दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 107 में दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन हुआ है।[1]

यज्ञों का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा- महात्मा पितामह ने विधि पूर्वक यज्ञों का वर्णन किया और इहलोक तथा परलोक में जो उनके संपूर्ण गुण है, उनका भी यथावत रूप से प्रतिपादन किया। किंतु पितामह! दरिद्र मनुष्य उन यज्ञों का लाभ नहीं उठा सकता; क्योंकि उन यज्ञों के उपकरण बहुत हैं और अनेक प्रकार आयोजनों के कारण उनका विस्तार बहुत बढ़ जाता है। दादाजी! राजा अथवा राजपुत्र ही उन यज्ञों का लाभ ले सकते हैं। जिनके पास धन की कमी है, जो गुणहीन, एकाकी और असहाय हैं, वे उस प्रकार के यज्ञ नहीं कर सकते। इसलिये जिस कर्म का अनुष्ठान दरिद्रों, गुणहीनों, एकाकी और असहायों के लिये भी सुगम तथा बड़े-बड़े यज्ञों के समान फल देने वाला हो, उसी का मुझसे वर्णन कीजिये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! अंगिरा मुनि की बतलायी हुई जो उपवास की विधि है, वह यज्ञों के समान ही फल देने वाली है। उसका पुनः वर्णन करता हूं, सुनो! जो सबेरे और शाम को ही भोजन करता है, बीच में जल तक नहीं पीता तथा अहिंसा परायण होकर नित्य अग्निहोत्र करता है, उसे छः वर्षों में ही सिद्धि प्राप्त हो जाता है- इसमें संशय नहीं है। वह मनुष्य तपाये हुए सुवर्ण के समान कांतिमान विमान पाता है और अग्नि तुल्य तेजस्वी प्रजापति लोक में नृत्य तथा गीतों से गूंजते हुए देवांगनाओं के महल में एक पद्य वर्षों तक निवास करता है।

जो अपनी ही धर्मपत्नी में अनुराग रखते हुए तीन वर्षों तक प्रतिदिन एक समय भोजन करके रहता, उसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो बहुत सी सुवर्ण की दक्षिणा से युक्त इन्द्रिप्रिय यज्ञ का अनुष्ठान करता है तथा सत्यवादी, दानशील, ब्राह्मण भक्त, अदोषदर्शी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और क्रोधविजयी होता है। वह उत्तम गति को प्राप्त होता है। वह सफेद बादलों के समान चमकीले हंसोपलक्षित विमान पर वैठकर दो पद्म वर्षों तक समय समाप्त होने तक अप्सराओं के साथ वहाँ निवास करता है। जो मनुष्य नित्य अग्नि में होम करता हुए एक वर्ष तक प्रति दूसरे दिन एक वार भोजन करता है तथा प्रतिदिन अग्नि की उपासना में तत्पर रहकर नित्य सबेरे जागता है, वह अग्निष्टोम व्रत का फल पाता है।

लोको की प्रप्ति

वह मानव हंस और सारसों से जुते हुए विमान को पाता है और इन्द्रलोक में सुन्दरी स्त्रियों से घिरा हुआ निवास करता है। जो बारह महीनों तक प्रति तीसरे दिन एक समय भोजन करता, नित्य सबेरे उठता और अग्नि की परिचर्या में तत्पर हो नित्य अग्नि में आहुति देता है, वह अतिरात्र याग का उत्तम फल पाता है। उसे मोरों से जुता हुआ विमान प्राप्त होता है और वह सदा सप्तर्षियों के लोक में अप्सराओं के साथ निवास करता है। वहाँ तीन पद्य वर्षों तक वह निवास करता है। जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ बारह महीनों तक प्रति चौथे दिन बार भोजन करता है, वह वाजपेय यज्ञ का परम उत्तम फल पाता है। उस मनुष्य को देवकन्याओं से आरूढ़ विमान उपलब्ध होता है और वह पूर्व सागर के तट पर इन्द्रलोक में निवास करता है तथा वहाँ रहकर वह प्रतिदिन देवराज की क्रीड़ाओं को देखा करता है।[1]

जो बारह महीनों तक प्रति दिन अग्निहोत्र करता हुआ हर पांचवे दिन एक समय भोजन करता है और लोभहीन, सत्यवादी, ब्राह्मणभक्त, अहिंसक और अदोषदर्शी होकर सदा पाप कर्मों से दूर रहता है, उसे द्वादशाह यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वह सूर्य की किरण मालाओं के समान प्रकाशमान तथा जाम्बूनद नामक सुवर्ण के बनु हुए श्वेतकांति वाले हंस लक्षित दिव्य विमान पर आरूढ होता तथा चार, बारह एवं पैंतीष (कुल मिलाकर इक्यावन) पद्य वर्षों स्वर्गलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। जो बारह महीने तक सदा अग्निहोत्र करता, तीनों संध्याओं के समय स्नान करता, ब्रह्मचर्य का पालन करता, दूसरों के दोष नहीं देखता तथा मुनि वृत्ति से रहकर प्रति छठे दिन एक बार भोजन करता है, वह गोमेध यज्ञ का सर्वोत्तम फल पाता है।

उसे अग्नि की ज्वाला के समान प्रकाशमान, हंस और मयूरों से सेवित, सुवर्णजटित तक प्रति सातवें दिन एक समय भोजन करता, प्रतिदिन अग्नि में आहुति देता, वाणी को संयम में रखता और ब्रह्मचर्य का पालन करता एवं फूलों की माला, चंदन, मधु और मांस का सदा के लिये त्याग कर देता है वह पुरुष मरूदगणों तथा इन्द्र के लोकों में जाता है।

उन सभी स्थानों में सफल मनोरथ होकर वह देवकन्याओं द्वारा पूजित होता है तथा जिस यज्ञ में बहुत से सुवर्ण की दक्षिणा दी जाती है, उसके फल को वह प्राप्त कर लेता है और असंख्य वर्षों तक वह उन लोकों में आनन्द भोगता है। जो एक वर्ष तक प्रतिदिन आठवें दिन एक वार भोजन करता, सबके प्रति क्षमाभाव रखता, देवताओं के कार्य में तत्पर रहता और नित्यप्रति अग्निहोत्र करता है, उसे पौण्डरीक याग का सर्वश्रेष्ठ फल मिलता है। वह कमल के समान वर्ण वाले विमान पर चढ़ता है और वहाँ उसे श्यामवर्ण, सुवर्ण सदृश्‍य गौरवर्ण वाली, सोलह वर्ष की अवस्था वाली और नूतन यौवन तथा मनोहर रूप विलास से सोशोभित देवांगनाऐं प्राप्त होती हैं। इसमें संशय नहीं है। जो एक वर्ष तक नौ-नौ दिन तक एक समय भोजन करता है और बारह महीने प्रतिदिन अग्नि में आहुति देता है, उसे एक हजार अश्वमेध यज्ञ का परम उत्तम फल प्राप्त होता है। तथा वह पुण्डरीक के समान श्वेत वर्णों का विमान पाता है।

दीप्तिमान सूर्य और अग्नि के समान तेजस्विनी और दिव्य माला धारिणी रुद्र कन्याऐं उसे सनातन अंतरिक्ष लोक में ले जाती हैं और वहाँ वह एक कल्प लाख करोड़ एवं अठारह हजार वर्षों तक सुख भोगता है। जो एक वर्ष तक दस-दस दिन वीतने पर एक बार भोजन करता है और बारह महीनों प्रतिदिन अग्नि में आहुति देता है वह संपूर्ण भूतों के लिये मनोहर ब्रह्म कन्याओं के निवास स्थान में जाकर एक हजार अश्‍वमेध यज्ञों का परम उत्तम फल पाता है और उस सनातन पुरुष का वहाँ की रूपमति कन्याऐं मनोरंजन करती हैं।[2]

वह नीले और लाल कमल के समान अनेक रंगों से सुशोभित, मण्डलाकार घूमने वाले, भंवर के समान गहन चक्कर लगाने वाला, सागर की लहरों के समान ऊपर नीचे होने वाला, विचित्र मणिमालाओ से अलंकृत और शंख ध्वनि से परिपूर्ण सर्वोत्तम विमान प्राप्त करता है। उसमें स्फटिक और वज्रसारमणि के खंभे लगे होते हैं। उस पर सुंदर ढंग से बनी हुई वेदी शोभा पाती है तथा वहाँ हंस और सारस पक्षी कलरव करते हरते हैं। ऐसे विशाल विमान पर चढ़ता और स्वच्छंद घूमता है। जो बारह महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ प्रति ग्यारहवे दिन एक बार हविष्यान्न ग्रहण करता है, मन-वाणी से कभी परस्त्री की अभिलाषा नहीं करता है और माता-पिता के लिये भी कभी झूठ नहीं बोलता है, विमान में विराजमान परम शक्तिमान महादेव जी के समीप जाता और हजार अश्‍वमेध यज्ञों का सर्वोत्तम फल पाता है।

भीष्म द्वारा यज्ञतुल्य फल प्राप्ति

वह अपने पास ब्रह्मा जी का भेजा हुआ विमान स्वतः उपस्थित देखता है। सुवर्ण के समान रंग वाली रूपवति कुमारियां उसे उस विमान द्वारा द्युलोक में दिव्य मनोहर रुद्रलोक में ले जाती है। वहाँ वह प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी शरीर धारण करके असंख्या वर्षों तक एक लाख एक हजार करोड़ वर्षों तक निवास करता हुआ प्रतिदिन देवदानव-सम्मानित भगवान रुद्र को प्रणाम करता है। वे भगवान उसे नित्यप्रति दर्शन देते रहते है। जो बारह महीनों तक प्रति बारहवें दिन केवल हविष्यान्न ग्रहण करता है, ऐसे सर्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। उसके लिये बारह सूर्यो के समान तेजस्वी विमान प्रस्तुत किया जाता है। बहुमूल्य मणि, मुक्ता और मूंगे उस विमान की शोभा बढ़ाते हैं। हंस श्रेणी से परिवेष्टित और नाग वीथी से परिव्याप्त वह विमान करलव करते हुए मोरों और चक्रवाकों से सुशोभित तथा ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित है। उसके भीतर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाऐं बनी हुई हैं।

राजन! वह नित्य निवास स्थान अनेक नर-नारियों भरा हुआ होता है। यह बात महाभाग धर्मज्ञ ऋषि अंगिरा ने कही थी। जो बारह महीनों तक सदा तेरहवें दिन हविष्यान्न भोजन करता है उसे देवसत्र का फल प्राप्त होता है। उस मनुष्य को रक्तपद्योदय नामक विमान उपलब्ध होता है, जो सुवर्ण से जटित तथा रत्न समूह से विभूषित है। उसमें देवकन्याऐं भरी रहती हैं, दिव्य आभूषणों से विभूषित उस विमान की बड़ी शोभा होती है। उससे पवित्र सुगंध प्रकट होती रहती है तथा वह दिव्य विमान वायव्यास्त्र से शोभायमान होता है। वह व्रतधारी पुरुष दो शंख, दो पाताका (महापद्य), एक कल्प एवं एक चर्तुयुग तथा दस करोड़ एवं चार पद्य वर्षों तक ब्रह्मलोक में निवास करता है। वहाँ देवकन्याऐं गीत और वाद्यों के घोष तथा भेरी और पणव की मधुर ध्वनि से उस पुरुष को आनन्द प्रदान करती हुई सदा उसका पूजन करती हैं। जो बारह महीनों तक प्रति चौदहवें दिन हविष्यान्न भोजन करता है, वह महामेद्य यज्ञ का फल पाता है। जिनके यौवन तथा रूप का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी देवकन्याऐं तपाये हुए शुद्ध स्वर्ण के अंगद (बाजूबन्द) और अनान्य अलंकार धारण करके विमानों द्वारा उस पुरुष की सेवा में उपस्थित होती हैं। वह सो जाने पर कलहंसों के करलवों, नुपुरों की मधुर झनकारों तथा कांचि की मनोहर ध्वनियों द्वारा जगाया जाता है।[3]

वह मानव देवकन्याओं के उस निवास स्थान में उतने वर्षों तक निवास करता है, जितने कि गंगा जी में बालू के कण हैं। जो जितेन्द्रिय पुरुष बारह महीनों तक प्रति पन्द्रहवें दिन में एक बार खाता और प्रति दिन अग्निहोत्र करता है, वह एक हजार राजसूय यज्ञ का सर्वोत्तम फल पाता है और हंस तथा मोरों से सेवित दिव्य विमान पर आरूढ होता है। वह विमान सुवर्ण पत्र से जटित तथा मणिमय मण्डलाकार चिह्नों से विचित्र शोभासम्पन्न है। दिव्य वस्त्राभूषणों शोभायमान सुंदरी रमणियां उसे सुशोभित किये रहती है। उस विमान में एक ही खम्भा होता है, चार दरवाजे लगे होते हैं। वह सात तल्लों से युक्त एवं परम मंगलमय विमान सहस्रों वैजयन्ती पताकाओं से सुशोभित तथा गीतों की मधुर ध्वनि से व्याप्त होता है।

मणि, मोती और मूंगों से विभूषित वह दिव्य विमान विद्युत की सी प्रभा से प्रकासित तथा दिव्य गुणों सम्पन्न होता है। वह व्रतधारी पुरुष उसी विमान पर आरूढ़ होता है। उसमें गैंडे और हाथी जुते रहते हैं तथा वहाँ एकसहस्र युगों तक वह निवास करता है। जो बारह महीनों तक प्रति सोलहवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे सोम याग का फल मिलता है। वह साम-कन्याओं के महलों में नित्य निवास करता है, उसके अंगों मे सौम्य गंध युक्त अनुलेप लगाया जाता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ चाहता है, घूमता है। वह विमान पर विराजमान होता है तथा देखने में परम सुंदरी तथा मधुर भाषिनी दिव्य नारियां उसकी पूजा करती तथा उसे काम भोग का सेवन कराती हैं। वह पुरुष सौ पद्म वर्षों के समान दस महाकल्प तथा चार चर्तुयुगी तक अपने पुण्य का फल भोगता है। जो मनुष्य बारह महीनों तक प्रति दिन अग्निहोत्र करता हुआ सोलह दिन तक उपवास करके सत्रहवें दिन केवल हविष्यान्न भोजन करता है, वह वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरूत, शुक्राचार्य जी तथा ब्रह्मा जी के लोक में जाता है तथा उन लोकों में देवताओं की कन्याऐं आसन देकर उनकी पूजा करती हैं। वह पुरुष भूलोक, भुवर्लोक तथा विश्‍वरूपधारी देवर्षि का वहाँ दर्श करता है और देवाधिदेव की कुमारियां उसका मनोरंजन करती हैं। उनकी संख्या बत्तीस है। वे मनोहर रूप धारिणी, मधुर भाषिनी तथा दिव्य अलंकारों से अलंकृत होती हैं।

प्रभो! जब तक आकाश में चन्द्रमा और सूर्य विचरते हैं, तब तक वह धीर पुरुष सुधा एंव अमृत रस का भोजन करता हुआ ब्रह्मलोक में विहार करता है। जो लगातार बारह महीनों तक प्रति अठारहवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भूआदि सातों लोकों का दर्शन करता है। उसके पीछे आनन्दपूर्वक जयघोष करते हुए बहुत से तेजस्वी एवं सजे-सजाये रथ चलते हैं। उन रथों पर देवकन्याऐं बैठी होती हैं। उसके सामने व्याघ्र और सिंहों से जुता हुआ तथा मेघ के समान गंभीर गर्जना करने वाला दिव्य एवं उत्तम विमान प्रस्तुत होता है, जिस पर वह अत्यंत सुखपूर्वक आरोहण करता है। उस दिव्य लोक में वह एक हजार कल्पों तक दिव्य कन्याओं के साथ आनन्द भोगता और अमृत समान उत्तम सुधारस का पान करता है। जो लगातर बारह महीनों तक उन्नीसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भी भूआदि सातों लोकों का दर्शन करता है। उसे अप्सराओं द्वारा सेवित उत्तम स्थान-गन्धर्वों के गीतों से गूंजता हुआ सूर्य के समान तेजस्वी विमान प्राप्त होता है।[4]

उपवास-व्रत के फल प्राप्ति वर्णन

उस विमान में वह सुंदरी देवांगनाओं के साथ आनन्द भोगता है। उसे कोई चिंता तथा रोग नहीं सताते। दिव्य वस्त्रधारी और श्रीसम्पन्न रूप धारण करके वह दस करोड़ वर्षों तक वह वहाँ निवास करता है। जो लगातार जो लगातर बारह महीनों तक पूरे वीस दिन पर एक बार भोजन करता, सत्य बोलता, व्रत का पालन करता, मांस नहीं खाता, ब्रह्मचर्य का पालन करता तथा समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहता है, वह सूर्य देव के विशाल एवं रमणीय लोकों में जाता है। उसके पीछे-पीछे दिव्य माला और अनुलेपन धारण करने वाले गन्धर्वों तथा अप्सराओं से सेवित सोने के मनोरम विमान चलते हैं। जो लगातार बारह महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ एक्कीसवें दिन तक एक बार भोजन करता है, वह शुक्राचार्य तथा इन्द्र के दिव्यलोक में जाता है। इतना ही नहीं, उसे अश्विनीकुमारों और मरूदगणों के लोंकों की भी प्राप्ति होती है। उन लोकों में वह सदा सुख भोगने में ही तत्पर रहता है। दुःखों का तो वह नाम भी नहीं जानता है और श्रेष्ठ विमान पर विराजमान हो सुन्दरी स्त्रियों से सेवित होता हुआ शक्तिशाली देवता के समान क्रीड़ा करता है।

जो बारह महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ बाईसवां दिन प्राप्त होने पर एक बार भोजन करता है तथा अहिंसा में तत्पर, बुद्धिमान, सत्यवादी और दोषदृष्टि से रहित होता है, वह सूर्य के समान तेजस्वी रूप धारण करके श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ हो वसुओं के लोक मे जाता है। वहाँ इच्छानुसार विचरता, अमृत पीकर रहता और दिव्य आभूषणों से विभूषित हो देवकन्याओं के साथ रमण करता है। जो बारह महीनों तक मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर तेईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह वायु, शुक्राचार्य तथा रुद्र के लोक में जाता है। वहाँ अनेक गुणों से युक्त श्रेष्ठ विमान पर आरूढ हो इच्छानुसार विचरता, जहाँ इच्छा होती वहाँ जाता और अप्सराओं द्वारा पूजित होता है। उन लोकों में वह दिव्य आभूषणों से विभूषित हो देवकन्याओं के साथ रमण करता है। जो लगातार बारह महीनों अग्निहोत्र करता हुआ चौबीसवें दिन एक बार हविषन्न भोजन करता है, वह दिव्य माला, दिव्य वस्त्र, दिव्य गंध तथा दिव्य अनुलेपन धारण करके सुदीर्घ काल तक आदित्य लोक में सानन्द निवास करता है।

वहाँ हंसयुक्त मनोरम एवं दिव्य सुवर्णमय विमान पर सहस्रों तथा अयुतों देवकन्याओं के साथ रमण करता है। जो लगातार बारह महीनों तक पचीसवें दिन तक एक बार भोजन करता है, उसको सवारी के लिये बहुत-से विमान या वाहन प्राप्त होते हैं। उसके पीछे सिंहों और व्याघ्रों से जुते हुए तथा मेघों की गम्भीर गर्जना से निनादित बहुसंख्यक रथ सानन्द विजयघोष करते हएु चलते हैं। उन सुवर्णमय, निर्मल एवं मंगलकारी रथों पर देवकन्याऐं आरूढ़ होती हैं। वह दिव्य, उत्तम एवं मनोहर विमान पर विराजमान हो सैकड़ों सुन्दरियों से भरे हुए महल में सहस्र कल्पों तक निवास करता है। वहाँ देवताओं के भोज्य अमृत के समान उत्तम सुधारस को पीकर वह जीवन बिताता है। जो लगातार बारह महीनों तक मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर मिताहारी हो छब्बीसवें दिन एक बार भोजन करता है तथा बीतराग और जितेन्द्रिय हो प्रतिदिन अग्नि में आहुति देता है, वह महाभाग मनुष्य अप्सराओं से पूजित हो सात मरूदगणों और आठ वसुओं के लोकों में जाता है।[5]

सम्पूर्ण रत्नों से अलंकृत स्फटिक मणिमय दिव्य विमानों से सम्पन्न हो गन्धर्वों और अप्सराओं द्वारा पूजित होता हुआ दिव्य तेज से युक्त हो देवताओं के दो हजार दिव्य युगों तक वह उन लोकों में आनन्द भोगता है। जो बाहर महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ हर सत्ताईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह प्रचुर फल का भागी होता और देवलोक में सम्मान पाता है। वहाँ उसे अमृत का आहार प्राप्त होता है तथा वह तृष्णारहित हो वहाँ रहकर आनन्द भोगता है।

राजन! वह दिव्यरूपधारी पुरुष राजर्षियों द्वारा वर्णित देवर्षियों के चरित्र का श्रवण-मनन करता है और श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ हो मनोरम सुन्दरियों के साथ मदोन्मत्त भाव से रमण करता हुआ तीन हजार युगों एवं कल्पों तक वहाँ सुखपूर्वक निवास करता है। जो बारह महीनों तक सदा अपने मन और इन्द्रियों को काबू में रखकर अठ्ठाईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह देवर्षियों को प्राप्त होने वाले महान फल का उपभोग करता है। वह भोग से सम्पन्न हो अपने तेज से निर्मल सूर्य की भाँति प्रकाशित होता है और सुन्दर कान्तिवाली, पीन, उरोज, जांघ और जघन प्रदेश वाली, दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित सुकुमारी रमणियां सूर्य के समान प्रकाशित और सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने वाले मनोरम दिव्य विमान पर बैठ कर उस पुण्यात्मा पुरुष का दस लाख कल्पों के वर्षों तक मनारंजन करती है। जो बारह महीनों तक सदा सत्यव्रत के पालन में तत्पर हो उन्तीसवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे देवर्षियों तथा राजर्षियों द्वारा पूजित दिव्य मंगलमय लोक प्राप्त होते हैं। वह सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित, सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित तथा आवश्‍यक सामग्रियों से युक्त सुवर्णमय दिव्य विमान प्राप्त करता है। उस विमान में अप्सराऐं भरी रहती हैं, गन्धर्वों के गीतों की मधुर ध्वनि से वह विमान गूंजता रहता है, उस विमान में दिव्य आभूषणों से विभूषित, शुभ लक्ष्मण सम्पन्न, मनोभिराम, मदमत्त एवं मधुरभाषिणी रमणियां उस पुरुष का मनोरंजन करती हैं।

वह पुरुष भोगसम्पन्न, तेजस्वी, अग्नि के समान दीप्तिमान, अपने दिव्य शरीर से देवता की भाँति प्रकाशमान तथा दिव्यभाव से युक्त हो वसुओं, मरूद्गणों, साध्यगणों, अश्विनीकुमारों, रुद्रों तथा ब्रह्माजी के लोक में भी जाता है। जो बारह महीनों तक प्रत्येक मास व्यतीत होने पर तीसवें दिन एक बार भोजन करता और सदा शान्तभाव से रहता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। वह वहाँ सुधारस का भोजन करता और सबके मन को हर लेने वाला कान्तिमान् रूप धारण करता है। वह अपने तेज, सुन्दर शरीर तथा अंगकान्ति से सूर्य की भाँति प्रकाशित होता है। दिव्यमाला, दिव्यवस्त्र, दिव्यगन्ध और दिव्य अनुलेपन धारण करके वह भोग की शक्ति और साधन से सम्पन्न हो सुख-भोग में ही रत रहता है। दुःखों का उसे कभी अनुभव नहीं होता है। वह विमान पर आरूढ़ हो अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होने वाली दिव्य नारियों द्वारा सम्मानित होता है। रुद्रों तथा देवर्षियों की कन्याऐं सदा उसकी पूजा करती हैं। वे कन्याऐं नाना प्रकार के रमणीय रूप, विभिन्न प्रकार के राग, भाँति-भाँति की मधुर भाषणकला तथा अनेक तरह की रति-क्रीड़ाओं से सुशोभित होती हैं।[6]

जिस विमान पर विराजमान होता है, वह आकाश के समान विशाल दिखायी देता है। सूर्य और वैदर्यमणि के समान, वामभाग मेघ के सदृष दाहिना भाग लाल प्रभा से युक्त, निचला भाग नीलमण्डल के समान तथा ऊपर का भाग अनेक रंगों के सम्मिश्रण से विचित्र-सा प्रतीत होता है। उसमें वह अनेक नर-नारियों के साथ सम्मानित होकर रहता है।

मेघ जम्बूद्वीप में जितने जलबिन्दुओं की वर्षा करता है, उतने हजार वर्षों तक उस बुद्धिमान पुरुष का ब्रह्मलोक में निवास बताया गया है। वर्षा-ऋतु में आकाश से धरती पर जितनी बूंदें गिरती हैं, उतने वर्षों तक वह देवोपम तेजस्वी पुरुष ब्रह्मलोक में निवास करता है। दस वर्षों तक एक-एक मास उपवास करके एकतीसवें दिन भोजन करने वाला पुरुष उत्तम स्वर्गलोक को जाता है। वह महर्षि पद को प्राप्त होकर सषरीर दिव्यलोक की यात्रा करता है। जो मनुष्य सदा मुनि, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, शिश्‍न और उदर के वेग को सदा काबू में रखने वाला, नियम पूर्वक तीनों अग्नियों में आहुति देने वाला और संध्योपासना में तत्पर रहने वाला है तथा जो पवित्र होकर इन पहले बताये हुए अनेक प्रकार के नियमों के पालन पूर्वक भोजन करता है, वह आकाश के समान निर्मल होता है और उसकी कान्ति सूर्य की प्रभा के समान प्रकाशित होती है।

राजन! ऐसे गुणों से युक्त देवता के समान अपने शरीर के साथ ही देवलोक में जाकर वहाँ इच्छा के अनुसार स्वर्ग के पुण्यफल का उपभोग करता है। भरतश्रेष्ठ! यह तुम्हें यज्ञों का उत्तम विधान क्रमश: विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसमें उपवास के फल पर प्रकाश डाला गया है। कुन्तीदन्दन! द्ररिद्र मनुष्यों ने इन उपवासात्मक व्रतों का अनुष्ठान करके यज्ञों का फल प्राप्त किया है। भरतश्रेष्ठ! देवताओं और ब्राह्मण की पूजा में तत्पर रहकर जो इन उपवासों का पालन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। भारत! नियमशील, सावधान, शौचाचार से सम्पन्न, महामस्वी, दम्भ और द्रोह से रहित, विशुद्ध बुद्वि, अचल और स्थिर स्वभाव वाले मनुष्यों के लिये मैंने यह उपवास की विधि विस्तारपूर्वक बतायी है। इस विषय में तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-21
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 22-45
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 46-67
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 68-88
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 89-111
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 112-131
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 132-144

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युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना | भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन | प्रजापति मनु के वंश का वर्णन | अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय | विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न | अजमीढ के वंश का वर्णन | विश्वामित्र के जन्म की कथा | विश्वामित्र के पुत्रों के नाम | इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद | दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन | कर्मों के फल का वर्णन | श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा | ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन | शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा | लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन | भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन | स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान | भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश | भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध | श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन | उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान | उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या | उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति | उपमन्यु को महादेव का वरदान | श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन | शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान | महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना | महात्मा तण्डि को महादेव का वरदान | उपमन्यु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र का वर्णन | शिवसहस्रनामस्तोत्र पाठ का फल | ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना | श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन | अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान | कुबेर द्वारा अष्टावक्र का स्वागत-सत्कार | अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद | अष्टावक्र का वदान्य ऋषि की कन्या से विवाह | युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर | श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण | देवता और पितरों के कार्य में आमन्त्रण देने योग्य पात्रों का वर्णन | नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन | ब्रह्महत्या के समान पापों का निरूपण | विभिन्न तीर्थों के माहात्मय का वर्णन | गंगाजी के माहात्म्य का वर्णन | ब्राह्मणत्व हेतु तपस्यारत मतंग की इन्द्र से बातचीत | इन्द्र द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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