सब प्रकार के शोक से रहित, 337. तारणः- संसारसागर से तारने वाले, 338. तारः- जन्म-जरा-मृत्युरूप भय से तारने वाले, 339. शूरः- पराक्रमी, 340. शौरिः- शूरवीर श्रीवसुदेवजी के पुत्र, 341. जनेश्वरः- समस्त जीवों के स्वामी, 342. अनुकूलः- आत्मारूप होने से सबके अनुकूल, 343. शतावर्तः- धर्मरक्षा के लिये सैकड़ों अवतार लेने वाले, 344. पद्मी- अपने हाथ में कमल धारण करने वाले, 345. पद्मनिभेक्षणः- कमल के समान कोमल दृष्टिवाले। 346. पद्मनाथः- हृदय-कमल के मध्य निवास करने वाले, 347. अरविन्दाक्षः- कमल के समान आँखों वाले, 348. पद्मगर्भः- हृदयकमल में ध्यान करने योग्य, 349. शरीरभृत्- अन्नरूप से सबके शरीरों का भरण करने वाले, 350. महर्द्धिः-महान् विभूतिवाले, 351. ऋद्धः- सबमें बढे़-चढ़े, 352. वृद्धात्मा- पुरातन स्वरूप, 353. महाक्षः- विशाल नेत्रों वाले, 354. गरूडध्वजः- गरूड के चिह्न से युक्त ध्वजावाले। 355. अतुलः- तुलनारहित, 356. शरभः- शरीरों को प्रत्यगात्मरूप से प्रकाशित करने वाले, 357. भीमः- जिससे पापियों को भय हो ऐसे भयानक, 358. समयज्ञः- समभावरूप यज्ञ से सम्पन्न, 359. हविर्हरिः- यज्ञों में हविर्भाग को और अपना स्मरण करने वालों के पापों को हरण करने वाले, 360. सर्वलक्षणलक्षण्यः- समस्त लक्षणों से लक्षित होने वाले, 361. लक्ष्मीवान्- अपने वक्षःस्थल में लक्ष्मी जी को सदा बसाने वाले, 362 .समितिन्जयः- संग्रामविजयी। 363. विक्षरः- नाशरहित, 364. रोहितः- मत्स्यविशेष का स्वरूप धारण करके अवतार लेने वाले, 365. मार्गः- परमानन्दप्राप्ति के साधन-स्वरूप, 366. हेतुः- संसार के निमित्त और उपादानकारण, 367. दामोदरः- यशोदाजी द्वारा रस्सी से बँधे हुए उदरवाले, 368. सहः- भक्तजनों के अपराधों को सहन करने वाले, 369. महीधरः- पृथ्वी को धारण करने वाले, 370. महाभागः- महान् भाग्यशाली, 371. वेगवान्-तीव्रगति वाले, 372. अमिताशनः- प्रलयकाल में सारे विश्व को भक्षण करने वाले। 373. उद्भवः- जगत की उत्पत्ति के उपादान कारण, 374. क्षोभणः- जगत् की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध करने वाले, 375. देवः- प्रकाशस्वरूप, 376. श्रीगर्भः- सम्पूर्ण ऐश्वर्य को अपने उदर में रखने वाले, 377. परमेश्वरः- सर्वश्रेष्ठ शासन करने वाले, 378. करणम- संसारकी उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन, 379. कारणम्-जगत् के उपादान और निमित्तकारण, 380. कर्ता- सबके रचयिता, 381. विकर्ता- विचित्र भुवनों की रचना करने वाले, 382. गहनः- अपने विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलादि के कारण पहचाने न जा सकने वाले, 383. गुहः- माया से अपने स्वरूप को ढक लेने वाले। 384. व्यवसायः-ज्ञानस्वरूप, 385. व्यवस्थानः- लोकपालादिकों को, समस्त जीवों को, चारों वर्णाश्रमों को एवं उनके धर्मों को व्यवस्थापूर्वक रचने वाले, 386. संस्थानः- प्रलय के सम्यक् स्थान, 387. स्थानदः- धु्रवादि भक्तों को स्थान देने वाले, 388. धु्रवः- अचल स्वरूप, 389. परर्द्धिः- श्रेष्ठ विभूतिवाले, 390. परमस्पष्टः- ज्ञानस्वरूप होने से परम स्पष्ट रूप, 391. तुष्टः- एकमात्र परमानन्दस्वरूप, 392. पुष्टः- एकमात्र सर्वत्र परिपूर्ण, 393. शुभेक्षणः- दर्शनमात्र से कल्याण करने वाले।[7] 394. रामः- योगीजनों के रमन करने के लिये नित्यानन्दस्वरूप, 395. विरामः- प्रलय के समय प्राणियों को अपने में विराम देने वाले, 396. विरजः- रजोगुण तथा तमोगुण से सर्वथा शून्य, 397. मार्गः- मुमुक्षुजनों के अमर होने के साधनस्वरूप, 398. नेयः-उत्तम ज्ञान से ग्रहण करने योग्य, 399. नयः- सबको नियम में रखने वाले, 400. अनयः- स्वतन्त्र, 401. वीरः- पराक्रमशाली, 402. शक्तिमतां श्रेष्ठः- शक्तिमानों में भी अतिशय शक्तिमान्, 403. धर्मः- धर्मस्वरूप, 404. धर्मविदुत्तमः- समस्त धर्मवेत्ताओं में उत्तम। 405. वैकुण्ठः- परमधामस्वरूप, 406. पुरुषः- विश्वरूप शरीर में शयन करने वाले, 407. प्राणः- प्राणवायुरूप से चेष्टा करने वाले, 408. प्राणदः- सर्ग के आदि में प्राण प्रदान करने वाले, 409. प्रणवः- ओंकारस्वरूप, 410. पृथुः- विराट रुप से विस्तृत होने वाले, 411. हिरण्यगर्भः- ब्रह्मारूप से प्रकट होने वाले, 412. शत्रुघ्नः- देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले, 413. व्याप्तः- कारणरूप से सब कार्यों में व्याप्त, 414. वायुः- पवनरूप, 415. अधोक्षजः- अपने स्वरूप से क्षीण न होने वाले। 416. ऋतुः- ऋतुस्वरूप, 417. सुदर्शनः- भक्तों को सुगमता से ही दर्शन दे देने वाले, 418. कालः- सबकी गणना करने वाले, 419. परमेष्ठी- अपने प्रकृष्ट महिमा में स्थित रहने के स्वभाववाले, 420. परिग्रहः- शरणार्थियों के द्वारा सब ओर से ग्रहण किये जाने वाले, 421. उग्रः- सूर्यादि के भी भय के कारण, 422. संवत्सरः- सम्पूर्ण भूतों के वासस्थान, 423. दक्षः- सब कार्यों को बड़ी कुशलता से करने वाले, 424. विश्रामः- विश्राम की इच्छा वाले मुमुक्षुओं को मोक्ष देने वाले, 425. विश्वदक्षिणः- बलि के यज्ञ में समस्त विश्व को दक्षिणारूप में प्राप्त करने वाले। 426. विस्तारः- समस्त लोकों के विस्तार के स्थान, 427. स्थावरस्थाणुः- स्वयं स्थितिशील रहकर पृथ्वी आदि, स्थितिशील पदार्थों को अपने में स्थित रखने वाले, 428. प्रमाणम-ज्ञानस्वरूप होने के कारण स्वयं प्रमाणरूप, 429. बीजमव्ययम्-संसार के अविनाशी कारण, 430. अर्थः- सुखस्वरूप होने के कारण सबके द्वारा प्रार्थनीय, 431. अनर्थः- पूर्णकाम होने के कारण प्रयोजनरहित, 432. महाकोशः- बड़े खजाने वाले, 433. महाभोगः-यथार्थ सुखरूप महान् भोगवाले, 434. महाधनः- अतिशय यथार्थ धनस्वरूप। 435. अनिर्विण्णः- उकताहटरूप विकार से रहित, 436. स्थविष्ठः- विराट्रूप से स्थित, 437. अभूः- अजन्मा, 438. धर्मयूपः- धर्म के स्तम्भरूप, 439. महामखः- महान यज्ञस्वरूप, 440. नक्षत्रनेमिः- समस्त नक्षत्रों के केन्द्रस्वरूप, 441. नक्षत्री-चन्द्ररूप, 442. क्षमः- समस्त कार्यों में समर्थ, 443. क्षामः- समस्त जगत् के निवासस्थान, 444. समीहनः- सृष्टि आदि के लिये भलीभाँति चेष्टा करने वाले। 445. यज्ञः- भगवान विष्णु, 446. इज्यः- पूजनीय, 447. महेज्यः- सबसे अधिक उपासनीय, 448. क्रतुः- स्तम्भयुक्त यज्ञस्वरूप, 449. सत्रम्- सत्पुरुषों की रक्षा करने वाले, 450. सतां गतिः- सत्पुरुषों की परम गति, 451. सर्वदर्शी- समस्त प्राणियों को और उनके कार्यों को देखने वाले, 452. विमुक्तात्मा-सांसारिक बन्धन से नित्यमुक्त आत्मस्वरूप, 453. सर्वज्ञः- सबको जानने वाले, 454. ज्ञानमुत्तमम्- सर्वोत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप। 455. सुव्रतः- प्रणतपालनादि श्रेष्ठ व्रतों वाले, 456. सुमुखः- सुन्दर और प्रसन्न मुखवाले, 457. सूक्ष्मः-अणु से भी अणु, 458. सुघोषः- सुन्दर और गम्भीर वाणी बोलने वाले, 459. सुखदः- अपने भक्तों को सब प्रकार से सुख देने वाले, 460. सुहृत्- प्राणिमात्र पर अहैतु की दवा करने वाले परम मित्र, 461. मनोहरः- अपने रूप लावण्य और मधुर भाषणादि से सबके मन को हरने वाले, 462. जितक्रोधः- क्रोध पर विजय करने वाले अर्थात् अपने साथ अत्यन्त अनुचित व्यवहार करने वाले पर भी क्रोध न करने वाले, 463. वीरबाहुः- अत्यन्त पराक्रमशील भुजाओं से युक्त, 464. विदारणः- अधर्मियों को नष्ट करने वाले।[8]

465. स्वापनः- प्रलयकाल में समस्त प्राणियों को अज्ञाननिद्रा में शयन कराने वाले, 466. स्ववशः- स्वतन्त्र, 467. व्यापी- आकाश की भाँति सर्वव्यापी, 468. नैकात्मा- प्रत्येक युग में लोकोद्धार के लिये अनेक रूप धारण करने वाले, 469. नैककर्मकृत- जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप तथा भिन्न-भिन्न अवतारों में मनोहर लीलारूप अनेक कर्म करने वाले, 470. वत्सरः- सबके निवास स्थान, 471. वत्सलः- भक्तों के परम स्नेही, 472. वत्सी- वृन्दावन में बछड़ों का पालन करने वाले, 473. रत्नगर्भः- रत्नों को अपने गर्भ में धारण करने वाले समुद्ररूप, 474. धनेश्वरः- सब प्रकार के धनों के स्वामी। 475. धर्मगुप- धर्म की रक्षा करने वाले, 476. धर्म-कृत्- धर्म की स्थापना करने के लिये स्वयं धर्म का आचरण करने वाले, 477. धर्मी- सम्पूर्ण धर्मों के आधार, 478. सत्- सत्यस्वरूप, 479. असत्-स्थूल जगत्स्वरूप, 480. क्षरम्- सर्वभूतमय, 481. अक्षरम्- अविनाशी, 482. अविज्ञाता- क्षेत्रज्ञ जीवात्मा को विज्ञाता कहते हैं, उनसे विलक्षण भगवान विष्णु, 483. सहस्रांशुः- हजारों किरणों वाले सूर्यस्वरूप, 484. विधाता- सबको अच्छी प्रकार धारण करने वाले, 485. कृतलक्षणः- श्रीवत्स आदि चिह्नों को धारण करने वाले। 486. गभस्तिनेमिः- किरणों के बीच में सूर्यरूपसे स्थित, 487. सत्त्वस्थः- अन्तर्यामीरूप से समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित रहने वाले, 488. सिंहः- भक्त प्रहलाद के लिये नृसिंहरूप धारण करने वाले, 489. भूतमहेश्वरः- सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वर, 490. आदिदेवः- सबके आदि कारण और दिव्यस्वरूप, 491. महादेवः- ज्ञानयोग और वेश्वर्य आदि महिमाओं से युक्त, 492. देवेशः- समस्त देवों के स्वामी, 493. देवभृद्गुरुः- देवों का विशेष रूप से भरण-पोषण करने वाले उनके परम गुरु। 494. उत्तरः- संसार-समुद्र से उद्धार करने वाले और सर्वश्रेष्ठ, 495. गोपतिः- गोपालरूप से गायों की रक्षा करने वाले, 496. गोप्ता- समस्त प्राणियों का पालन और रक्षा करने वाले, 497. ज्ञानगम्यः- ज्ञान के द्वारा जानने में आने वाले, 498. पुरातनः- सदा एकरस रहने वाले, सबके आदि पुराणपुरुष, 499. शरीरभूतभृत- शरीर के उत्पादक पन्चभूतों का प्राणरूप से पालन करने वाले, 500. भोक्ता- निरतिशय आनन्दपुंज को भोगने वाले, 501. कपीन्द्रः- बंदरों के स्वामी श्रीराम, 502. भूरिदक्षिणः- श्रीरामादि अवतारों में यज्ञ करते समय बहुत सी दक्षिणा प्रदान करने वाले। 503. सोमपः- यज्ञों में देवरूप से और यजमानरूप से सोमरस का पान करने वाले, 504. अमृतपः- समुद्रमन्थन से निकाला हुआ अमृत देवों को पिलाकर स्वयं पीने वाले, 505. सोमः- ओषधियेां का पोषण करने वाले चन्द्रमारूप, 506. पुरूजित्- बहुतों को विजय लाभ करने वाले, 507. पुरूसत्तमः- विश्वरूप और अत्यन्त श्रेष्ठ, 508. विनयः- दुष्टों को दण्ड देने वाले, 509. जयः- सब पर विजय प्राप्त करने वाले, 510. सत्यसंधः- सच्ची प्रतिज्ञा करने वाले, 511. दाशार्हः- दाशार्हकुल में प्रकट होने वाले, 512. सात्वतां पतिः- यादवों के और अपने भक्तों के स्वामी। 513. जीवः- क्षेत्रज्ञरूप से प्राणों को धारण करने वाले, 514. विनयितासाक्षी- अपने शरणापन्न भक्तों के विनय- भाव को तत्काल प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले, 515. मुकुन्दः- मुक्तिदाता, 516. अमितविक्रमः- वामनावतार में पृथ्वी नापते समय अत्यन्त विस्तृत पैर रखने वाले, 517. अम्भोनिधिः- जल के निधान समुद्रस्वरूप, 518. अनन्तात्मा- अनन्तमूर्ति, 519. महोदधिशयः- प्रलयकाल के महान् समुद्र में शयन करने वाले, 520. अन्तकः- प्राणियों का संहार करने वाल मृत्युस्वरूप।[9]

521. अजः- अकार भगवान विष्णु का वाचक है, उससे उत्पन्न होने वाले ब्रह्मास्वरूप, 522. महार्हः- पूजनीय, 523. स्वाभाव्यः- नित्य सिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न न होने वाले, 524. जितामित्रः- रावण-शिशुपालादि शत्रुओं को जीतने वाले, 525. प्रमोदनः- स्मरणमात्र से नित्य प्रमुदित करने वाले, 526. आनन्दः- आनन्दस्वरूप, 527. नन्दनः- सबको प्रसन्न करने वाले, 528. नन्दः- सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न, 529. सत्यधर्मा- धर्मज्ञानादि सब गुणों से युक्त, 530. त्रिविक्रमः- तीन डग में तीनों लोकों को नापने वाले। 531. महर्षिः कपिलाचार्यः- सांख्यशास्त्र के प्रणेता भगवान कपिलाचार्य, 532. कृतज्ञः- अपने भक्तों की सेवा को बहुत मानकर अपने को उनका ऋणी समझने वाले, 533. मेदिनीपतिः- पृथ्वी के स्वामी, 534. त्रिपदः- त्रिलोकीरूप तीन पैरों वाले विश्वरूप, 535. त्रिदशाध्यक्षः- देवताओं के स्वामी, 536. महाश्रृंगः- मत्स्यावतार में महान् सींग धारण करने वाले, 537. कृतान्तकृत्-स्मरण करने वालों के समस्त कर्मों का अन्त करने वाले। 538. महावराहः- हिरण्याक्ष का वध करने के लिये महावराहरूप धारण करने वाले, 539. गोविन्दः- नष्ट हुई पृथ्वी को पुनः प्राप्त कर लेने वाले, 540. सुषेणः- पार्षदों के समुदायरूप सुन्दर सेना से सुसज्जित, 541. कनकागंदी-सुवर्ण का बाजूबंद धारण करने वाले, 542. गुह्यः- हृदयाकाश में छिपे रहने वाले, 543. गभीरः- अतिशय गम्भीर स्वभाववाले, 544. गहनः- जिनके स्वरूप में प्रविष्ट होना अत्यन्त कठिन हो-ऐसे, 545. गुप्तः- वाणी और मन से जानने में न आने वाले, 546. चक्रगदाधरः- भक्तों की रक्षा करने के लिये चक्र और गदा आदि दिव्य आयुधों को धारण करने वाले। 547. वेधाः- सब कुछ विधान करने वाले, 548. स्वांगः- कार्य करने में स्वयं ही सहकारी, 549. अजितः- किसी के द्वारा न जीते जाने वाले, 550. कृष्णः- श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण, 551. दृढः- अपने स्वरूप और सामर्थ्य से कभी भी च्युत न होने वाले, 552. संकर्षणोऽच्युतः- प्रलयकाल में एक साथ सबका संहार करने वाले और जिनका कभी किसी भी कारण से पतन न हो सके- ऐसे अविनाशी, 553. वरुणः- जल के स्वामी वरुणदेवता, 554. वारूणः- वरुण के पुत्र वशिष्ठस्वरूप, 555. वृक्षः- अश्वत्थवृक्षरूप, 556. पुष्कराक्षः- कमल के समान नेत्र वाले, 557. महामनाः- संकल्पमात्र से उत्पत्ति, पालन और संहार आदि समस्त लीला करने की शक्तिवाले। 558. भगवान- उत्पत्ति और प्रलय, आना और जाना तथा विद्या और अविद्या को जानने वाले एवं सर्वैश्वर्यादि छहों भगों से युक्त, 559. भगहा- अपने भक्तों का प्रेम बढ़ाने के लिये उनके ऐश्वर्य का हरण करने वाले, 560. आनन्दी-परम सुखस्वरूप, 561. वनमाली-वैजयन्ती वनमाला धारण करने वाले, 562. हलायुधः- हलरूप शस्त्र को धारण करने वाले बलभद्रस्वरूप, 563. आदित्यः- अदितिपुत्र वामन भगवान, 564. ज्योतिरादित्यः- सूर्यमण्डल में विराजमान ज्योतिःस्वरूप, 565. सहिष्णुः- समस्त द्वन्द्वों को सहन करने में समर्थ, 566. गतिसत्तमः- सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप। 567. सुधन्वा- अतिशय सुन्दर शार्गंधनुष धारण करने वाले, 568. खण्डपरशुः- शत्रुओं का खण्डन करने वाले फरसे को धारण करने वाले परशुरामस्वरूप, 569. दारुणः- सन्मार्गविरोधियों के लिये महान् भयंकर, 570. द्रविणप्रदः- अर्थार्थी भक्तों को धन-सम्पत्ति प्रदान करने वाले, 571. दिविस्पृक्- स्वर्गलोक तक व्याप्त, 572. सर्वदृग व्यासः- सबके दृष्टा एवं वेद का विभाग करने वाले श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासस्वरूप, 573. वाचस्पतिरयोनिजः- विद्या के स्वामी तथा बिना योनि के स्वयं ही प्रकट होने वाले।[10]

574. त्रिसामा- देवव्रत आदि तीन साम श्रुतियों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है- ऐसे परमेश्वर, 575. सामगः- सामवेद का गान करने वाले, 576. साम- सामवेदस्वरूप, 577. निर्वाणम्- परमशान्ति के निधान परमानन्दस्वरूप, 578. भेषजम्- संसार-रोग की ओषधि, 579. भिषक्- संसार रोग का नाश करने के लिये गीतारूप उपदेशामृत का पान कराने वाले परम वैद्य, 580. संन्यासकृत- मोक्ष के लिये संन्यासाश्रम और संन्यास योग का निर्माण करने वाले, 581. शमः- उपशमता का उपदेश देने वाले, 582. शान्तः- परम शान्तस्वरूप, 583. निष्ठा- सबकी स्थिति के आधार अधिष्ठानस्वरूप, 584. शान्तिः- परम शान्तिस्वरूप, 585. परायणम- मुमुक्षु पुरुषों के परम प्राप्य-स्थान। 586. शुभांगः- अति मनोहर परम सुन्दर अंगों वाले, 587. शान्तिदः- परम शान्ति देने वाले, 588. स्रष्टा- सर्ग के आदि में सबकी रचना करने वाले, 589. कुमुदः- पृथ्वी पर प्रसन्नतापूर्वक लीला करने वाले, 590. कुवलेशयः- जल में शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, 591. गोहितः- गोपालरूप से गायों का और अवतार धारण करके भार उतारकर पृथ्वी का हित करने वाले, 592. गोपतिः- पृथ्वी के और गायों के स्वामी, 593. गोप्ता- अवतार धारण करके सबके सम्मुख प्रकट होते समय अपनी माया से अपने स्वरूप को आच्छादित करने वाले, 594. वृषभाक्षः- समस्त कामनाओं की वर्षा कने वाली कृपादृष्टि से युक्त, 595. वृषप्रियः- धर्म से प्यार करने वाले। 596. अनिवर्ती- रणभूमि में और धर्मपालन में पीछे न हटने वाले, 597. निवृत्तात्मा- स्वभाव से ही विषय-वासनारहित नित्य शुद्ध मनवाले, 598. संक्षेप्ता- विस्तृत जगत् को संहारकाल में संक्षिप्त यानि सूक्ष्म करने वाले, 599. क्षेमकृत- शरणागत की रक्षा करने वाले, 600. शिवः- स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले कल्याणस्वरूप, 601. श्रीवत्सवक्षाः- श्रीवत्स नामक चिह्न को वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 602. श्रीवासः- श्रीलक्ष्मी जी के वासस्थान, 603. श्रीपतिः- परमशक्तिरूपा श्रीलक्ष्मी जी के स्वामी, 604. श्रीमतां वरः- सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्य से युक्त ब्रह्मादि समस्त लोकपालों से श्रेष्ठ। 605. श्रीदः- भक्तों को श्री प्रदान करने वाले, 606. श्रीशः- लक्ष्मी के नाथ, 607. श्रीनिवासः- श्रीलक्ष्मी जी के अन्तःकरण में नित्य निवास करने वाले, 608. श्रीनिधिः- समस्त श्रियों के आधार, 609. श्रीविभावनः- सब मनुष्यों के लिये उनके कर्मानुसार नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, 610. श्रीधरः- जगज्जननी श्रीको वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 611. श्रीकरः- स्मरण, स्तवन और अर्चन आदि करने वाले भक्तों के लिये श्री का विस्तार करने वाले, 612. श्रेयः- कल्याणस्वरूप 613. श्रीमान-सब प्रकार की श्रियों से युक्त, 614. लोकत्रयाश्रयः- तीनों लोकों के आधार। 615. स्वक्षः- मनोहर, कृपाकटाक्ष से युक्त परम सुन्दर आँखों वाले, 616. स्वंगः- अतिशय कोमल, परम सुन्दर, मनोहर अंगों वाले, 617. शतानन्दः- लीलाभेद से सैकड़ों विभागों में विभक्त आनन्दस्वरूप, 618. नन्दिः- परमानन्दस्वरूप, 619. ज्योतिर्गणेश्वरः- नक्षत्रसमुदायों के ईश्वर, 620. विजितात्मा- जिते हुए मनवाले, 621. अविधेयात्मा- जिनके असली स्वरूप का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके- ऐसे अनिर्वचनीयस्वरूप, 622. सत्कीर्तिः- सच्ची कीर्तिवाले, 623. छिन्नसंशयः- सब प्रकार के संशयों से रहित। 624. उदीर्णः- सब प्राणियों से श्रेष्ठ, 625. सर्व- तश्चक्षुः- समस्त वस्तुओं को सब दिशाओं में सदा-सर्वदा देखने की शक्तिवाले, 626. अनीशः- जिनका दूसरा कोई शासक न हो- ऐसे स्वतन्त्र, 627. शाश्वतस्थिरः- सदा एकरस स्थिर रहने वाले, निर्विकार, 628. भूशयः- लंकागमन के लिये मार्ग की याचना करते समय समुद्रतट की भूमि पर शयन करने वाले, 629. भूषणः- स्वेच्छा से नानाअवतार लेकर अपने चरण-चिह्नों से भूमि की शोभा बढ़ाने वाले, 630. भूतिः- समस्त विभूतियों के आधारस्वरूप, 631. विशोकः- सब प्रकार से शोकरहित, 632. शोकनाशनः- स्मृतिमात्र से भक्तों के शोक का समूल नाश करने वाले।[11]

633. अर्चिष्मान्- चन्द्र-सूर्य आदि समस्त ज्योतियों को देदीप्यमान करने वाली अतिशय प्रकाशमय अनन्त किरणों से युक्त, 634. अर्चितः- ब्रह्मादि समस्त लोकों से पूजे जाने वाले, 635. कुम्भः- घट की भाँति सबके निवासस्थान, 636. विशुद्धात्मा- परम शुद्ध निर्मल आत्मस्वरूप, 637. विशोधनः- स्मरणमात्र से समस्त पापों का नाश करके भक्तों के अन्तःकरण को परम शुद्ध कर देने वाले, 638. अनिरुद्धः- जिनको कोई बाँधकर नहीं रख सके- ऐसे चतुर्व्यूह में अनिरुद्धस्वरूप्, 639. अप्रतिरथः- प्रतिपक्ष से रहित, 640. प्रद्युम्नः- परम श्रेष्ठ अपार धन से युक्त चतुर्व्यूह में प्रद्युम्नस्वरूप, 641. अमितविक्रमः- अपार पराक्रमी। 642. कालनेमिनिहा- कालनेमि नामक असुर को मारने वाले, 643. वीरः- परम शूरवीर, 644. शौरिः- शूरकुल में उत्पन्न होने वाले श्रीकृष्णस्वरूप, 645. शूरजनेश्वरः- अतिशय शूरवीरता के कारण इन्द्रादि शूरवीरों के भी इष्ट, 646. त्रिलोकात्मा- अन्तर्यामीरूप से तीनों लोकों के आत्मा, 647. त्रिलोकेशः- तीनों लोकों के स्वावमी, 648. केशवः- ब्रह्मा, विष्णु और शिव-स्वरूप, 649. केशिहा- केशी नाम के असुर को मारने वाले, 650. हरः- स्मरणमात्र से समस्त पापों का हरण करने वाले। 651. कामदेवः- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को चाहने वाले मनुष्यों द्वारा अभिलषित समस्त कामनाओं के अधिष्ठाता परमदेव, 652. कामपालः- सकामी भक्तों की कामनाओं की पूर्ति करने वाले, 653. कामी- अपने प्रियतमों को चाहने वाले, 654. कान्तः- परम मनोहर स्वरूप, 655. कृतागमः- समस्त वेद और शास्त्रों को रचने वाले, 656. अनिर्देश्यवपुः- जिनके दिव्य स्वरूप का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके- ऐसे अनिर्वचनीय शरीरवाले, 657. विष्णुः- शेषशायी भगवान विष्णु, 658. वीरः-बिना ही पैरों के गमन करने की दिव्य शक्ति से युक्त, 659. अनन्तः- जिनके स्वरूप, शक्ति, ऐश्वर्य, सामर्थ्य और गुणों का कोई भी पार नहीं पा सकता- ऐसे अविनाशी गुण, प्रभाव और शक्तियों से युक्त, 660. धनन्जयः- अर्जुनरूप से दिग्विजय के समय बहुत- सा धन जीतकर लाने वाले। 661. ब्रह्मण्यः- तप, वेद, ब्राह्मण और ज्ञान की रक्षा करने वाले, 662. ब्रह्मकृत्- पूर्वोक्त तप आदि की रचना करने वाले, 663. ब्रह्मा- ब्रह्मारूप से जगत् को उत्पन्न करने वाले, 664. ब्रह्म- सच्चिदानन्दस्वरूप, 665. ब्रह्मविवर्धनः- पूर्वोक्त ब्रह्मशब्दवाची तप आदि की वृद्धि करने वाले, 666. ब्रह्मवित- वेद और वेदार्थ को पूर्णतया जानने वाले, 667. ब्राह्मणः- समस्त वस्तुओं को ब्रह्मरूप से देखने वाले, 668. ब्रह्मी- ब्रह्मशब्दवाची तपादि समस्त पदार्थों के अधिष्ठान, 669. ब्रह्मज्ञः- अपने आत्मस्वरूप ब्रह्मशब्दवाची वेद को पूर्णतया यथार्थ जानने वाले, 670. ब्राह्मणप्रियः- ब्राह्मणों को अतिशय प्रिय मानने वाले। 671. महाक्रमः- बड़े वेग से चलने वाले, 672. महाकर्मा- भिन्न-भिन्न अवतारों में नाना प्रकार के महान् कर्म करने वाले, 673. महातेजाः- जिसके तेज से समस्त सूर्य आदि तेजस्वी देदीप्यमान होते हैं- ऐसे महान् तेजस्वी, 674. महोरगः- बड़े भारी सर्प यानि वासुकिस्वरूप, 675. महाक्रतुः- महान् यज्ञस्वरूप, 676. महायज्वा- लोकसंग्रह के लिये बडे़-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले, 677. महायज्ञः- जपयज्ञ आदि भगवत्प्राप्ति के साधन रूप समस्त यज्ञ जिनकी विभूतियाँ हैं- ऐसे महान यज्ञस्वरूप, 678. महाहविः- ब्रह्मरूप अग्नि में हवन किये जाने योग्य प्रपन्चरूप हवि जिनका स्वरूप है- ऐसे महान् हविःस्वरूप। 679. स्तव्यः- सबके द्वारा स्तुति किये जाने योग्य, 680. स्तवप्रियः- स्तुति से प्रसन्न होने वाले, 681. स्तोत्रम्- जिनके द्वारा भगवान के गुण-प्रभाव का कीर्तन किया जाता है, वह स्तोत्र, 682. स्तुतिः- स्तवनक्रियास्वरूप, 683. स्तोता- स्तुति करने वाले, 684. रणप्रियः- युद्ध में प्रेम करने वाले, 685. पूर्णः- समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणों से परिपूर्ण, 686. पूरयिता- अपने भक्तों को सब प्रकार से परिपूर्ण करने वाले, 687. पुण्यः- स्मरणमात्र से पापों का नाश करने वाले पुण्यस्वरूप, 688. पुण्यकीर्तिः- परमपावन कीर्तिवाले, 689. अनामयः- आन्तरिक और बाह्म सब प्रकार की व्याधियों से रहित।[12]

690. मनोजवः- मन की भाँति वेगवाले, 691. तीर्थकरः- समस्त विद्याओं के रचयिता और उपदेशकर्ता, 692. वसुरेताः- हिरण्यमय पुरुष (प्रथम पुरुषसृष्टि का बीज) जिनका वीर्य है- ऐसे सुवर्णवीर्य, 693. वसुप्रदः- प्रचुर धन प्रदान करने वालजे, 694. वसुप्रदः- अपने भक्तों को मोक्षरूप महान धन देने वाले, 695. वासुदेवः- वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, 696. वसुः- सबके अन्तःकरण में निवास करने वाले, 697. वसुमनाः- समानभाव से सब में निवास करने की शक्ति से युक्त मनवाले, 698. हवः- यज्ञ में हवन किये जाने योग्य हविःस्वरूप। 699. सद्गतिः- सत्पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य गतिस्वरूप, 700. सत्कृतिः- जगत् की रक्षा आदि सत्कार्य करने वाले, 701. सत्ता- सदा-सर्वदा विद्यमान सत्तास्वरूप, 702. सद्भूतिः- बहुत प्रकार से बहुत रूपों में भासित होने वाले, 703. सत्परायणः- सत्पुरुषों के परम प्रापणीय स्थान, 704. शूरसेनः- हनुमानादि श्रेष्ठ शूरवीर योद्धाओं से युक्त सेनावाले, 705. यदुश्रेष्ठः- यदुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ, 706. सन्निवासः- सत्पुरुषों के आश्रय, 707. सुयामुनः- जिनके परिकर यमुना-तट निवासी गोपालबाल आदि अति सुन्दर हैं, ऐसे श्रीकृष्ण। 708. भूतावासः- समस्त प्राणियों के मुख्य निवास- स्थान, 709. वासुदेवः- अपनी माया से जगत को आच्छादित करने वाले परमदेव, 710. सर्वासुनिलयः- समस्त प्राणियों के आधार, 711. अनलः- अपार शक्ति और सम्पत्ति से युक्त, 712. दर्पहा- धर्मविरुद्ध मार्ग में चलने वालों के घमण्ड को नष्ट करने वाले, 713. दर्पदः- अपने भक्तों को विशुद्ध उत्साह प्रदान करने वाले, 714. दृप्तः- नित्यानन्दमग्न, 715. दुर्धरः- बड़ी कठिनता से हृदय में धारित होने वाले, 716. अपराजितः- दूसरों से अजित। 717. विश्वमूर्तिः- समस्त विश्व ही जिनकी मूर्ति है- ऐसे विराट्स्वरूप, 718. महामूर्तिः- बड़े रूपवाले, 719. दीप्तमूर्तिः- स्वेच्छा से धारण किये हुए देदीप्यमान स्वरूप से युक्त, 720. अमूर्तिमान- जिनकी कोई मूर्ति नहीं- ऐसे निराकार, 721. अनेकमूर्तिः- नाना अवतारों में स्वेच्छा से लोगों का उपकार करने के लिये बहुत मूर्तियों को धारण करने वाले, 722. अव्यक्तः- अनेक मूर्ति होते हुए भी जिनका स्वरूप किसी प्रकार व्यक्त न किया जा सके- ऐसे अप्रकटस्वरूप, 723. शतमूर्तिः- सैकड़ों मूर्तियों वाले, 724. शताननः- सैकड़ों मुखों वाले। 725. एकः- सब प्रकार के भेदभावों से रहित अद्वितीय, 726. नैकः- अवतार-भेद से अनेक, 727. सवः- जिनमें सोमनाम की ओषधि का रस निकाला जाता है- ऐसे यज्ञ स्वरूप, 728. कः- सुखस्वरूप, 729. किम्- विचारणीय ब्रह्मस्वरूप, 730. यत्- स्वतःसिद्ध, 731. तत्-विस्तार कने वाले, 732. पदमनुत्तमम- मुमुक्षु पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य अत्युत्तम परमपदस्वरूप, 733. लोकबन्धुः- समस्त प्राणियों के हित करने वाले परम मित्र, 734. लोकनाथः- सबके द्वारा याचना किये जाने योग्य लोकस्वामी, 735. माधवः- मधुकुल में उत्पन्न होने वाले, 735. भक्तवत्सलः- भक्तों से प्रेम करने वाले। 737. सुवर्णवर्णः- सोने के समान पीतवर्ण वाले, 738. हेमांगः- सोने के समान चमकीले अंगों वाले, 739. वरांगः- परम श्रेष्ठ अंग-प्रत्यंगों वाले, 740. चन्दनांगदी- चन्दन के लेप और बाजूबंद से सुशोभित, 741. वीरहा- शूरवीर असुरों का नाश करने वाले, 742. विषमः- जिनके समान दूसरा कोई नहीं- ऐसे अनुपम, 743. शून्यः- समस्त विशेषणों से रहित, 744. घृताशीः- अपने आश्रित जनों के लिये कृपा से सने हुए द्रवित संकल्प करने वाले, 745. अचलः- किसी प्रकार भी विचलित न होने वाले- अविचल, 746. चलः- वायुरूप से सर्वत्र गमन करने वाले।

747. अमानी-स्वयं मान न चाहने वाले, 748. मानदः- दूसरों को मान देने वाले, 749. मान्यः- सबके पूजने योग्य माननीय, 750. लोकस्वामी- चौदह भुवनों के स्वामी, 751. त्रिलोकधृक्-तीनों लोकों को धारण करने वाले, 750. सुमेधाः- अति उत्तम सुन्दर बुद्धिवाले, 753. मेधजः- यज्ञ में प्रकट होने वाले, 754. धन्यः- नित्य कृतकृत्य होने के कारण सर्वथा धन्यवाद के पात्र, 755. सत्यमेधाः- सच्ची और श्रेष्ठ बुद्धिवाले, 756. धराधरः- अनन्त भगवान् के रूप से पृथ्वी को धारण करने वाले। 757. तेजोवृषः- अपने भक्तों पर आनन्दमय तेज की वर्षा करने वाले, 758. द्युतिधरः- परम कान्ति को धारण करने वाले, 759. सर्वशस्त्रभृतां वरः- समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, 760. प्रग्रहः- भक्तों के द्वारा अर्पित पत्र-पुष्पादि को ग्रहण करने वाले, 761. निग्रहः- सबका निग्रह करने वाले, 762. व्यग्रः- अपने भक्तों को अभीष्ट फल देने में लगे हुए, 763. नैकश्रृंगः- नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपातरूप चार सींगों को धारण करने वाले शब्दब्रह्मस्वरूप, 764. गदाग्रजः- गद से पहले जन्म लेने वाले श्रीकृष्ण। 765. चतुर्मूर्तिः- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघनरूप चार मूर्तियों वाले, 766. चतुर्बाहुः- चार भुजाओं वाले, 767. चतुर्व्यूहः- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध- इन चार व्यूहों से युक्त, 768. चतुर्गतिः- सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्यरूप चार परम गतिस्वरूप, 769. चतुरात्मा- मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तरूप चार अन्तःकरण वाले, 770. चतुर्भावः- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों के उत्पत्तिस्थान, 771. चतुर्वेदवित्- चारों वेदों के अर्थ को भली-भाँति जानने वाले, 772. एकपात- एक पाद वाले यानि एक पाद (अंश)- से समस्त विश्व को व्याप्त करने वाले। 773. समावर्तः- संसारचक्र को भली-भाँति घुमाने वाले, 774. अनिवृत्तात्मा- सर्वत्र विद्यमान होने के कारण जिनका आत्मा कहीं से भी हटा हुआ नहीं है, ऐसे, 775. दुर्जयः- किसी से भी जीतने में न आने वाले, 776. दुरतिक्रमः- जिनकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सके, ऐसे, 777. दुर्लभः- बिना भक्ति के प्राप्त न होने वाले, 778. दुर्गमः- कठिनता से जानने में आने वाले, 779. दुर्गः- कठिनता से प्राप्त होने वाले, 780. दुरावासः- बड़ी कठिनता से योगीजनों द्वारा हृदय में बसाये जाने वाले, 781. दुरारिहा- दुष्ट मार्ग में चलने वाले दैत्यों का वध करने वाले। 782. शुभांगः- कल्याणकारक सुन्दर अंगों वाले, 783. लोकसारंगः- लोकों के सार को ग्रहण करने वाले, 784. सु तन्तुः- सुन्दर विस्तृत जगत्रूप तन्तुवाले, 785. तन्तु वर्धनः- पूर्वोक्त जगत्-तन्तु को बढ़ाने वाले, 786. इन्द्रकर्मा-इन्द्र के समान कर्मवाले, 787. महाकर्मा-बड़े-बड़े कर्म करने वाले, 788. कृतकर्मा- जो समस्त कर्तव्य कर्म कर चुके हों, जिनका कोई कर्तव्य शेष न रहा हो- ऐसे कृतकृत्य, 789. कृतागमः- स्वोचित अनेक कार्यों को पूर्ण करने के लिये अवतार धारण करके अने वाले। 790. उद्भवः- स्वेच्छा से श्रेष्ठ जन्म धारण करने वाले, 791. सुन्दरः- परम सुन्दर, 792. सुन्दः- परम करुणाशील, 793. रत्ननाथः- रत्न के समान सुन्दर नाभिवाले, 794. सुलोचनः- सुन्दर नेत्रों वाले, 795. अर्कः- ब्रह्मादि पूज्य पुरुषों के भी पूजनीय, 796. वाजसनः- याचकों को अन्न प्रदान करने वाले, 797. श्रृंगी- प्रलयकाल में सींगयुक्त मत्स्यविशेष का रूप धारण करने वाले, 798. जयन्तः- शत्रुओं को पूर्णतया जीतने वाले, 799. सर्वविज्जयी- सब कुछ जानने वाले और सबको जीतने वाले। [13]

800. सुवर्णबिन्दुः- सुन्दर अक्षर और बिन्दु से युक्त ओंकारस्वरूप, 801. अक्षोभ्यः- किसी के द्वारा भी क्षुभित न किये जा सकने वाले, 802. सर्ववागीश्वरेवरः- समस्त वाणीपतियों के यानि ब्रह्मादि के भी स्वामी, 803. महाहृदः- ध्यान करने वाले जिसमें गाता लगाकर आनन्द में मग्न होते हैं,ऐसे परमानन्द के महान सरोवर, 804. महागर्तः- महान् रथवाले, 805. महाभूतः- त्रिकाल में कभी नष्ट न होने वाले महाभूतस्वरूप, 806. महानिधिः- सबके महान् निवास-स्थान। 807. कुमुदः- कु अर्थात् पृथ्वी को उसका भार उतारकर प्रसन्नकरने वाले, 808. कुन्दरः- हिरण्याक्ष को मारने के लिये पृथ्वी को विदीर्ण करने वाले, 809. कुन्दः- परशुराम-अवतार में पृथ्वी प्रदान करने वाले, 810. पर्जन्यः- बादल की भाँति समस्त इष्ट वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 811. पावनः- स्मरण मात्र से पवित्र करने वाले, 812. अनिलः- सदा प्रबुद्ध रहने वाले, 813. अमृताशः- जिनकी आशा कभी विफल न हो- ऐसे अमोघसंकल्प, 814. अमृतवपुः- जिनका कलेवर कभी नष्ट न हो- ऐसे नित्य विग्रह, 815. सर्वज्ञः- सदा सर्वदा सब कुछ जानने वाले, 816. सर्वतोमुखः- सब ओर मुखवाले यानि जहाँ कहीं भी उनके भक्त भक्तिपूर्वक पत्र-पुष्पादि जो कुछ भी अर्पण करें, उसे भक्षण करने वाले। 817. सुलभः- नित्य-निरन्तर चिन्तन करने वाले को और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को बिना ही परिश्रम के सुगमता से प्राप्त होने वाले, 818. सुव्रतः- सुन्दर भोजन करने वाले यानि अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र-पुष्पादि मामूली भोजन को भी परम श्रेष्ठ मानकर खाने वाले, 819. सिद्धः- स्वभाव से ही समस्त सिद्धियों से युक्त, 820. शत्रुजित्-देवता और सत्पुरुषों के शत्रुओं को जीतने वाले, 821. शत्रुतापनः- देव-शत्रुओं को तपाने वाले, 822. न्यग्रोधः- वटवृक्षरूप, 823. उदुम्बरः- कारणरूप से आकाश के भी ऊपर रहने वाले, 824. अश्वत्थः- पीपल वृक्षस्वरूप, 825. चाणूरान्ध्रनिषूदनः- चाणूर नामक अन्ध्रजाति के वीर मल्ल को मारने वाले। 826. सहस्रार्चिः- अनन्त किरणों वाले सूर्यरूप, 827. सप्तजिव्हः- काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुचि- इन सात जिह्वाओं वाले अग्निस्वरूप, 828. सप्तैधाः- सात दीप्तिवाले अग्निस्वरूप, 829. सप्तवाहनः- सात घोड़ों वाले सूर्यरूप, 830. अमूर्तिः- मूर्तिरहित निराकार, 831. अनघः- सब प्रकार से निष्पाप, 832. अचिन्त्यः- किसी प्रकार भी चिन्तन करने में न आने वाले अव्यक्तस्वरूप, 833. भयकृत्- दुष्टों को भयभीत करने वाले, 834. भयनाशनः- स्मरण करने वालों के और सत्पुरुषों के भय का नाश करने वाले। 835. अणुः- अत्यन्त सूक्ष्म, 836. बृहत्- सबसे बड़े, 837. कृशः- अत्यन्त पतले और हलके, 838. स्थूलः- अत्यन्त मोटे और भारी, 839. गुणभृत्- समस्त गुणों को धारण करने वाले, 840. निर्गुणः- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों से अतीत, 841. महान्- गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्त्वसम्पन्न, 842. अधृतः- जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता- ऐसे निराधार, 843. स्वधृतः- अपने-आपसे धारित यानि अपनी ही महिमा में स्थित, 844. स्वास्यः- सुन्दर मुखवाले, 845. प्राग्वंशः- जिनसे समस्त वंश-परम्परा आरम्भ हुई है- ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदिपुरुष, 846. वंशवर्धनः- जगत्-प्रपंचरूप वंश को ओर यादव वंश को बढ़ाने वाले।[14]

847. भारभृत्- शेषनाग आदि के रूप में पृथ्वी का भार उठाने वाले और अपने भक्तों के योगक्षेमरूप भार को वहन करने वाले, 848. कथितः- वेद-शास्त्र और महापुरुषों द्वारा जिनके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप का बारंबार कथन किया गया है, ऐसे सबके द्वारा वर्णित, 849. योगी- नित्य समाधियुक्त, 850. योगीशः- समस्त योगियों के स्वामी, 851. सर्वकामदः- समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले, 852. आश्रमः- सबको विश्राम देने वाले, 853. श्रमणः- दुष्टों को संतप्त करने वाले, 854. क्षामः- प्रलयकाल में सब प्रजा का क्षय करने वाले, 855. सुपर्णः- वेदरूप सुन्दर पत्तों वाले (संसारवृक्षस्वरूप), 856. वायुवाहनः- वायु को गमन करने के लिये शक्ति देने वाले। 857. धनुर्धरः- धनुषधारी श्रीराम, 858. धनुर्वेदः- धनुर्विद्या को जानने वाले श्रीराम, 859. दण्डः- दमन करने वालों की दमनशक्ति, 860. दमयिता- यम और राजा आदि के रूप में दमन करने वाले, 861. दमः- दण्ड का कार्य यानि जिनको दण्ड दिया जाता है, उनका सुधार, 862. अपराजितः- शत्रुओं द्वारा पराजित न होने वाले, 863. सर्वसहः- सब कुछ सहन करने की सामर्थ्य से युक्त, अतिशय तितिक्षु, 864. नियन्ता- सबको अपने-अपने कर्तव्य में नियुक्त करने वाले, 865. अनियमः- नियमों से न बँधे हुए, जिनका कोई भी नियन्त्रण करने वाला नहीं, ऐसे परमस्वतन्त्र, 866. अयमः- जिनका कोई शासक नहीं। 867. सत्त्ववान्- बल, वीर्य, सामर्थ्य आदि समस्त तत्त्वों से सम्पन्न, 868. सात्त्विकः- सत्त्वगुणप्रधानविग्रह, 869. सत्यः- सत्यभाषणस्वरूप, 870. सत्यधर्मपरायणः- यथार्थ भाषण और धर्म के परम आधार, 871. अभिप्रायः- प्रेमीजन जिनको चाहते हैं- ऐसे परम इष्ट, 872. प्रियार्हः- अत्यन्त प्रिय वस्तु समर्पण करने के लिये योग्य पात्र 873. अर्हः- सबके परम पूज्य, 874. प्रियकृत्- भजने वालों का प्रिय करने वाले, 875. प्रीतिवर्धनः- अपने प्रेमियों के प्रेम को बढ़ाने वाले। 876. विहायसगतिः- आकाश में गमन करने वाले, 877. ज्योतिः- स्वयंप्रकाशस्वरूप, 878. सुरुचिः- सुन्दर रुचि और कान्तिवाले, 879. हुतभुक्-यज्ञ में हवन की हुई समस्त हवि को अग्निरूप से भक्षण करने वाले, 880. विभुः- सर्वव्यापी, 881. रविः- समस्त रसों का शोषण करने वाले सूर्य, 882. विरोचनः- विविध प्रकार से प्रकाश फैलाने वाले, 883. सूर्यः- शोभा को प्रकट करने वाले, 884. सविता- समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले, 885. रविलोचनः- सूर्यरूप नेत्रों वाले। 886. अनन्तः-सब प्रकार से अन्तरहित, 887. हुतभुक्- यज्ञ में हवन की हुई सामग्री को उन-उन देवताओं के रूप में भक्षण करने वाले, 888. भोक्ता- जगत का पालन करने वाले, 889. सुखदः- भक्तों को दर्शनरूप परम सुख देने वाले, 890. नैकजः- धर्मरक्षा, साधुरक्षा आदि परम विशुद्ध हेतुओं से स्वेच्छापूर्वक अनेक जन्म धारण करने वाले, 891. अग्रजः- सबसे पहले जन्मने वाले आदिपुरुष, 892. अनिर्विण्णः- पूर्णकाम होने के कारण उकताहट से रहित, 893. सदामर्षी-सत्पुरुषों पर क्षमा करने वाले, 894. लोकाधिष्ठानम्- समस्त लोकों के आधार, 895. अद्भुतः- अत्यन्त आश्चर्यमय। 896. सनात्- अनन्तकालस्वरूप, 897. सनातनतमः- सबके कारण होने से ब्रह्मादि पुरुषों की अपेक्षा भी परम पुराणपुरुष, 898. कपिलः- महर्षि कपिलावतार, 899. कपिः- सूर्यदेव, 900. अप्ययः- सम्पूर्ण जगत के लयस्थान, 901. स्वस्तिदः- परमानन्दरूप मंगल देने वाले, 902. स्वस्तिकृत्-आश्रितजनों का कल्याण करने वाले, 903. स्वस्ति- कल्याणस्वरूप, 904. स्वस्तिभुक्- भक्तों के परम कल्याण की रक्षा करने वाले, 905. स्वस्तिदक्षिणः- कल्याण करने में समर्थ और शीघ्र कल्याण करने वाले।[15]

906. अरौद्रः- सब प्रकार के रुद्र (क्रूर) भावों से रहित शान्तिमूर्ति, 907. कुण्डली- सूर्य के समान प्रकाशमान मकराकृति कुण्डलों को धारण करने वाले, 908. चक्री-सुदर्शनचक्र को धारण करने वाले, 909. विक्रमी- सबसे विलक्षण पराक्रमशील, 910. ऊर्जितशासनः- जिनका श्रुति- स्मृतिरूप शासन अत्यन्त श्रेष्ठ है- ऐसे अतिश्रेष्ठ शासन करने वाले, 911. शब्दातिगः- शब्द की जहाँ पहुँच नहीं, ऐसे वाणी के अविषय, 912. शब्दसहः- कठोर शब्दों को सहने करने वाले, 913. शिशिरः- त्रितापपीड़ितों को शान्ति देने वाले शीतलमूर्ति, 914. शर्वरीकरः- ज्ञानियों की रात्रि संसार और अज्ञानियों की रात्रि ज्ञान- इन दोनों को उत्पन्न करने वाले। 915. अक्रूरः- सब प्रकार के क्रूरभावों से रहित, 916. पेशलः- मन, वाणी और कर्म-सभी दृष्टियों से सुन्दर होने के कारण परम सुन्दर, 917. दक्षः- सब प्रकार से समृद्ध, परमशक्तिशाली और क्षणमात्र में बड़े-से-बड़ा कार्य कर देने वाले महान कार्यकुशल, 918. दक्षिणः- संहारकारी, 919. क्षमिणां वरः- क्षमा करने वालों में सर्वश्रेष्ठ, 920. विद्वत्तमः- विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ परम विद्वान, 921. वीतभयः- सब प्रकार के भय से रहित, 922. पुण्यश्रवणकीर्तनः- जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूप का श्रवण ओर कीर्तन परम पावन हैं, ऐसे। 923. उत्तारणः- संसार-सागर से पार करने वाले, 924. दुष्कृतिहा- पापों का और पापियों का नाश करने वाले, 925. पुण्यः- स्मरण आदि करने वाले समस्त पुरुषों को पवित्र कर देने वाले, 926. दुःस्वप्ननाशनः- ध्यान, स्मरण, कीर्तन और पूजन करने से बुरे स्वप्नों का नाश करने वाले, 927. वीरहा- शरणागतों की विविध गतियों का यानि संसार-चक्र का नाश करने वाले, 928. रक्षणः- सब प्रकार से रक्षा करने वाले, 929. सन्तः- विद्या, विनय और धर्म आदि का प्रचार करने के लिये संतों के रूप में प्रकट होने वाले, 930. जीवनः- समस्त प्रजा को प्राणरूप से जीवित रखने वाले, 931. पर्यवस्थितः- समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित रहने वाले। 932. अनन्तरूपः- अमितरूपवाले, 933. अनन्तश्रीः- अपरिमित शोभासम्पन्न, 934. जितमन्युः- सब प्रकार से क्रोध को जीत लेने वाले, 935. भयापहः- भक्तभयहारी, 936. चतुरस्त्रः- मंगलमूर्ति, 937. गभीरात्मा- गम्भीर मनवाले, 938. विदिशः- अधिकारियों को उनके कर्मानुसार विभागपूर्वक नाना प्रकार के फल देने वाले, 939. व्यादिशः- सबको यथायोग्य विविध आज्ञा देने वाले, 940. दिशः- वेदरूप से समस्त कर्मों का फल बतलाने वाले। 941. अनादिः- जिसका आदि कोई न हो ऐसे सबके कारणस्वरूप, 942.भूर्भुवः- पृथ्वी के भी आधार, 943. लक्ष्मीः- समस्त शोभायमान वस्तुओं की शोभास्वरूप, 944. सुवीरः- उत्तम योधा, 945. रुचिरांगदः- परम रुचिकर कल्याणमय बाजूबंदों को धारण करने वाले, 946. जननः- प्राणिमात्र को उत्पन्न करने वाले, 947. जनजन्मादिः- जन्म लेने वालों के जन्म के मूल कारण, 948. भीमः- दुष्टों को भय देने वाले, 949. भीमपराक्रमः- अतिशय भय उत्पन्न करने वाले, पराक्रम से युक्त। 950. आधारनिलयः- आधारस्वरूप पृथ्वी आदि समस्त भूतों के स्थान, 951. अधाता- जिसका कोई भी बनाने वाला न हो ऐसे स्वयं स्थित, 952. पुष्पहासः- पुष्प की भाँति विकसित हास्यवाले, 953. प्रजागरः- भली प्रकार जाग्रत रहने वाले नित्यप्रबुद्ध, 954. ऊर्ध्वगः- सबसे ऊपर रहने वाले, 955. सत्पथाचारः- सत्पुरुषों के मार्ग का आचरण करने वाले मर्यादापुरुषोत्तम, 946. प्राणदः- परीक्षित आदि मरे हुओं को भी जीवन देने वाले, 957. प्रणवः- ऊँकारस्वरूप, 958. पणः- यथायोग्य व्यवहार करने वाले।[16]

959. प्रमाणम-स्वतःसिद्ध होने से स्वयं प्रमाणस्वरूप, 960. प्राणनिलयः- प्राणों के आधारभूत, 961. प्राणभृत्-समस्त प्राणों का पोषण करने वाले, 962. प्राणजीवनः- प्राणवायु के संचार से प्राणियों को जीवित रखने वाले, 963. तत्त्वम्-यथार्थ तत्त्वरूप, 964. तत्त्ववित्- यथार्थ तत्त्व को पूर्णतया जानने वाले, 965. एकात्मा- अद्वितीयस्वरूप, 966. जन्ममृत्युजरातिगः- जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा आदि शरीरके धर्मों से सर्वथा अतीत। 967. भूर्भुवःस्वस्तरूः- ‘भूः भुवः स्वः’ तीनों लोकों वाले, संसारवृक्षस्वरूप, 968. तारः- संसार-सागर से पार उतारने वाले, 969. सविता- सबको उत्पन्न करने वाले, 970. प्रपितामहः- पितामह ब्रह्मा के भी पिता, 971. यज्ञः- यज्ञस्वरूप, 972. यज्ञपतिः- समस्त यज्ञों के अधिष्ठाता, 973. यज्वा- यजमानरूप से यज्ञ करने वाले, 974. यज्ञांगः- समस्त यज्ञरूप अंगों वाले, वाराहस्वरूप, 975. यज्ञवाहनः- यज्ञों को चलाने वाले। 976. यज्ञभृत्- यज्ञों को धारण करने वाले, 977. यज्ञकृत- यज्ञों के रचयिता, 978. यज्ञत- समस्त यज्ञ जिसमें समाप्त होते हैं- ऐसे यज्ञशेषी, 979. यज्ञभुक्- समस्त यज्ञों के भोक्ता, 980. यज्ञसाधनः- ब्रह्मयज्ञ, जपयज्ञ आदि बहुत से यज्ञ जिनकी प्राप्ति के साधन हैं ऐसे, 981. यज्ञान्तकृत्-यज्ञों का फल देने वाले, 982. यज्ञगुह्यम्-यज्ञों में गुप्त निष्काम यज्ञस्वरूप, 983. अन्नम्- समस्त प्राणियों के अन्न यानि अन्न की भाँति उनकी सब प्रकार से तुष्टि-पुष्टि करने वाले, 984. अन्नादः- समस्त अन्नों के भोक्ता। 985. आत्मयोनिः- जिनका कारण दूसरा कोई नहीं ऐसे स्वयं योनिस्वरूप, 986. स्वयंजातः- स्वयं अपने-आप स्वेच्छापूर्वक प्रकट होने वाले, 987. वैखानः- पातालवासी हिरण्याक्ष का वध करने के लिये पृथ्वी को खोदने वाले, वाराह-अवतारधारी, 988. सामगायनः- सामदेव का गान करने वाले, 989. देवकीनन्दनः- देवकीपुत्र, 990. स्रष्टा-समस्त लोकों के रचयिता, 991. क्षितीशः- पृथ्वीपति, 992. पापनाशनः- स्मरण, कीर्तन, पूजन और ध्यान आदि करने से समस्त पापसमुदाय का नाश करने वाले। 993. शंखभृत्- पान्चजन्यशंख को धारण करने वाले, 994. नन्दकी- नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले, 995. चक्री-सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, 996. शार्गंधन्वा- शार्गंधनुषधारी, 997. गदाधरः- कौमोदकी नाम की गदा धारण करने वाले, 998. रथांगपाणिः- भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये सुदर्शन चक्र को हाथ में धारण करने वाले श्रीकृष्ण, 999. अक्षोभ्यः- जो किसी प्रकार भी विचलित नहीं किये जा सके, ऐसे, 1000. सर्वप्रहरणायुधः- ज्ञात और अज्ञात जितने भी युद्धादि में काम आने वाले अस्त्र-शस्त्र हैं, उन सबको धारण करने वाले। यहाँ हजार नामों की समाप्ति दिखलाने के लिये अन्तिम नाम को दुबारा लिखा गया है। मंगलवाची होने से ऊँकार का स्मरण किया गया है। अन्त में नमस्कार करके भगवान की पूजा की गयी है। इस प्रकार यह कीर्तन करने योग्य महात्मा केशव के दिव्य एक हजार नामों का पूर्णरूप से वर्णन कर दिया। जो मनुष्य इस विष्णुसहस्रनाम का सदा श्रवण करता है और जो प्रतिदिन इसका कीर्तन या पाठ करता है, उसका इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी कुछ अशुभ नहीं होता। इस विष्णुसहस्रनाम का श्रवण, पठन और कीर्तन करने से ब्राह्मण वेदान्त-पारगामी हो जाता है, क्षत्रिय युद्ध में विजय पाता है, वैश्य धन से सम्पन्न होता है और शूद्र सुख पाता है। धर्म की इच्छा वाला धर्म को पाता है, अर्थ की इच्छा वाला अर्थ पाता है, भोगों की इच्छावाला भोग पाता है ओर संतान की इच्छा वाला संतान पाता है।[17]

भगवान कृष्ण की स्तुति वर्णन

जो भक्तिमान पुरुष सदा प्रातःकाल में उठकर स्नान करके पवित्र हो मन में विष्णु का ध्यान करता हुआ इस वासुदेव-सहस्रनाम का भली प्रकार पाठ करता है, वह महान यश पाता है, जाति में महत्त्व पाता है, अचल सम्पत्ति पाता है और अति उत्तम कल्याण पाता है तथा उसको कहीं भय नहीं होता। वह वीर्य और तेज को पाता है तथा आरोग्यवान, कान्तिमान, बलवान, रूपवान और सर्वगुणसम्पन्न हो जाता है। रोगातुर पुरुष रोग से छूट जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ पुरुष बन्धन से छूट जाता है, भयभीत भय से छूट जाता है और आपत्ति में पड़ा हुआ आपत्ति से छूट जाता है। जो पुरुष भक्तिसम्पन्न होकर इस विष्णुसहस्रनाम से पुरुषोत्तम भगवान की प्रतिदिन स्तुति करता है, वह शीघ्र ही समस्त संकटों से पार हो जाता है। जो मनुष्य वासुदेव के आश्रित और उने परायण है, वह समस्त पापों से छूटकर विशुद्ध अन्तःकरण वाला हो सनातन परब्रह्म को पाता है।

वासुदेव के भक्तों का कहीं कभी भी अशुभ नहीं होता है तथा उनको जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का भी भय नहीं रहता है। जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से इस विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह आत्मसुख, क्षमा, लक्ष्मी, धैर्य, स्मृति और कीर्ति को पाता है। पुरुषोत्तम के पुण्यात्मा भक्तों को किसी दिन क्रोध नहीं आता, ईर्ष्या उत्पन्न नहीं होती, लोभ नहीं होता और उनकी बुद्धि कभी अशुद्ध नहीं होती। स्वर्ग, सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्र सहित आकाश, दस दिशाएँ, पृथ्वी और महासागर- ये सब महात्मा वासुदेव के प्रभाव से धारण किये गये हैं। देवता, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प और राक्षस सहित यह स्थावर- जंगमरूप सम्पूर्ण जगत श्रीकृष्ण के अधीन रहकर यथायोग्य बरत रहे हैं।

इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सत्त्व, तेज, बल, धीरज, क्षेत्र, (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा)- ये सब-के-सब श्री वासुदेव के रूप हैं, ऐसा वेद कहते हैं। सब शास्त्रों में आचार प्रथम माना जाता है, आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के स्वामी भगवान अच्युत हैं। ऋषि, पितर, देवता, पन्च महाभूत, धातुएँ और स्थावर- जंगमात्मक सम्पूर्ण जगत्- ये सब नारायण से ही उत्पन्न हुए हैं। योग, ज्ञान, सांख्य, विद्याएँ, शिल्प आदि कर्म, वेद, शास्त्र और विज्ञान- ये सब विष्णु से उत्पन्न हुए हैं। वे समस्त विश्व के भोक्ता और अविनाशी विष्णु ही एक ऐसे हैं,जो अनेक रूपों में विभक्त होकर भिन्न-भिन्न भूतविशेषों के अनेक रूपों को धारण कर रहे हैं तथा त्रिलोकी में व्याप्त होकर सबको भोग रहे हैं। जो पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो, वह भगवान व्यास जी के कहे हुए इस विष्णुसहस्रनामस्तोत्र का पाठ करे। जो विश्व के ईश्वर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने वाले जन्मरहित कमललोचन भगवान विष्णु का भजन करते हैं, वे कभी पराभव नहीं पाते हैं।[18]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 1-14
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 15-21
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 22-28
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 29-34
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 35-41
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 42-48
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 49-55
  8. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 56-62
  9. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 63-68
  10. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 69-74
  11. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 75-80
  12. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 81-86
  13. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 93-98
  14. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 99-103
  15. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 104-109
  16. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 110-115
  17. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 116-124
  18. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 125-142

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युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना | भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन | प्रजापति मनु के वंश का वर्णन | अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय | विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न | अजमीढ के वंश का वर्णन | विश्वामित्र के जन्म की कथा | विश्वामित्र के पुत्रों के नाम | इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद | दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन | कर्मों के फल का वर्णन | श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा | ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन | शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा | लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन | भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन | स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान | भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश | भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध | श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन | उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान | उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या | उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति | उपमन्यु को महादेव का वरदान | श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन | शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान | महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना | महात्मा तण्डि को महादेव का वरदान | उपमन्यु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र का वर्णन | शिवसहस्रनामस्तोत्र पाठ का फल | ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना | श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन | अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान | कुबेर द्वारा अष्टावक्र का स्वागत-सत्कार | अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद | अष्टावक्र का वदान्य ऋषि की कन्या से विवाह | युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर | श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण | देवता और पितरों के कार्य में आमन्त्रण देने योग्य पात्रों का वर्णन | नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन | ब्रह्महत्या के समान पापों का निरूपण | विभिन्न तीर्थों के माहात्मय का वर्णन | गंगाजी के माहात्म्य का वर्णन | ब्राह्मणत्व हेतु तपस्यारत मतंग की इन्द्र से बातचीत | इन्द्र द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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