जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 66 में जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का वर्णन हुआ है[1]-

ब्राह्मण को जूते तथा शकट दान से लाभ

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। गर्मी के दिनों में जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे ब्राह्मण को जो जूते पहनाता है, उसका जो फल मिलता है, वह मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर। जो एकाग्रचित्त होकर ब्राह्मणों के लिये जूते दान करता है, वह सब कंटकों को मसल डालता है और कठिन विपत्ति से भी पार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह शत्रुओं के ऊपर विराजमान होता है। प्रजानाथ। उस जन्मान्तर में खच्चरियों से जुता हुआ उज्ज्वल रथ प्राप्त होता है। कुन्तीकुमार। जो नये बैलों से युक्त शकट दान करता है, उसे चांदी और सोने से जटित रथ प्राप्त होते हैं।

ब्राह्मण को तिल दान करने का माहात्म्य

युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन। तिल, भूमि, गौ और अन्न का दान करने से क्या फल मिलता है? इसका फिर से वर्णन कीजिये। भीष्म जी ने कहा- कुन्तीनन्दन। कुरुश्रेष्ठ। तिलदान का जो फल है वह मुझसे सुनो और सुनकर यथोचित रूप से उसका दान करो। ब्रह्माजी ने जो तिल उत्पन्न किये हैं, वे पितरों के सर्वश्रेष्ठ खाद्य पदार्थ हैं। इसलिये तिल दान करने से पितरों को बड़ी प्रसन्नता होती है। जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता। जो तिलों के द्वारा पितरों का पूजन करता है, वह मानो सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है। तिल-श्राद्ध कभी निष्काम पुरुष को नहीं करना चाहिये। प्रभो। यह तिल महर्षि कश्‍यप के अंगों से प्रकट होकर विस्तार को प्राप्त हुए है; इसलिये दान के निमित्त इनमें दिव्यता आ गयी है। तिल पौष्टिक पदार्थ है। वे सुन्दर रूप देने वाले और पाप नाशक हैं इसलिये तिल-दान सब दानों से बढ़कर है। परम बुद्धिमान महर्षि आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम- ये तिलों का दान करके दिव्य लोक को प्राप्त हुऐ हैं। वे सभी ब्राह्मण स्त्री-समागम से दूर रहकर तिलों का हवन किया करते थे, तिल गौर घृत के समान हवी के योग्य माने गये हैं इसलिये यज्ञों में गृहित होते हैं एवं हरेक कर्मों में उनकी आवश्‍यकता है। अतः तिल दान सब दानों से बढ़कर है। तिल दान यहाँ सब दानों में अक्षय फल देने वाला बताया जाता है। पूर्व काल में परंतप राजर्षि कुशिक हविष्य समाप्त हो जाने पर तिलों से ही हवन करके तीनों अग्नियों को तृप्त किया था; इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई। कुरुश्रेष्ठ। इस प्रकार जिस विधि के अनुसार तिल दान करना उत्तम बताया गया है वह सर्वोत्तम तिल दान का विधान यहाँ बताया गया। महाराज इसके बाद यज्ञ की इच्छा वाले देवताओं और स्वयम्भू ब्रह्मा जी के समागम होने पर उनमें परस्पर जो बात चीत हुई थी, उसे बता रहा हूँ इस पर ध्यान दो। पृथ्वीनाथ। भूतल के किसी भाग में यज्ञ करने की इच्छा वाले देवता ब्रह्मा जी के पास जाकर किसी शुभ देश की याचना करने लगे, जहाँ यज्ञ कर सके।

ब्राह्मण को भूमि दान से लाभ

देवता बोले- भगवन। महाभाग। आप पृथ्वी और सम्पूर्ण स्वर्ग के स्वामी हैं; अतः हम आपकी आज्ञा लेकर पृथ्वी पर यज्ञ करेंगे। क्योंकि भूस्वामी जिस भूमि पर यज्ञ करने की अनुमति नहीं देता, उस भूमि पर यदि यज्ञ किया जाये तो उसका फल नहीं होता। आप सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी हैं; अतः पृथ्वी पर यज्ञ करने के लिये हमें आज्ञा दीजिये।

ब्रह्मा जी ने कहा- काश्यपनन्दन सुरश्रेष्ठगण। तुम लोग पृथ्वी के जिस प्रदेश में यज्ञ करोगे वही भूभाग मैं तुम्हें दे रहा हूँ।

देवताओं ने कहा- भगवन। हमारा कार्य हो गया। अब हम पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञ पुरुष का यजन करेंगे। यह जो हिमालय के पास का प्रदेश है, इसका ऋषि-मुनि सदा से ही आश्रय लेते हैं (अतः हमारा यज्ञ भी यहीं होगा)। तदनन्तर अगस्त्य, कण्व, भृगु, अत्रि, वृषाकपि, असित और देवल देवताओं के उस यज्ञ में उपस्थित हुए। तब महामनस्वी देवताओं ने यज्ञ पुरुष अच्युत का यजन आरम्भ किया और उन श्रेष्ठ देवगणों ने यथा समय यज्ञ को समाप्त भी कर दिया। पर्वत राज हिमालय के पास यज्ञ पूरा करके देवताओं ने भूमि दान भी दिया, जो उस यज्ञ के छठे भाग के बराबर पुण्य का जनक था। जिसको खोद खाद कर खराब न कर दिया गया हो ऐसे प्रादेश मात्र भूभाग का जो दान करता है, वह न तो दुर्गम संकटों में पड़ता और न पड़ने पर कभी दुःखी ही होता है। जो सर्दी, गर्मी और हवा के वेग को सहन करने योग्य सजी-सजायी गृह-भूमि दान करता है, वह देवलोक में निवास करता है। पुण्य का भोग समाप्त होने पर भी वहाँ से हटाया नहीं जाता। पृथ्वीनाथ जो विद्वान गृह दान करता है वह भी उसके पुण्य से इन्द्र के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता और स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। अध्यापक-वंश में उत्पन्न श्रोत्रिय एवं जितेन्द्रिय ब्राह्मण जिसके दिये हुए घर में प्रसन्नता से रहता है, उसे श्रेष्ठ लोक प्राप्त होते हैं। भरतश्रेष्ठ। जो गौओं के लिये सर्दी और वर्षा से बचाने वाला सुदृद्व निवास स्थान बनवाता है वह अपनी सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। खेत के योग्य भूमि दान करने वाला मनुष्य जगत में शुभ संपत्ति प्राप्त करता है और जो रत्न युक्त भूमि का दान करता है, वह अपने कुल की वंश-परंपरा को बढ़ाता है। जो भूमि ऊसर, जली हुई और श्मशान के निकट हो तथा जहाँ पापी पुरुष निवास करते हों उसे ब्राह्मण को नहीं देना चाहिये। जो परायी भूमि में पितरों के लिये श्राद्ध करता है, अथवा जो उस भूमि को पितरों के लिये दान में देता है, उसके वे श्राद्ध कर्म और दान दोनों ही नष्ट (निष्फल हो जाते) हैं। अतः विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह थोड़ी-सी भी भूमि खरीद कर उसका दान करें। खरीद कर अपनी की हुई भूमि में ही पितरों को दिया हुआ पिण्ड सदा स्थिर रहने वाला होता है। वन, पर्वत, नदी और तीर्थ- ये सब स्थान किसी स्वामी के अधीन नहीं होते हैं।[2] इसलिये वहाँ श्राद्ध करने के लिये भूमि खरीदने की आवश्‍यकता नहीं है। प्रजानाथ। इस प्रकार यह भूमिदान का फल बताया गया है।

गौ दान से प्राप्त फल

अनघ। इसके बाद में तुम्हें गौ दान का माहात्मय बताऊंगा। गौऐं समस्त तपस्वियों से बढ़ कर हैं; इसलिये भगवान शंकर ने गौओं के साथ रहकर तप किया था। भारत। ये गौऐं चन्द्रमा के साथ उस ब्रह्मलोक में निवास करती हैं जो परमगति रूप हैं और जिसे सिद्व ब्रह्मर्षि भी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। भरतनन्दन। ये गौऐं अपने दूध, दही, घी, गोबर, चमड़ा, हड्डी, सींग और बालों से भी जगत का उपकार करती रहती हैं। इन्हें सर्दी, गर्मी और वर्षा का भी कष्ट नहीं होता है। ये सदा ही अपना काम किया करती हैं। इसलिये ये ब्राह्मणों के साथ परम पद स्वरूप ब्रह्मलोक में चली जाती हैं। इसी से गौ और ब्राह्मण को मनस्वी पुरुष एक बताते हैं। राजन। राजा रन्तिदेव के यज्ञ में वे पशु रूप से दान देने के लिये निश्चित की गयी थीं; अतः गौओं के चमड़ों से वह चर्मनवती नामक नदी प्रवाहित हुई थी। वे सभी गौऐं पशुत्व से विमुक्त थीं और दान देने के लिये नियत की गयी थीं।[3]

भूपाल। पृथ्वीनाथ। जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों को इन गौओं का दान करता है वह संकट में पड़ा हो तो भी उस भारी विपत्ति से उद्धार पा लेता है। जो एक सहस्र गौ दान कर देता है वह मरने के बाद नरक में नहीं पड़ता। नरेश्‍वर। उसे सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। देवराज इन्द्र ने कहा कि ‘गौओं का दूध अमृत है’ जो दूध देने वाली गौ का दान करता है, वह अमृत दान करता है। वेदवेत्ता पुरुषों का अनुभव है कि ‘गौ दुग्ध रूप हविष्य का यदि अग्नि में हवन किया जाये तो वह अविनाशी फल देता है’। अतः जो धेनू दान करता है वह हविष्य का ही दान करता है। बैल स्वर्ग का मूर्तिमान स्वरूप है। जो गौओं के पति-सांड का गुणवान ब्राह्मण को दान करता है, वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतश्रेष्ठ। ये गौऐं प्राणियों[4] के प्राण कहलाती हैं; इसलिये जो दूध देने वाली गौओं का दान करता है, वह मानो प्राणों का दान देता है। वेदवेत्ता विद्वान ऐसा मानते हैं कि ‘गौऐं समस्त प्राणियों का शरण देने वाली हैं’ इसलिये जो धेनू दान करता है, वह सबको शरण देने वाला है। भरतश्रेष्ठ। जो मनुष्य वध करने के लिये गौ मांग रहा हो, उसे कदापि गाय नहीं देनी चाहिये। इसी प्रकार कसाई को, नास्तिक को, गाय से ही जीविका चलाने वाले को, गौरस बेचने वाले और पंचयज्ञ न करने वाले को भी गाय नहीं देनी चाहिये। ऐसे पाप कर्मी मनुष्यों को जो गाय देता है, वह मनुष्य अक्षय नरक में गिरता है, ऐसा महर्षियों का कथन है। जो दुबली हो, जिसका बछड़ा मर गया हो तथा जो ठांठ, रोगिनी, किसी अंग से हीन और थकी हुई (बूढ़ी) हो, ऐसी गौ ब्राह्मण को नहीं देनी चाहिये। दस हजार गौ दान करने वाला मनुष्य इन्द्र के साथ रहकर आनन्द भोगता है और जो लाख गौओं का दान कर देता है, उस मनुष्य को अक्षय लोक प्राप्त होते हैं।

भीष्म द्वारा अन्न दान का वर्णन

भारत। इस प्रकार गौ दान, तिलदान और भूमिदान का महत्त्व बतलाया गया। अब पुनः अन्न दान की महमा सुनो। कुन्तीनन्दन। विद्वान पुरुष अन्न दान को सब दानों में प्रधान बताते हैं। अन्न दा करने से ही राजा रन्तिदेव स्वर्गलोक में गये थे। नरेश्‍वर। जो भूमिपाल थके-मांदे और भूखे मनुष्य को अन्न देता है, वह ब्रह्मा जी के परम धाम में जाता है। भरतनन्दन। प्रभो। अन्न दान करने वाले मनुष्य जिस तरह कल्याण के भागी होते हैं, वैसा कल्याण उन्हें सुवर्ण, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं के दान से नहीं प्राप्त होता है। अन्न प्रथम द्रव्य है। वह उत्तम लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। अन्न से ही प्राण, तेज, वीर्य और बल की पुष्टि होती है। पराशर मुनि का कथन है कि ‘जो मनुष्य सदा एकाग्रचित्त होकर याचक को तत्काल अन्न का दान करता है, उस पर कभी दुर्गम संकट नहीं पड़ता। राजन। मनुष्य को प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि से देवताओं के पूजा करके उन्हें अन्न निवेदन करना चाहिये। जो पुरुष जिस अन्न का भोजन करता है, उसके देवता भी वही अन्न ग्रहण करते हैं। जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में अन्न का दान करता है, वह दुर्गम संकट से पार हो जाता है और मरकर अक्षय सुख का भागी होता है।

भरतश्रेष्ठ। जो पुरुष एकाग्रचित्त हो स्वयं भूखा रहकर अतिथि को अन्न दान करता है, वह ब्रह्मवेत्ताओं के लोक में जाता है। अन्नदाता मनुष्य कठिन-से-कठिन आपत्ति में पड़ने पर भी उस आपत्ति से पार हो जाता है। वह पाप से उद्धार पा जाता है और भविष्य में होने वाले दुष्कर्मों का भी नाश कर देता है। इस प्रकार मैंने यह अन्नदान, तिलदान, भूमिदान और गौदान का फल बताया है।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-21
  2. इन्हें सार्वजनिक माना जाता है
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 22-43
  4. को दूध पिलाकर पालने के कारण उन
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 44-65

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शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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