- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 44 में कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार का वर्णन हुआ है।[1]-
विषय सूची
- 1 युधिष्ठिर द्वारा कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक प्रश्न पूछना
- 2 भीष्म का संवाद
- 3 प्राजापत्य विवाह
- 4 गान्धर्व विवाह
- 5 आसुर विवाह
- 6 राक्षस विवाह
- 7 पापमय विवाह
- 8 धर्मानुकुल विवाह
- 9 युधिष्ठिर का प्रस्न
- 10 भीष्म का संवाद
- 11 धर्मत: पत्नी
- 12 कन्या विवाह के सम्बंध में अम्बा की कहानी सहित वर्णन
- 13 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 14 संबंधित लेख
युधिष्ठिर द्वारा कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक प्रश्न पूछना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो समस्त धर्मों का, कुटुम्बीजनों का, घर का तथा देवता, पितर और अतिथियों का मूल है, उस कन्यादान के विषय में मुझे कुछ उपदेश कीजिये। पृथ्वीनाथ! सब धर्मों से बढ़कर यही चिन्तन करने योग्य धर्म माना गया है कि पात्र को कन्या देनी चाहिये?
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- बेटा! सत्पुरुषों को चाहिये कि वे पहले वर के शील-स्वभाव, सदाचार, विद्या, कुल, मर्यादा और कार्यों की जाँच करें। फिर यदि वह सभी दृष्टियों से गुणवान प्रतीत हो तो उसे कन्या प्रदान करें।
प्राजापत्य विवाह
युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्याहने योग्य वर को बुलाकर उसके साथ कन्या का विवाह करना उत्तम ब्राह्मणों का धर्म-ब्रह्म विवाह है। जो धन आदि के द्वारा वर पक्ष को अनुकुल करके कन्यादान किया जाता है, वह शिष्ट ब्राह्मण और क्षत्रियों का सनातन धर्म कहा जाता है। (इसी को प्राजापत्य विवाह कहते हैं)।
गान्धर्व विवाह
युधिष्ठिर! जब कन्या के माता-पिता अपने पसंद किये हुए वर को छोड़कर जिसे कन्या पसंद करती हो तथा जो कन्या को चाहता हो ऐसे वर के साथ उस कन्या का विवाह करते हैं, तब दवेता पुरुष उस विवाह को गान्धर्व धर्म (गान्धर्व विवाह) कहते हैं।
आसुर विवाह
नरेश्वर! कन्या के बन्धु-बान्धवों को लोभ में डालकर उन्हें बहुत-सा धन देकर जो कन्या को खरीद ले जाता है, इसे मनीषी पुरुष असुरों का धर्म (आसुर विवाह) कहते हैं।
राक्षस विवाह
तात! इसी प्रकार कन्या के रोते हुए अभिभावाकों को मारकर, उनके मस्तक काटकर रोती हुई कन्या को उसके घर से बलपूर्वक हर लाना राक्षसों का काम (राक्षस विवाह) कहा जाता है।
पापमय विवाह
युधिष्ठिर! इन पांच (ब्राहय, प्राजापत्य,गान्धर्व , आसुर और राक्षस) विवाहों में से पूर्वकथित तीन विवाह धर्मानुकुल हैं और शेष दो पापमय हैं। आसुर और राक्षस विवाह किसी प्रकार भी नहीं करने चाहियें।[2]
धर्मानुकुल विवाह
नरश्रेष्ठ! बारह, क्षात्र (प्राजापत्य) तथा गान्धर्व- ये तीन विवाह धर्मानुकुल बताये गये हैं। ये पृथक हों या अन्य विवाहों से मिश्रित- करने ही योग्य हैं। इसमें संशय नहीं है। ब्राह्मण के लिये तीन भार्याएँ बतायी गयी हैं (ब्राह्मण-कन्या, क्षत्रिय-कन्या और वैश्य–कन्या), क्षत्रिय के लिये दो भार्याएँ कही जाती हैं (क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या)। वैश्य केवल अपनी ही जाति की कन्या के साथ विवाह करे। इन स्त्रियों से जो संतानें उत्पन्न होती हैं वे पिता के समान वर्णवाली होती हैं (माताओं के कुल या वर्ण के कारण उनमें कोई तारतम्य नहीं होता)। ब्राह्मण की पत्नियों में ब्राह्मण-कन्या श्रेष्ठ मानी जाती है, क्षत्रिय के लिये क्षत्रिय-कन्या श्रेष्ठ है (वैश्य की तो एक ही पत्नी होती है; अत: वह श्रेष्ठ है ही)। कुछ लोगों का मत है कि रति के लिये शूद्र-जाति की कन्या से भी विवाह किया जा सकता है; परंतु और लोग ऐसा नहीं मानते (वे शूद्र-कन्या को त्रैवर्णिकों के लिये अग्राह बतलाते हैं)। श्रेष्ठ पुरुष ब्राह्मण का शुद्र-कन्या के गर्भ से संतान उत्पन्न करना अच्छा नहीं मानते। शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने वाला प्रायश्चित का भागी होता है। तीस वर्ष का पुरुष दस वर्ष की कन्या को, जो रजस्वला न हुई हो, पत्नी रूप में प्राप्त करे। अथवा इक्कीस वर्ष का पुरुष सात वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करे।
भरतश्रेष्ठ! जिस कन्या के पिता अथवा भाई न हों, उसके साथ कभी विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह पुत्रि का-धर्मवाली मानी जाती है।[3] ॠतुमती होने के पश्चात तीन वर्ष तक कन्या अपने विवाह की बाट देखे। चौथा वर्ष लगने पर ही वह स्वयं ही किसी को अपना पति बना ले। भरतश्रेष्ठ! ऐसा करने पर उस कन्या का उस पुरुष के साथ किया हुआ सम्बन्ध तथा उससे होने वाली संतान निम्न श्रेणी की नहीं समझी जाती। इसके विपरीत बर्ताव करने वाली स्त्री प्रजापति की दृष्टि में निन्दनीय होती है। जो कन्या माता की सपिण्ड और पिता के गोत्र की न हो, उसी का अनुगमन करें। इसे मनुजी ने धर्मानुकूल बताया है[4]
युधिष्ठिर का प्रस्न
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि एक मनुष्य ने विवाह पक्का करके कन्या का मूल्य दे दिया हो, दूसरे ने मूल्य देने का वादा करके विवाह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्या को बलपूर्वक ले जाने की बात कर रहा हो, चौथा उसके भाई-बन्धुओं विशेष धन का लोभ दिखाकर ब्याह करने को तैयार हो और पाँचवा उसका पणिग्रहण कर चुका हो तो धर्मत: उसकी कन्या किसकी पत्नी मानी जायेगी? हम लोग इस विषय में यथार्थ तत्व को जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये नेत्र(पथ-प्रदर्शक)हों।
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- भारत! मनुष्यों के हित से सम्बन्ध रखने वाला जो कोई भी कर्म है, वह व्यवस्था लिये देखा जाता है। समस्त विचारवान पुरुष एकत्र होकर जब यह विचार कर लें कि ‘अमुक कन्या अमुक पुरुष को देनी चाहिये’ तो यह व्यवस्था ही विवाह का निश्चय करने वाली होती है। जो झूठ बोलकर इस व्यवस्था को उलट देता है, वह पाप का भागी होता है। भार्या, पति, आचार्य, शिष्य और उपाध्याय भी यदि उपर्युक्त के विरुद्ध झूठ बोलें तो दण्ड के भागी होते हैं। परंतु दूसरे लोग उन्हें दण्ड के भागी नहीं मानते हैं। अकाम पुरुष के साथ सकामा कन्या का सहवास हो, इसे मनु अच्छा नहीं मानते हैं। अत: सर्वसम्मति से निश्चित किये हुए विवाह को मिथ्या करने के अपयश और अधर्म का कारण होता है। वह धर्म को नष्ट करने वाला माना गया है। भारत! कन्या के भाई-बन्धु जिस कन्या को धर्मपूर्वक पाणिग्रहण विधि से दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्या को धर्मपूर्वक विवाह करने वाला अथवा मूल्य देकर खरीदने वाला यदि अपने घर ले आये तो इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं होता। भला उस दशा में दोष की प्राप्ति कैसे हो सकती है?[5]
धर्मत: पत्नी
कन्या के कुटुम्बीजनों की अनुमती मिलने पर वैवाहिक मन्त्र और होम का प्रयोग करना चाहिये, तभी वे मन्त्र सिद्ध (सफल) होते हैं, अर्थात वह मन्त्रों द्वारा विवाह किया हुआ माना जाता है। जिस कन्या का माता-पिता के द्वारा दान नहीं किया गया उसके लिये किये गये मन्त्र-प्रयोग किसी तरह सिद्ध नहीं होते, अर्थात वह विवाह मन्त्रों द्वारा किया हुआ नहीं माना जाता। पति और पत्नी में परस्पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही श्रेष्ठ मानी जाती है, और यदि उसके लिये बन्धु-बान्धवों का समर्थन प्राप्त हो तब तो और उत्तम बात है। धर्मशास्त्र की आज्ञा के अनुसार न्यायत: प्राप्त हुई पत्नी को पति अपने प्रारब्धकर्म के अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार प्रारब्धकर्म के अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार वह दैवयोग से प्राप्त हुई पत्नी को ग्रहण करता है तथा मनुष्यों की झूठी बात को, उस विवाह को अयोग्य बताने वाली वार्ता को अग्राहय कर देता है। चेतयोर्माता तत्सापिण्ड्यं निवर्तते।। अर्थात ‘यदि वर अथवा कन्या का पिता मूल पुरुष से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवीं पीढ़ी में पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सपिण्ड्य पाँच पीढ़ी तक। सात पीढ़ी में एक तो पिण्ड देने वाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं।
कन्या विवाह के सम्बंध में अम्बा की कहानी सहित वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि एक वर से कन्या का विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और काम से सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाये तो पहले जिससे मूल्य लिया गया उससे झूठ बोलना-उसको कन्या देने से इंकार कर देना चाहिये या नहीं? इसमें दोनों दशाओं में दोष प्राप्त होता है- यदि बन्धुजनों की सम्मति से मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाह को उलट दिया जाये तो वचन-भंग का दोष लगता है और श्रेष्ठ वर का उल्लघंन करने से कन्या के हित को हानि पहुँचाने का प्राप्त होता है। ऐसी दशा में कन्यादाता क्या करें; जिससे वह कल्याण का भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मों में इस कन्यादान रूप धर्म को हो अधिक चिन्तन अर्थात विचार के योग्य मानते हैं। हम इस विषय में यथार्थ तत्व को जानना चाहते हैं। आप हमारे पथ प्रदर्शक होइये। इन सब बातों को स्पष्ट रूप से बताइये। मैं आपकी बातें सुनने से तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अत: आप इस विषय का प्रतिपादन कीजिये।
भीष्म जी ने कहा- राजन! मूल्य दे देने से ही विवाह का अन्तिम निश्चय नहीं हो पाता (उसमें परिवर्तन की सम्भावना रहती ही है)। यह समझकर ही मूल्य देने वाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं माँगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करते हैं। कन्या के भाई-बन्धु किसी से मूल्य तभी माँगते हैं जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि)-से युक्त होता है। यदि वर को बुलाकर कहा जाये कि ‘तुम मेरी कन्या को आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो।' ऐसा कहने पर यह उसके लिए आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है। क्योंकि इस प्रकार जो कन्या के लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, वह न तो मूल्य है और न विक्रय ही; इसलिये कन्या के लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्या का दान करना सनातन धर्म है।' जो लोग भिन्न–भिन्न व्यक्तियों से कहते हैं कि ‘मैं आपको अपनी कन्या दूँगा।', जो कहते हैं ‘नहीं दूँगा’ और जो कहते हैं ‘अवश्य दूँगा’ उनकी ये सभी बातें कन्या देने के पहले नहीं कही हुई के ही तुल्य हैं।[6]
जब तक कन्या का पाणिग्रहण संस्कार होने के पहले तक वर और कन्या आपस में एक-दूसरे के लिये प्रार्थना कर सकते हैं। महर्षियों का मत है कि अयोग्य वर को कन्या नहीं देनी चाहिये, क्योंकि सुयोग्य पुरुष को कन्यादान करना ही काम-सम्बन्धी सुख और सुयोग्य संतान की उत्पत्ति का कारण है। ऐसा मेरा विचार है। कन्या के क्रय-विक्रय में बहुत-से दोष हैं। इस बात को तुम अधिक काल तक सोचने-विचारने के बाद स्वयं समझ लोगे। केवल मूल्य दे देने से विवाह का अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषय में तुम सुनो। मैं विचित्रवीर्य के विवाह के लिये मगध, काशी तथा कौशल देश के समस्त वीरों को पराजित करके काशिराज की दो[7]कन्याओं को हर लाया था। उनमें से एक कन्या अम्बा अपना हाथ शाल्वराज के हाथ में दे चुकी थी; अर्थात मन-ही-मन उसको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्याओं) का काशिराज को शुल्क प्राप्त हो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा) कुरुवंशी बाहलीक ने वहीं कहा कि ‘जो कन्या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्याग कर दो और दूसरी कन्या का (जिनके लिये शुल्कमात्र लिया गया है) विवाह करो।' मुझे चाचा जी के इस कथन पर संदेह था, इसलिये मैंने दूसरों से भी इसके विषय में पूछा। परंतु इस विषय में मेरे चाचा जी की बहुत प्रबल इच्छा थी कि धर्म का पालन हो (अत: वे पाणिगृहिता कन्याके त्याग पर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन! तदनन्तर मैं आचार जानने की इच्छा से बोला- ‘पिता जी! मैं इस विषय में यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्परागत आचार क्या है?’ महाराज! मेरे ऐसा कहने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ मेरे चाचा बाहलीक इस प्रकार बोले- ‘यदि तुम्हारे मत में मूल्य देने मात्र से ही विवाह का पूर्ण निश्चय हो जाता है, पाणिग्रहण से नहीं, तब तो स्मृति का यह कथन ही व्यर्थ होगा कि कन्या का पिता एक वर से शुल्क ले लेने पर भी दूसरे गुणवान वर का आश्रय ले सकता है।' अर्थात पहले को छोड़कर दूसरे गुणवान वर से अपनी कन्या का विवाह कर सकता है। जिनका यह मत है कि शुल्क से ही विवाह का निश्चय होता है, पाणिग्रहण से नहीं, उनके इस कथन को धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं। ‘कन्यादान के विषय में तो लोगों का कथन भी प्रसिद्ध है ‘अर्थात सब लोग यही कहते हैं कि कन्यादान हुआ है।' अत: जो शुल्क से ही विवाह निश्चय मानते हैं उनके कथन की प्रतीति कराने वाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्क को मान्यता देते हैं वे मनुष्य धर्मज्ञ नहीं हैं। ‘ऐसे लोगों को कन्या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करने की वस्तु नहीं है।' जो दासियों को खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्मा हैं। ऐसे ही लोगों में पत्नी को भी खरीदने-बचेने की निष्ठा होती है। इस विषय में पहले के लोगों ने सत्यवान से पूछा था कि ‘महाप्राज्ञ! यदि कन्या का शुल्क देने के पश्चात शुल्क देने वाले की मृत्यु हो जाये तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नही? इसमें हमें धर्म विषयक संदेह हो गया है। आप इसका निवारण कीजिये, क्योंकि आप ज्ञानी पुरुषों द्वारा सम्मानित हैं।[8]
‘हम लोग इस विषय में यथार्थ बात जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये पथ प्रदर्शक होइये। 'उन लोगों के इस प्रकार कहने पर सत्यवान ने कहा-‘जहाँ उत्तम पात्र मिलता हो वहीं कन्या देनी चाहिये।' इसके विपरीत कोई विचार मन में नहीं लाना चाहिये। मूल्य देने वाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्य वर के मिलने पर सज्जन पुरुष उसी के साथ कन्या का विवाह करते हैं। फिर उसके मर जाने पर अन्यत्र करें- इसमें तो संदेह ही नहीं है। ‘शुल्क देने वाले की मृत्यु हो जाने पर उसके छोटे भाई को वह कन्या पति रूप में ग्रहण करे अथवा जन्मान्तर में उसी पति को पाने की इच्छा से उसी का अनुसरण (चिन्तन) करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्या करे। ‘किन्हीं मत में अक्षत योनि कन्या को स्वीकार करने का अधिकार है। दूसरों के मत में यह मन्द प्रवृति- अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्त में इसी निश्चय पर पहुँचते हैं कि कन्या का पाणिग्रहण होने से पहले का वैवाहिक मंगलाचार और मन्त्र प्रयोग हो जाने पर जहाँ अन्तर या व्यवधान पड़ जाये, अर्थात अयोग्य वर को छोड़कर किसी दूसरे योग्य वर के साथ कन्या ब्याह दी जाये तो दाता को केवल मिथ्या भाषण का पाप लगता है (पाणिग्रहण से पूर्व कन्या विवाहित नहीं मानी जाती है)। ‘सप्तपदी के सातवें पद में पाणिग्रहण के मन्त्रों की सफलता होती है (और तभी पति-पत्नी भाव का निश्चय होता है)। जिस पुरुष को जल से संकल्प करके कन्या का दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसी की वह पत्नी मानी जाती है। विद्वान पुरुष इसी प्रकार कन्यादान की विधि बताते हैं। वे इसी निश्चय पर पहुँचे हुए हैं। ‘जो अनुकुल हो, अपने वंश के अनुरूप हो, अपने पिता-माता या भाई के द्वारा दी गयी हो और प्रज्वलित अग्नि के समीप बैठी हो, ऐसी पत्नी को श्रेष्ठ द्विज अग्नि की परिक्रमा करके शास्त्र विधि के अनुसार ग्रहण करें।[9]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-14
- ↑ स्मृतियों में निम्नलिखित आठ विवाह बतलाये गये हैं- ब्रह्मा, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर,राक्षस और पैशाच। किंतु यहाँ 1. ब्रम्ह, 2. प्राजापत्य, 3. गान्धर्व, 4. आसुर और 5. राक्षस- इन्हीं पाँच विवाहों का उल्लेख किया गया है; अत: यहाँ जो ब्रह्म विवाह है उसी में स्मृति कथित दैव और आर्ष विवाहों का भी अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार यहाँ बताये हुए राक्षस विवाह में उपर्युक्त पैशाच विवाह का समावेश कर लेना चाहिये। प्राजापत्या को ही ‘क्षात्र’ विवाह भी कहा जाता है।
- ↑ यदि पिता, भ्राता आदि अभिभावक ॠतुमती होने के पहले कन्या का विवाह न कर दें तो
- ↑ सपिण्ड्य निवृति के सम्बन्ध में स्मृति का वचन है- बच्चा वरस्य वा तात: कूटस्थाद यदि सप्तम:। पंचमी चेत्तयोर्माता तत्सापिड्य निवर्तते॥ अर्थात 'यदि वर अथवा कन्या का पिता मूल पुरुष से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवीं पीढ़ी में पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सपिण्डय की निवृत्ति हो जाती है।’ पिता की ओर का सपिण्डय सात पीढ़ी तक चलता है और माता का सपिण्डय पाँच पीढ़ी तक। सात पीढ़ी में एक तो पिण्ड देने वाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 15-24
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 25-34
- ↑ भीष्म जी काशिराज जी दो कन्याओं को हरकर लाये थे, उनमें से दो को एक श्रेणी में रखकर एक वचन का प्रयोग किया गया है, यह मानना चाहिये; तभी आदिपर्व अध्याय 102 के वर्णन की संगति ठीक लग सकती है।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 35-49
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 50-56
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| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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