मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 116 में मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसा धर्म की प्रशंसा का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर कहते हैं - पितामह! बड़े खेद की बात है कि ससार के से निर्दयी मनुष्य अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थों का परित्याग करके महान राक्षसों के समान मांस का स्वाद लेना चाहते हैं। भाँति-भाँति के मालपूओं, नाना प्रकार के शाकों तथा रसीली मिठाइयों की भी वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी रुचि मांस के लिये रखते है। प्रभो! पुरुषप्रवर! अतः मैं मांस न खाने से होने वाले लाभ और उसे खाने से होने वाली हानियों को पुनः सुनना चाहता हूँ। धर्मज्ञ पितामह! इस समय धर्म के अनुसार यथावत रूप से यहाँ सब बातें ठीक-ठीक बताइये। इसके सिवा यह भी कहिये कि भोजन करने योग्य क्या वस्तु है और भोजन न करने योग्य क्या वस्तु है। पितामह! मांस का जो स्वरूप है, यह जैसा है, इसका त्याग कर देने में जो लाभ है और इसे खाने वाले पुरुष को जो दोष प्राप्त होते हैं- ये सब बातें मुझे बताइये।

भीष्म द्वारा मांस न खाने से होने वाले लाभों का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- महाबाहो! भरतनन्दन! तुम जैसा कहते हो ठीक वैसी ही बात है। कौरवनन्दन! मांस न खाने में बहुत से लाभ है, जो वैसे मनुष्यों को सुलभ होते हैं; मैं बता रहा हूँ; सुनो। जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़ कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है। जगत में अपने प्राणों से अधिक प्रिय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे। तात! मांस भक्षण करने में महान दोष है; क्योंकि मांस की उत्पत्ति वीर्य से होती है, इसमें संशय नहीं है। अतः उससे निवृत्त होने में ही पुण्य बताया गया है। कौरवनन्दन! इस लोक और परलोक में इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगत में समस्त प्राणियों पर दया की जाय। इस जगत में दयालु मनुष्य को कभी भय का सामना नहीं करना पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषों के लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि अहिंसा ही धर्म का लक्षण है। मनस्वी पुरुष वही कर्म करे, जो अहिंसात्मक हो। जो दया परायण पुरुष सम्पूर्ण भूतों को अभय दान देता है, उसे भी सब प्राणी अभय दान देते हैं। ऐसा हमने सुन रखा है। वह घायल हो, लड़खड़ाता हो, गिर पड़ा हो, पानी के बहाव में खिंचकर बहा जाता हो, आहत हो अथवा किसी भी सम-विषम अवस्था में पड़ा हो, सब प्राणी उसकी रक्षा करते हैं। जो दूसरों को भय से छुड़ाता है, उसे न हिंसक पशु मारते हैं और न पिशाच तथा राक्षस ही उस पर प्रहार करते हैं। वह भय का अवसर आने पर उससे मुक्त हो जाता है। प्राण दान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। अपने आत्मा से बढ़कर प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। यह निश्चित बात है। भरतनन्दन! किसी भी प्राणी को मृत्यु अभीष्ट नहीं है; क्योंकि मृत्यु काल में सभी प्राणियों का शरीर तुरंत काँप उठता है। इस संसार-समुद्र में समस्त प्राणी सदा गर्भवास, जन्म और बुढ़ापा आदि के दुःखों से दुःखी होकर चारों और भटकते रहते हैं। साथ ही मृत्यु के भय से उद्विग्न रहा करते हैं।[1]

गर्भ में आये हुए प्राणी मल-मूत्र और पसीनों के बीच में रहकर खारे, खट्टे और कड़वे आदि रसों से, जिनका स्पर्श अत्यन्त कठोर और दुःख दायी होता है, पकते रहते हैं, जिससे उन्हें बड़ा भारी कष्ट होता है।[2] मांस लोलुप जीव जन्म लेने पर भी परवश होते हैं। वे बार-बार शस्त्रों से काटे और पकाये जाते हैं। उनकी यह बेबसी प्रत्यक्ष देखी जाती है। वे अपने पापों के कारण कुम्भीपाक नरक में राँधे जाते हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेकर गला घोंट-घोंटकर मारे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें बारंबार संसार चक्र में भटकना पड़ता है। इस भूमण्डल पर अपने आत्मा से बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं है। इसलिये सब प्राणियों पर दया करे और सबको अपना आत्मा ही समझे। राजन! जो जीवन भर किसी भी प्राणी का मांस नहीं खाता, वह स्वर्ग में श्रेष्ठ एवं विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। जो जीवित रहने की इच्छा वाले प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं। इस विषय में मुझे संशय नहीं है। भरतनन्दन![3] ‘मां स भक्षयते यस्मान् भक्षयिष्ये तमप्यहम्।’ अर्थात् ‘आज मुझे वह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा।’ यही मांस का मांसत्त्व है- इसे ही मांस शब्द का तात्पर्य समझो।

अहिंसाधर्म की प्रशंसा

राजन! इस जन्म में जिस जीव की हिंसा होती है, वह दूसरे जन्म में सदा ही अपने घातक का वध करता है। फिर भक्षण करने वाले को भी मार डालता है। जो दूसरों की निन्दा करता है, वह स्वयं भी दूसरों के क्रोध आर द्वेष का पात्र होता है। जो जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है उस-उस शरीर भी उस-उस कर्म का फल भोग्ता है। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है। अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है और अहिंसा परम सुख है। सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है- यह सब मिलकर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकता। जो हिंसा नहीं करता, उसकी तपस्या अक्षय होती है। वह सदा यज्ञ करने का फल पाता है। हिंसा न करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों के माता-पिता के समान है। कुरुश्रेष्ठ! यह अहिंसा का फल है। यही क्या, अहिंसा का तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसा से होने वाले लाभों का सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 116 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 116 श्लोक 19-32
  3. जिसका वध किया जाता है, वह प्राणी कहलाता है-

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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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