- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 106 में मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा भीष्म से अनुरोध
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! सभी वर्णों और म्लेच्छ जाति के लोग भी उपवास में मन लगाते हैं, किंतु इसका क्या कारण है? यह समझ में नहीं आता। पितामह! सुनने में आया है कि ब्राह्मण और क्षत्रियों को नियमों का पालन करना चाहिये; परंतु उपवास करने से किस प्रकार उनके प्रयोजन की सिद्धि होती है, यह नहीं जान पड़ता है। पृथ्वीनाथ! आप कृपा करके हमें सम्पूर्ण नियमों और उपवासों की विधि बताइये। तात! उपवास करने वाला मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है। नरेश्रेष्ठ! कहते हैं, उपवास बड़ा पुण्य है और उपवास सबसे बड़ा आश्रय है; परंतु उपवास करके यहाँ मनुष्य यहाँ कौन सा फल पाता है?
भरतश्रेष्ठ! मनुष्य किस कर्म के द्वारा पाप से छुटकारा पाता है और क्या करने से किस प्रकार उसे धर्म की प्राप्ति होती है? वह पुण्य और स्वर्ग कैसे पाता है? नरेश्वर! उपवास करके मनुष्य को किस वस्तु का दान करना चाहिये? जिस धर्म से सुख और धन की प्राप्ति हो सके, वही मुझे बताइये।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! धर्मज्ञ धर्मपुत्र कुन्ती कुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर धर्म के तत्त्व को जानने वाले शांतनुनन्दन भीष्म ने उनसे इस प्रकार कहा।
भीष्म जी ने कहा- राजन! भरतश्रेष्ठ! उपवास करने में जो श्रेष्ठ गुण है, उनके विषय में मैंने प्राचीन काल में इस तरह सुन रखा है। भारत! जिस तरह आज तुमने मुझसे प्रश्न किया है इसी प्रकार मैंने भी पूर्व काल में तपोधन अंगिरा मुनि से प्रश्न किया था। भरतभूषण। जब मैंने यह प्रश्न पूछा तब अग्निनन्दन भगवान अंगिरा ने मुझे उपवास की पवित्र विधि इस प्रकार बताई।
अंगिरा द्वारा व्रतोपवास फल का वर्णन
अंगिरा बोले- कुरुनन्दन! ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिये तीन रात उपवास करने का विधान है। कहीं-कहीं दो त्रिरात्र और एक दिन अर्थात कुल सात दिन उपवास करने का संकेत मिला है। वैश्यों और सूद्रों ने जो मोहवश तीन रात अथवा दो रात का उपवास किया है, उसका उन्हें कोई फल नहीं मिला है। वैश्य और सूद्र के लिये चौथे समय तक के भोजन के त्याग करने का विधान है। अर्थात उन्हें केवल दो दिन और दो रात्रि तक उपवास करना चाहिये; क्योंकि धर्मशास्त्र के ज्ञाता एवं धर्मदर्शी विद्वानों के उनके लिये तीन रात तक उपवास करने का विधान नहीं किया है।
भारत! यदि मनुष्य पंचमी, षष्ठी और पूर्णिमा के दिन अपने मन और इन्द्रियां को काबू में रखकर एक वक्त भोजन करके दूसरे वक्त उपवास करे तो वह क्षमावान, रूपवान और विद्ववान होता है। वह बुद्धिमान पुरुष कभी संतानहीन या दरिद्र नहीं होता है। करूनन्दन! जो पुरुष भगवान की आराधना को इच्छुक होकर पंचमी, षष्ठी, अष्टमी तथा कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को अपने घर पर ब्राह्मण को भोजन कराता है और स्वयं उपवास करता है, वह रोग रहित और बलवान होता है। जो मार्गशीर्ष मास को एक समय भोजन करके बिताता है और अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह रोग और पापों से मुक्त हो जाता है।[1]
वह सब प्रकार के कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा सब तरह की औषधियों (अन्न-फल आदि) से भरा-पूरा होता है। मार्गशीर्ष मास में उपवास करने से मनुष्य दूसरे जन्म में रोग रहित और बलवान होता है। उसके पास खेती-बारी की सुविधा रहती है तथा वह बहुत धन-धान्य से सम्पन्न होता है। कुन्तीनन्दन। जो पौष मास को एक वक्त भोजन करके बिताता है वह सौभाग्यशाली, दर्शनीय और यश का भागी होता है। जो माघ मास को नियम पूर्वक एक समय के भोजन से व्यतीत करता है, वह धनवान कुल जन्म लेकर अपने कुटुम्बीजनों में महत्त्व को प्राप्त होता है।
फाल्गुन मास को एक समय भोजन करते व्यतीत करता है, वह स्त्रियों को प्रिय होता है और वे उसके अधीन रहती हैं। जो नियम पूर्वक रहकर चैत्रमास को एक समय भोजन करते बिताता है, वह सुवर्ण, मणि और मोतियों से सम्पन्न महान कुल में जन्म लेता है। जो स्त्री अथवा पुरुष इन्द्रिय संयम पूर्वक एक समय भोजन करके वैशाख मास को पार करता है, वह सहजातीय बन्धु-बान्धवों में श्रेष्ठता को प्राप्त होता है। जो एक समय ही भोजन करके ज्येष्ठ मास को बिताता है वह स्त्री हो या पुरुष, अनुपम श्रेष्ठ एश्वर्य को प्राप्त होता है। जो आषाढ़ मास में आलस्य छोड़कर एक समय भोजन करके रहता है वह बहुत से धन-धान्य और पुत्रों से सम्पन्न होता है। जो मन और इन्द्रियो को संयम में रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावण मास को बिताता है, वह विभिन्न तीर्थ में स्नान करने के पुण्य फल से युक्त होता और अपने कुटुम्बीजनों की वृद्धि करता है। जो मनुष्य भाद्रपद में एक समय भोजन करके रहता वह गौधन से सम्पन्न, समृद्धिशील तथा अविचल समृद्धि का भागी होता है। जो आश्विन मास को एक समय भोजन करके बिताता है, वह पवित्र, नाना प्रकार के वाहनों से सम्पन्न तथा अनेक पुत्रों से युक्त होता है। जो मनुष्य कार्तिक मास में एक समय भोजन करता है, वह शूरभीर, अनेक भार्याओं से संयुक्त और कीर्तिमान होता है।
पुरुषसिंह! इस प्रकार मैंने मासपर्यन्त एक भुक्त व्रत करने वाले मनुष्यों के लिये विभिन्न मासों के फल बताये हैं। पृथ्वीनाथ! अब तिथियों के जो नियम हैं, उन्हें भी सुन लो। भरतनन्दन! जो पन्द्रह-पन्द्रह दिन पर भोजन करता है, वह गौधन से सम्पन्न और बहुत से पुत्र तथा स्त्रियों से युक्त होता है। जो बारह वर्षों तक प्रतिमास अनेक त्रिरात्र व्रत करता है, वह भगवान षिव के गणों का निष्कंटक एवं निर्मल आधिपत्य प्राप्त करता है। भरतश्रेष्ठ! प्रवृतिमार्ग का अनुशरण करने वाले पुरुष को ये सभी नियम बारह वर्षों तक पालन करने चाहिये। जो मनुष्य प्रतिदिन सबेरे और साम को भोजन करता है, बीच में जल तक नहीं पीता तथा सदा अहिंसा परायण होकर नित्य अग्निहोत्र करता है, उसे छः वर्षो में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसमें संशय नहीं है तथा नरेश्वर। वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। वह पुण्यात्मा एवं रजोगुण रहित पुरुष सहस्रों दिव्य रमणियों से भरे हुए अप्सराओं के महल में, जहाँ नृत्य और गीत ध्वनि गूंजती रहती है, रमण करता है।[2]
इतना ही नहीं, वह तपाये हुए सुवर्ण के समान कांतिमान विमान पर आरूढ़ होता है और पूरे एक हजार वर्षों तक ब्रह्मलोक में सम्मान पूर्वक रहता है। पुण्य क्षीण होने पर इस लोक में आकर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है। जो मानव पूरे एक वर्ष तक प्रतिदिन एक बार भोजन करके रहता है, वह अतिरात्र यज्ञ का फल भोगता है। वह पुरुष दस हजार वर्षों तक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। फिर पुण्य क्षीण होने पर इस लोक में आने पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है। जो पूरे एक वर्ष तक दो-दो दिन पर भोजन करके रहता है तथा साथ ही अहिंसा, सत्य और इन्द्रिय संयम का पालन करता है, वह वाजपेय यज्ञ का फल पाता है और दस हजार वर्षों तक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
कुन्तीनन्दन! जो एक साल तक छठे समय अर्थात तीन-तीन दिनों पर भोजन करता है, वह मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। वह चक्रवाकों द्वारा वहन किये हुए विमान से स्वर्गलोक में जाता है और वहाँ चालीस हजार वर्षों तक आनन्द भोगता है। नरेश्वर! जो मनुष्य चार दिनों पर भोजन करता हुआ एक वर्ष तक जीवन धारण करता है, उसे गवामय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वह हंस और सारसों से जुते हुए विमान द्वारा जाता है और पचास हजार वर्षों तक स्वर्गलोक में स्वर्ग भोगता है।
राजन! जो एक-एक पक्ष बीतने पर भोजन करता है और इसी तरह एक वर्ष पूरा कर देता है, उसको छः मास तक अनशन करने का फल मिलता है। ऐसा भगवान अंगिरा मुनि का कथन है। प्रजानाथ! वह साठ हजार वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है और वहाँ वीणा, वल्ल की, वेणु आदि वाद्यों के मनोरम घोष तथा सुमधुर शब्दों द्वारा उसे सोते से जगाया जाता है। तात! नरेश्वर! जो मनुष्य एक वर्ष तक प्रति मास एक वार जल पीकर रहता है, उसे विश्वजित यज्ञ का फल मिलता है। वह सिंघ और व्याघ्र जुते हुए विमान से यात्रा करता है और सत्तर हजार वर्षों तक स्वर्गलोक में सुख भोगता है।
पुरुषसिंह! एक मास से अधिक समय तक उपवास करने का विधान नहीं है। कुन्तीनन्दन! धर्मज्ञ पुरुषों ने अनषन की यहाँ विधि बताई है। जो बिना रोग व्याधि के अनशन व्रत करता है, उसे पद-पद पर यज्ञ का फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है। प्रभो! ऐसा पुरुष हंस जुते हुए दिव्य विमान से यात्रा करता है और एक लाख वर्षों तक देवलोक में आनन्द भोगता है, सैकड़ों कुंमारी अप्सराऐं उस मनुष्य का मनोरंजन करती हैं। प्रभो! रोगी अथवा पीड़ित मनुष्य भी यदि व्रत करता है तो वह एक लाख वर्षों तक स्वर्ग में सुखपूर्वक निवास करता है। वह सो जाने पर दिव्य रमणीयों की कांचि और नुपुरों की झंकार से जागता है और ऐसे विमान से यात्रा करता है, जिसमे एक हजार हंस जुते रहते हैं।[3]
भरतश्रेष्ठ! वह स्वर्ग में जाकर सैकड़ों रमणियों से भरे हुए महल में रमण करता है। इस जगत में दुर्बल मनुष्य को हुष्ट-पुष्ट होते देखा गया है। जिसे घाव हो गया है, उसका घाव भर जाता है। रोगी को अपने रोग की निवृति के लिये ओषध समूह प्राप्त होता है। क्रोध में भरे हुए पुरुष को प्रसन्न करने का उपाय भी उपलब्ध होता है। अर्थ और मान के लिये दुःखी हुए पुरुष के दुःखों का निवारण भी देखा गया है; परंतु स्वर्ग की इच्छा रखने वाले और दिव्य सुख चाहने वाले पुरुष को ये सब इस लोक के सुखों की बातें अच्छी नहीं लगतीं। अतः वह पवित्रात्मा पुरुष वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो सैकड़ों स्त्रियों से भरे हुए इच्छानुसार चलने वाले सुवर्ण-सदृष विमान पर बैठकर रमण करता है। वह स्वस्थ, सफल मनोरथ, सुखी एवं निष्पाप होता है।
जो मनुष्य अनशन व्रत करके अपने शरीर का त्याग कर देता है, वह निम्नांकित फल का भागी होता है। वह प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशमान, सुनहरी कांति वाले, वैदुर और मोती से जटित और वीणा और मृदंग की ध्वनि से निनादित, पताका और दीपकों से आलोकित तथा दिव्य घंटानाद से गूंजते हुए सहस्रों अप्सराओं से युक्त विमान पर वैठकर दिव्य सुख भोगता है। पाण्डुनन्दन! उसके शरीर में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही सहस्र वर्षों तक वह स्वर्गलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, माता के समान कोई गुरु नहीं है, धर्म से बढ़कर कोई उत्रकष्ट लाभ नहीं हैं तथा उपवास से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है। जैसे इस लोक में और परलोक में ब्रह्मवेत्ता ब्राहम्मणों से बढ़कर कोई पावन नहीं है, उसी प्रकार उपवास के समान कोई तप नहीं है।
ऋषियों द्वारा उपवास वर्णन
देवताओं ने विधिवत उपवास करके ही स्वर्ग प्राप्त किया है तथा ऋषियों को भी उपवास से ही सिद्धि प्राप्त हुई है। परम बुद्धिमान विश्वामित्र जी एक हजार दिव्य वर्षों तक प्रतिदिन एक समय भोजन करके भूख का कष्ट सहते हुए तप में लगे रहे। उससे उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई। च्यवन, जमदग्नि, वसिष्ठ, गौतम, भृगु- ये सभी क्षमावान महर्षि उपवास करके ही दिव्य लोकों को प्राप्त हुए हैं। पूर्वकाल में अंगिरा मुनि ने महर्षियों को इस अनशन व्रत की महिमा का दिग्दर्शन कराया था। जो सदा इसका लोगों में प्रचार करता है वह कभी दुःखी नहीं होता।
कुन्तीनन्दन! महर्षि अंगिरा की बतलाई हुई इस उपवास व्रत की विधि को जो प्रतिदिन क्रमश: पढ़ता और सुनता है, उस मनुष्य का पाप नष्ट हो जाता है। वह सब प्रकार के संकीर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है, तथा उसका मन कभी दोषों से अभिभूत नहीं होता। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ मानव दूसरी योनि में उत्पन्न हुए प्राणियों की बोली समझने लगता है और अक्षय कीर्ति का भागी होता है। [4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 18-37
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 38-56
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 57-72
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| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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