वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 147 में वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन का वर्णन हुआ है।[1]

ऋषि-शिव संवाद

ऋषियों ने कहा- भगदेवता के नेत्रों का विनाश करने वाले पिनाकधारी विश्ववन्दित भगवान शंकर! अब हम वासुदेव (श्रीकृष्ण)- का माहात्म्य सुनना चाहते हैं।

महेश्वर ने कहा- मुनिवरो! भगवान सनातन पुरुष श्रीकृष्ण ब्रह्माजी से भी श्रेष्ठ हैं। वे श्रीहरि जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान श्याम कान्ति से युक्त हैं। बिना बादल के आकाश में उदित सूर्य के समान तेजस्वी हैं। उनकी भुजाएँ दस हैं, वे महान तेजस्वी हैं, देवद्रोहियों का नाश करने वाले श्रीवत्सभूषित भगवान हृषीकेश सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। ब्रह्मा जी उनके उदर से और मैं उनके मस्तक से प्रकट हुआ हूँ। उनके सिर के केशों से नक्षत्रों और ताराओं का प्रादुर्भाव हुआ है। रोमावलियों से देवता और असुर प्रकट हुए हैं। समस्त ऋषि और सनातन लोक उनके श्रीविग्रह से उत्पन्न हुए हैं।

श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन

वे श्रीहरि स्वयं ही सम्पूर्ण देवताओं के गृह और ब्रह्मा जी के भी निवासस्थान हैं। इस सम्पूर्ण पृथ्वी के स्रष्टा और तीनों लोकों के स्वामी भी वे ही हैं। वे ही चराचर प्राणियों का संहार भी करते हैं। वे देवताओं में श्रेष्ठ, देवताओं के रक्षक, शत्रुओं को संताप देने वाले, सर्वज्ञ, सबमें ओतप्रोत, सर्वव्यापक तथा सब ओर मुखवाले हैं। वे ही परमात्मा, इन्द्रियों के प्रेरक और सर्वव्यापी महेश्वर हैं। तीनों लोकों में उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे ही सनातन, मधुसूदन और गोविन्द आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। सज्जनों को आदर देने वाले वे भगवान श्रीकृष्ण महाभारत-युद्ध में समस्त राजाओं का संहार करायेंगे। वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये पृथ्वी पर मानव-शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं।

उन भगवान! त्रिविक्रम की शक्ति और सहायता के बिना सम्पूर्ण देवता भी कोई कार्य नहीं कर सकते। संसार में नेता के बिना देवता अपना कोई भी कार्य करने में असमर्थ हैं और ये भगवान श्रीकृष्ण सब प्राणियों के नेता हैं। इसलिये समस्त देवता उनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। देवताओं की रक्षा और उनके कार्य साधन में संलग्न रहने वाले वे भगवान वासुदेव ब्रह्मस्वरूप हैं। वे ही ब्रह्मर्षियों को सदा शरण देते हैं। ब्रह्मा जी उनके शरीर के भीतर अर्थात उनके गर्भ में बड़े सुख के साथ रहते हैं। सदा सुखी रहने वाला मैं शिव भी उनके श्रीविग्रह के भीतर सुखपूर्वक निवास करता हूँ। सम्पूर्ण देवता उनके श्रीविग्रह में सुखपूर्वक निवास करते हैं। वे कमलनयन श्रीहरि अपने गर्भ (वक्षःस्थल)- में लक्ष्मी को निवास देते हैं। लक्ष्मी के साथ ही वे रहते हैं।

शार्गंधनुष, सुदर्शन चक्र और नन्दक नामक खड्ग- उनके आयुध हैं। उनकी ध्वजा में सम्पूर्ण नागों के शत्रु गरुड़ का चिह्न सुशोभित है। वे उत्तम शील, शम, दम,पराक्रम, वीर्य, सुन्दर शरीर, उत्तम दर्शन, सुडौल आकृति, धैर्य,सरलता, कोमलता, रूप और बल आदि सद्गुणों से सम्पन्न हैं। सब प्रकार के दिव्य और अद्भुत अस्त्र-शस्त्र उनके पास सदा मौजूद रहते हैं। वे योगमाया से सम्पन्न और हजारों नेत्रों वाले हैं। उनका हृदय विशाल है। वे अविनाशी, वीर, मित्रजनों के प्रशंसक, ज्ञाति एवं बन्धु-बान्धवों के प्रिय, क्षमाशील, अहंकाररहित, ब्राह्मणभक्त, वेदों का उद्धार करने वाले, भयातुर पुरुषों का भय दूर करने वाले और मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाले हैं।[1]

वंश परम्परा का कथन

वे समस्त प्राणियों को शरण देने वाले, दीन-दुखियों के पालन में तत्पर, शास्त्रज्ञान सम्पन्न, धनवान, सर्वभूतवन्दित, शरण में आयु हुए शत्रुओं को भी वर देने वाले, धर्मज्ञ, नीतिज्ञ, नीतिमान, ब्रह्मवादी और जितेन्द्रिय हैं। परम बुद्धि से सम्पन्न भगवान गोविन्द यहाँ देवताओं की उन्नति के लिये प्रजापति के शुभमार्ग पर स्थित हो मनु के धर्म-संस्कृत कुल में अवतार लेंगे। महात्मा मनु के वंश में मनु पुत्र अंग नामक राजा होंगे। उनसे अन्तर्धामा नाम वाले पुत्र का जन्म होगा। अन्तर्धामा से अनिन्द्य प्रजापति हविर्धामा की उत्पत्ति होगी। हविर्धामा के पुत्र महाराज प्राचीनबर्हि होंगे। प्राचीनबर्हि के प्रचेता आदि दस पुत्र होंगे। उन दसों प्रचेताओं से इस जगत में प्रजापति दक्ष का प्रादुर्भाव होगा। दक्षकन्या अदिति से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न होंगे। सूर्य से मनु उत्पन्न होंगे।

मनु के वंश में इला नामक कन्या होगी, जो आगे चलकर सुद्युम्न नामक पुत्र के रूप में परिणत हो जायगी। कन्यावस्था में बुध से समागम होने पर उससे पुरूरवा का जन्म होगा। पुरूरवा से आयु नामक पुत्र की उत्पत्ति होगी। आयु के पुत्र नहुष और नहुष के ययाति होंगे। ययाति से महान बलशाली यदु होंगे। यदु से क्रोष्टा का जन्म होगा, क्रोष्टा से महान पुत्र वृजिनीवान होंगे। वृजिनीवान से विजय वीर उषंगु का जन्म होगा। उषंगु कापुत्र शूरवीर चित्ररथ होगा।उसका छोटा पुत्र शूर नाम से विख्यात होगा। वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुण से सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचार वाले होंगे। उनका कुल ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित होगा। उस कुल में महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरों को सम्मान देने वाले क्षत्रिय-शिरोमणि शूर अपने वंश का विस्तार करने वाले वसुदेव नामक पुत्र को जन्म देंगे, जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा।

उन्हीं के पुत्र चार भुजाधारी भगवान वासुदेव होंगे। भगवान वासुदेव दानी, ब्राह्मणों का सत्कार करने वाले, ब्रह्मभूत और ब्राह्मणप्रिय होंगे। वे यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण मगधराज जरासंध की कैद में पड़े हुए राजाओं को बन्धन से छुड़ायेंगे। वे पराक्रमी श्रीहरि पर्वत की कन्दरा(राजगृह)- में राजा जरासंध को जीतकर समस्त राजाओं के द्वारा उपहृत रत्नों से सम्पन्न होंगे। वे इस भूमण्डल में अपने बल-पराक्रम द्वारा अजेय होंगे। विक्रम से सम्पन्न तथा समस्त राजाओं के भी राजा होंगे। नीतिवेत्ता भगवान श्रीकृष्ण शूरसेन देश (मथुरा-मण्डल)- में अवतीर्ण होकर वहाँ से द्वारकापुरी में जाकर रहेंगे और समस्त राजाओं को जीतकर सदा इस पृथ्वी देवी का पालन करेंगे। आप लोग उन्हीं भगवान की शरण लेकर अपनी वाड्मयी मालाओं तथा श्रेष्ठ पूजनोपचारों से सनातन ब्रह्मा की भाँति उनका यथोचित पूजन करें। जो मेरा और पितामह ब्रह्माजी का दर्शन करना चाहता हो, उसे प्रतापी भगवान वासुदेव का दर्शन करना चाहिये।

तपोधनों! उनका दर्शन हो जाने पर मेरा ही दर्शन हो गया, अथवा उनके दर्शन से देवेश्वर ब्रह्मा जी का दर्शन हो गया ऐसे समझो, इस विषय में मुझे कोई विचार नही करना है अर्थात् संदेह नहीं है। जिस पर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे, उसके ऊपर ब्रह्मा आदि देवताओं का समुदाय प्रसन्न हो जायगा। मानवलोक में जो भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेगा, उसे कीर्ति, विजय तथा उत्तम स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इतना ही नहीं, वह धर्मों का उपदेश देने वाला साक्षात् धर्माचार्य एवं धर्मफल का भागी होगा। अतः धर्मात्मा पुरुषों को चाहिये कि वे सदा उत्साहित रहकर देवेश्वर भगवान वासुदेव को नमस्कार करें।[2]

उन सर्वव्यापी परमेश्वर की पूजा करने से परम धर्म की सिद्धि होगी। वे महान तेजस्वी देवता हैं। उन पुरुषसिंह श्रीकृष्ण ने प्रजा का हित करने की इच्छा से धर्म का अनुष्ठान करने के लिये करोड़ों ऋषियों की सृष्टि की है। भगवान के उत्पन्न किये हुए वे सनत्कुमार आदि ऋषि गन्धमादन पर्वत पर सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं। अतः द्विजवरो! उन प्रवचन-कुशल, धर्मज्ञ वासुदेव को सदा प्रणाम करना चाहिये। वे भगवान नारायण हरि देवलोक में सबसे श्रेष्ठ हैं। जो उनकी वन्दना करता है, उसकी वे भी वन्दना करते हैं। जो उनका आदर करता है, उसका वे भी आदर करते हैं। इसी प्रकार अर्चित होने पर वे भी अर्चना करते और पूजित या प्रशंसित होने पर वे भी पूजाया प्रशंसा करते हैं।

श्रेष्ठ ब्राह्मणों! जो प्रतिदिन उनका दर्शन करता है, उसकी ओर वे भी कृपादृष्टि करते हैं। जो उनका आश्रय लेता है, उसके हृदय में वे भी आश्रय लेते हैं तथा जो उनकी पूजा करता है, उसकी वे भी सदा पूजा करते हैं। उन प्रशंसनीय आदि देवता भगवान महाविष्णु का यह उत्तम व्रत है, जिसका साधु पुरुष सदा आचरण करते आये हैं। वे सनातन देवता हैं, अतः इस त्रिभुवन में देवता भी सदा उन्हीं की पूजा करते हैं। जो उनके अनन्य भक्त हैं, वे अपने भजन के अनुरूप ही निर्भय पद प्राप्त करते हैं। द्विजों को चाहिये कि वे मन, वाणी और कर्म से सदा उन भगवान को प्रणाम करें और यत्नपूर्वक उपासना करके उन देवकीनन्दन का दर्शन करें।

मुनिवरो! यह मैंने आप लोगों को उत्तम मार्ग बता दिया है। उन भगवान वासुदेव का सब प्रकार से दर्शन कर लेने पर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओं का दर्शन करना हो जायगा। मैं भी महावराहरूप धारण करने वाले उन सर्वलोक-पितामह जगदीश्वर को नित्य प्रणाम करता हूँ। हम सब देवता उनके श्रीविग्रह में निवास करते हैं। अतः उनका दर्शन करने से तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) का दर्शन हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। उनके बड़े भाई कैलास की पर्वत मालाओं के समान श्वेत कान्ति से प्रकाशित होने वाले हलधर और बलराम के नाम से विख्यात होंगे। पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग ही बलराम के रूप में अवतीर्ण होंगे।

बलदेव जी के रथ पर तीन शिखाओं से युक्त दिव्य सुवर्णमय तालवृक्ष ध्वज के रूप में सुशोभित होगा। सर्वलोकेश्वर महाबाहु बलराम जी का मस्तक बड़े-बड़े फनवाले विशालकाय सर्पों से घिरा हुआ होगा। उनके चिन्तन करते ही सम्पूर्ण दिव्य अस्त्र-शस्त्र उन्हें प्राप्त हो जायँगे। अविनाशी भगवान श्रीहरि ही अनन्त शेषनाग कहे गये हैं। पूर्वकाल में देवताओं ने गरुड़जी से यह अनुरोध किया कि ‘आप हमें भगवान शेष का अन्त दिखा दीजिये।’ तब कश्यप के बलवान् पुत्र गरुड़ अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उन परमात्मदेव अनन्त का अन्त न देख सके। वे भगवान शेष बड़े आनन्द के साथ सर्वत्र विचरते हैं और अपने विशाल शरीर से पृथ्वी को आलिंगनपाश में बाँधकर पाताल लोक में निवास करते हैं।[3]

जो भगवान विष्णु हैं, वे ही इस पृथ्वी को धारण करने वाले भगवान अनन्त हैं। जो बलराम हैं वे ही श्रीकृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण हैं वे ही भूमिधर बलराम हैं। वे दोनों दिव्य रूप और दिव्य पराक्रम से सम्पन्न पुरुषसिंह बलराम और श्रीकृष्ण क्रमशः चक्र एवं हल धारण करने वाले हैं। तुम्हें उन दोनों का दर्शन एवं सम्मान करना चाहिये। तपोधनो! आप लोगों पर अनुग्रह करके मैंने भगवान का पवित्र माहात्म्य इसलिये बताया है कि आप प्रयत्नपूर्वक उन यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण की पूजा करें।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-19
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 20-42
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 43-59
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 60-62

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दान-धर्म-पर्व
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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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