- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 49 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है।[1]-
विषय सूची
- 1 युधिष्ठिर का संशय
- 2 भीष्म द्वारा नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
- 3 युधिष्ठिर का अपध्वंसज पुत्र के बारे में पूछना
- 4 भीष्म का उत्तर
- 5 युधिष्ठिर का प्रस्न
- 6 भीष्म का संवाद
- 7 युधिष्ठिर द्वारा अध्यूढ के बारे में पूछना
- 8 भीष्म का कथन
- 9 युधिष्ठिर का संवाद
- 10 भीष्म द्वारा कृत्रिम पुत्र का वर्णन
- 11 बालक का संस्कार
- 12 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 13 संबंधित लेख
युधिष्ठिर का संशय
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- तात! कुरुश्रेष्ठ! आप वर्णों के सम्बन्ध में पृथक-पृथक यह बताइये कि कैसी स्त्री के गर्भ से कैसे पुत्र उत्पन्न होते हैं और कौन-से पुत्र किसके साथ होते हैं? पुत्रों के निमित बहुत-सी विभिन्न बातें सुनी जाती हैं। राजन! इस विषय में हम मोहित होने के कारण कुछ निश्चय नहीं कर पाते, अत: आप हमारे इस संशय का निवारण करें।
भीष्म द्वारा नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
भीष्म ने कहा- जहाँ पति-पत्नी के संयोग में किसी तीसरे का व्यवधान नहीं है अर्थात जो पति के वीर्य से ही उत्पन्न हुआ है, उस ‘अनन्तरज’ अर्थात ‘औरस’ पुत्र को अपनी आत्मा ही समझना चाहिये। दूसरा पुत्र ‘निरुक्तज’ होता है। तीसरा ‘प्रसृतज’ होता है।[2] पतित पुरुष का अपनी स्त्री के गर्भ से स्वयं ही उत्पन्न किया हुआ पुत्र चौथी श्रेणी का पुत्र हैं। इसके सिवा ‘दत्तक’ और ‘क्रीत’ पुत्र भी होते हैं। ये कुल मिलाकर छ: हुए। सातवाँ है ‘अध्यूढ़’ पुत्र (जो कुमारी-अवस्था में ही माता के पेट में आ गया और विवाह करने वाले के घर में आकर जिसका जन्म हुआ)। आठवाँ ‘कानीन’ पुत्र होता है। इनके अतिरिक्त छ: ‘अपध्वंसज’ (अनुलोम) पुत्र होते हैं तथा छ: ‘अपसद’ (प्रतिलोम) पुत्र होते हैं। इस तरह इन सबकी संख्या बीस हो जाती है। भारत! इस प्रकार ये पुत्रों के भेद बताये गये। तुम्हें इन सबको पुत्र ही जानना चाहिये।
युधिष्ठिर का अपध्वंसज पुत्र के बारे में पूछना
युधिष्ठिर ने पूछा- दादा जी! छ: प्रकार के अपध्वंसज पुत्र कौन-से हैं तथा अपसद किन्हें कहा गया है? यह सब आप मुझे यथार्थ रूप से बताइये।
भीष्म का उत्तर
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! ब्राह्मण के क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन तीन वर्णों की स्त्रियों से जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे तीन प्रकार के अपध्वंसज कहे गये हैं। भारत! क्षत्रिय के वैश्य और शूद्र जाति की स्त्रियों से जो पुत्र होते हैं वे दो प्रकार के अपध्वंसज हैं, तथा वैश्य के शूद्र-जाति की स्त्री से जो पुत्र होता है वह भी एक अपध्वंसज है। इन सबका इसी प्रकरण में दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार ये छ: अपध्वंसज अर्थात अनुलोम पुत्र कहे गये हैं। अब ‘अपसद’ अर्थात 'प्रतिलोम’ पुत्रों का वर्णन सुनो। ब्राहाणी, क्षत्रिया तथा वैश्या- इन वर्णों की स्त्रियों के गर्भ से शूद्र द्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: चाण्डाल, व्रात्य और वैघ कहलाते हैं। ये अपसदों के तीन भेद है। ब्राह्मणी और क्षत्रिया के द्वारा गर्भ से वैश्य द्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: मागध और वामक नाम वाले दो प्रकार के अपसद देखे गये हैं। क्षत्रिय के एक ही वैसा पुत्र देखा जाता है, जो ब्राह्मणी से उत्पन्न होता है। उसकी सूत संज्ञा है। ये छ: अपसद अर्थात प्रतिलोम पुत्र माने गये हैं। नरेश्वर! इन पुत्रों को मिथ्या नही बताया जा सकता।
युधिष्ठिर का प्रस्न
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! कुछ लोग अपनी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए किसी भी प्रकार के पुत्र को अपना ही पुत्र मानते हैं और कुछ लोग अपने वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र को ही सगा पुत्र समझते हैं। क्या वे दोनों समान कोटि के पुत्र हैं? इन पर किसका अधिकार है? इन्हें जन्म देने वाली स्त्री के पति का या गर्भाधान करने वाले पुरुष का? यह मुझे बताइये।
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- राजन! अपने वीर्य से उत्पन्न हुआ पुत्र तो सगा पुत्र है ही, क्षेत्रज पुत्र भी यदि गर्भस्थापन करने वाले पिता के द्वारा छोड़ दिया गया हो तो वह अपना ही होता है। यही बात समय-भेदन करके अध्यूढ पुत्र के विषय में भी समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि वीर्य डालने वाले पुरुष ने यदि अपना स्वत्व हटा लिया हो तब वे क्षेत्रज और अध्यूढ पुत्र क्षेत्रपति के ही माने जाते हैं। अन्यथा उन पर वीर्यदाता का ही स्वत्व है।
युधिष्ठिर द्वारा अध्यूढ के बारे में पूछना
युधिष्ठिर ने पूछा- दादा जी! हम तो वीर्य से उत्पन्न होने वाले पुत्र को ही पुत्र समझते हैं। वीर्य के बिना क्षेत्रज पुत्र का आगमन कैसे हो सकता है? तथा अध्यूढ को हम किस प्रकार समय-भेदन करके पुत्र समझें?
भीष्म का कथन
भीष्म जी ने कहा- बेटा! जो लोग अपने वीर्य से पुत्र उत्पन्न करके अन्यान्य कारणों से उसका परित्याग कर देते हैं, उनका उस पर वीर्य स्थापन के कारण अधिकार नहीं रह जाता। वह पुत्र उस क्षेत्र के स्वामी का हो जाता है। प्रजानाथ! पुत्र की इच्छा रखने वाला पुरुष पुत्र के लिये ही जिस गर्भवती कन्या को भार्या रूप से ग्रहण करता है, उसका क्षेत्रज पुत्र उस विवाह करने वाले पति का ही माना जाता है। वहाँ गर्भ-स्थापन करने वाले का अधिकार नहीं रह जाता है। भरतश्रेष्ठ! दूसरे के क्षेत्र में उत्पन्न हुआ पुत्र विभिन्न लक्षणों से लक्षित हो जाता है कि किसका पुत्र है। कोई भी असलियत को छिपा नहीं सकता, वह स्वत: प्रत्यक्ष हो जाती है। भरतनन्दन! कहीं-कहीं कृत्रिम पुत्र भी देखा जाता है। वह ग्रहण करने या अपना मान लेने मात्र से ही अपना हो जाता है। वहाँ वीर्य या क्षेत्र कोई भी उसके पुत्रत्व-निश्चय में कारण होता दिखायी नहीं देता।
युधिष्ठिर का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- भारत! जहाँ वीर्य या क्षेत्र पुत्रत्व के निश्चय में प्रमाण नहीं देखा जाता, जो संग्रह करने मात्र से ही अपने पुत्र के रुप में दिखायी देने लगता है वह कृत्रिम पुत्र कैसा होता है?
भीष्म द्वारा कृत्रिम पुत्र का वर्णन
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! माता-पिता ने जिसे रास्ते पर त्याग दिया हो और पता लगाने पर भी जिसके माता-पिता का ज्ञान न हो सके, उस बालक का जो पालन करता है, उसी का वह कृत्रिम पुत्र माना जाता है। वर्तमान समय में जो उस अनाथ बच्चे का स्वामी दिखायी देता है और उसका पालन-पोषण करता है, उसका जो वर्ण है, वही उस बच्चे का भी वर्ण हो जाता है।
बालक का संस्कार
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! ऐसे बालक का संस्कार कैसे और किस जाति के अनुसार करना चाहिये तथा वास्तव में वह किस वर्ण का है, यह कैसे जाना जाये एवं किस तरह और किस जाति की कन्या के साथ उसका विवाह करना चाहिये? यह मुझे बताइये।
भीष्म जी ने कहा- बेटा! जिसको माता-पिता ने त्याग दिया है, वह अपने स्वामी (पालक) पिता के वर्ण को प्राप्त होता है। इसलिये उसके पालन करने वाले को चाहिये कि वह अपने ही वर्ण के अनुसार उसका संस्कार करे। धर्म से कभी च्युत न होने वाले युधिष्ठिर! पालक पिता के सगोत्र बन्धुओं का जैसा संस्कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये, तथा उसी वर्ण की कन्या के साथ उसका विवाह भी कर देना चाहिए। बेटा! यदि उसकी माता के वर्ण और गोत्र का निश्चय हो जाये तो उस बालक का संस्कार करने के लिये माता के ही वर्ण और गोत्र को ग्रहण करना चाहिये। कानीन और अघ्यूढ ये दोंनों प्रकार के पुत्र निकृष्ट श्रेणी के ही समझे जाने योग्य हैं। इन दोनों प्रकार के पुत्रों को भी अपने ही समान संस्कार करे-ऐसा शास्त्र का निश्चय है। ब्राह्मण आदि को चाहिये कि ये क्षेत्रज, अपसद तथा अध्यूढ- इन सभी प्रकार के पुत्रों का अपने ही समान संस्कार करें। वर्णो के संस्कार के सम्बन्ध में धर्म शास्त्रों का ऐसा निश्चय देखा जाता है। इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्हें बतायीं। अब और क्या सुनना चाहते हो?[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-13
- ↑ निरुक्तज और प्रसृतज दोनों क्षेत्र के ही दो भेद हैं।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 49 श्लोक 14-28
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| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
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| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
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| त्रिवर्ग का निरूपण
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| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
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| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
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| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
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| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
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| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
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| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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