दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन का वर्णन हुआ है।[1]

दैव और पुरुषार्थ की विवेचन का वर्णन

उमा ने कहा- भगवन! सर्वभूतेश्वर! जगत में दैव की प्रेरणा से ही सबकी कर्ममार्ग में प्रवृत्ति होती है। ऐसी कुछ लोगों की मान्यता है। दूसरे लोग क्रिया को प्रत्यक्ष देखकर ऐसा मानते हैं कि चेष्टा से ही सबकी प्रवृत्ति होती है, दैव से नहीं ये दो पक्ष हैं। इनमें मेरा मन संशय में पड़ जाता है, अतः महादेव! यथार्थ बात बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं तुम्हें तत्त्व की बात बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। मनुष्यों में दो प्रकार का कर्म देखा जाता है, उसे सुनो। इनमें एक तो पूर्वकृत कर्म है और दूसरा इहलोक में किया गया है। अब मैं देव और मनुष्य दोनों से सम्पादित होने वाले लौकिक कर्म का वर्णन करता हूँ। कृषि में जो जुताई, बोवाई, रोपनी, कटनी तथा ऐसे ही और भी जो कार्य देखे जाते हैं, वे सब मानुष कहे गये हैं।

दैव से उस कर्म में सफलता और असफलता होती है। मानुष कर्म में बुराई भी सम्भव है। उत्तर प्रयत्न करने से कीर्ति प्राप्त होती है और बुरे उपायों के अवलम्बन से अपयश। देवि! आदिकाल से ही जगत की ऐसी ही अवस्था है। बीज का रोपना और काटना आदि मनुष्य का काम है, परंतु समय पर वर्षा होना, बोवाई का सुन्दर परिणाम निकलना, बीज में अंकुर उत्पन्न होना और शस्य का श्रेणीबद्ध होकर प्रकट होना इत्यादि कार्य देवसम्बन्धी बताये गये हैं। दैव की अनुकूलता से ही इन कार्यों का सम्पादन होता है। पंचभूतों की स्थिति, ग्रहनक्षत्रों का चलना-फिरना तथा जहाँ मनुष्यों की बुद्धि न पहुँच सके अथवा किन्हीं कारणों या युक्तियों से भी समझ में न आ सके- ऐसा कर्म शुभ हो या अशुभ दैव माना जाता है और जिस बात को मनुष्य स्वयं कर सके, उसे पौरूष कहा गया है। केवल दैव या पुरुषार्थ से फल की सिद्धि नहीं होती।

प्रिये! प्रत्येक वस्तु या कार्य एक ही साथ पुरुषार्थ और दैव दोनों से ही गुँथा हुआ है। दैव और पुरुषार्थ दोनों के समानकालिक सहयोग से कर्म सम्पन्न होता है। जैसे एक ही काल में सर्दी और गर्मी दोनों होती हैं, उसी प्रकार एक ही समय दैव और पुरुषार्थ दोनों काम करते हैं। इन दोनों में जो पुरुषार्थ है, उसका आरम्भ विज्ञ पुरुष को पहले करना चाहिये। जो अपने-आप होना सम्भव नहीं है, उसको आरम्भ करने से मनुष्य कीर्ति का भागी होता है। जैसे लोक में भूमि खोदने से जल तथा काष्ठ का मन्थन करने से अग्नि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ करने पर दैव का सहयोग स्वतः प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कर्म नहीं करता, उसको दैवी सहायता नहीं प्राप्त होती, अतः समस्त कार्यों का आरम्भ दैव और पुरुषार्थ दोनों पर निर्भर है।

उमा ने पूछा- भगवन्! सर्वलोकेश्वर! लोकनाथ! वृषध्वज! कर्मों का फल भोगने वाले जीवात्मा नामक किसी द्रव्य की सत्ता नहीं है, इसलिये मरा हुआ जीव फिर जन्म नहीं लेता है। जैसे वृक्ष से फल पैदा होता है, उसी प्रकार स्वभाव से ही सब कुछ उत्पन्न होता है और जैसे समुद्र से लहरें प्रकट होती हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही जगत की आकृति प्रकट होती है।[1]

तप और दान आदि जो कर्म हैं, वे सब व्यर्थ दिखायी देते हैं, किन्तु जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता है। ऐसी कुछ लोगों की मान्यता है। शास्त्रों के परोक्षवाणी वचन सुनकर और प्रत्यक्ष दर्शन न होने से कितने ही लोग इस संशय में पड़े रहते हैं कि वह सब (परलोक) नहीं है, नहीं है। इस पक्षभेद के भीतर यथार्थवाद क्या है? यह मुझे बताने की कृपा करें। भगवन! आपने जो कुछ बताया है, वही लोक की स्थिति है।

पुनर्जन्म की विवेचना

नारद जी कहते हैं- रुद्राणी के यह प्रश्न उपस्थित करने पर सारी मुनिमण्डली एकाग्रचित्त होकर इसका उत्तर सुनने के लिये उत्कण्ठित हो गयी। श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागे! इस विषय में नास्तिक लोग जो कुछ कहते हैं, वह ठीक नहीं है। यह तो कलंकित शास्त्रद्रोही पुरुषों का मत है। मैंने पहले तुमसे जो कुछ कहा है, वह सारा विषय शास्त्र सम्मत तथा अनुभूत है। तभी से मनुष्यों में जो विद्वान पुरुष हैं, वे वेद-शास्त्र का आश्रय ले परिघ-जैसी कामनाओं का उच्छेद करके धैर्यपूर्वक उत्तम आसन लगाये ध्यानमग्न रहते हैं, वे कर्मों का फल प्रत्यक्ष देखते हुए स्वर्ग (ब्रह्म) लोक को ही जाते हैं। इस प्रकार परलोक में श्रद्धाजनित महान फल की प्राप्ति होती है। जो अपना हित चाहते हैं, उन पुरुषों के लिये बुद्धि, श्रद्धा और विनय- ये कारण (उन्नति के साधन) हैं। अतः कुछ ही लोग उक्त साधन से सम्पन्न होने के कारण स्वर्ग आदि पुण्यलोकों में जाते हैं। दूसरे लोग उन साधनों से हीन होने के कारण नास्तिक भाव का अवलम्बन लेते हैं। वेदविद्वेषी मूर्ख, नास्तिक, अदृढ़निश्चय वाले, क्रियाहीन तथा अन्नार्थियों को बिना कुछ दिये ही घर से निकाल देने वाले पापी मनुष्य अधम गति को प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म नहीं होता है या होता है, इस विषय में बड़े-बड़े विद्वान मोहित हो जाते हैं। वे सैकड़ों युक्तिवादों द्वारा भी उसे सर्वथा नहीं समझ पाते हैं।

यह ब्रह्मा जी के द्वारा रची माया है, जिसे देवता और असुर भी बड़ी कठिनाई से समझ पाते हैं, फिर दूषित बुद्धि वाले मानव यदि लोक में इस विषय को जानना चाहें तो कैसे जान सकते हैं। देवि! केवल वेद में पूर्णतः श्रद्धा करके ‘परलोक एवं पुनर्जन्म होता है’ ऐसा मानना चाहिये। इससे आस्तिक मनुष्य का हित होता है। देवि! देवसम्बन्धी जो दूसरे-दूसरे गुह्य विषय हैं, उनमें युक्तिवाद काम नहीं देता। जो अपना हित चाहने वाले हैं, उन्हें इस विषय में अन्धे और बहरे के समान बर्ताव करना चाहिये। अर्थात नास्तिकों की ओर न तो देखे और न उनकी बातें ही सुने। देवि! यह ऋषियों के लिये गोपनीय तथा प्रजा के लिये हितकर विषय तुम्हें बताया गया है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-28
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-29

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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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