भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 158 में भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! युधिष्ठिर! ने पूछा- राजन! आप सदा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। अतः जनेश्वर! मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन सा लाभ देखकर उनका पूजन करते थे? महान व्रतधारी महाबाहो! ब्राह्मणों की पूजा से भविष्य में मिलने वाले किस फल की ओर दृष्टि रखकर आप उनकी आराधना करते थे? यह सब मुझे बताइये।

भीष्म का संवाद

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! ये महान व्रतधारी परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण-पूजा से होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं; अतः वही तुम से इस विषय में सारी बातें बतायेंगे। आज मेरा बल, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन और मेरे दोनों नेत्र तथा मेरा विशुद्ध ज्ञान भी सब एकत्रित हो गये हैं। अतः जान पड़ता है कि अब मेरा शरीर छूटने में अधिक विलम्ब नहीं है। आज सूर्य देव अधिक तेजी से नहीं चलते हैं। पार्थ! पुराणों में जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के (अलग-अलग) धर्म बतलाये गये हैं तथा सब वर्णों के लोग जिस-जिस धर्म की उपासना करते हैं, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब जो कुछ बाकी रह गया हो, उसकी भगवान श्रीकृष्ण से शिक्षा लो। इन श्रीकृष्ण का जो स्वरूप है और जो इनका पुरातन बल है, उसे ठीक-ठीक मैं जानता हूँ।

श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन

कौरवराज! भगवान श्रीकृष्ण अप्रमेय हैं; अतः तुम्हारे मन मे संदेह होने पर यही तुम्हें धर्म का उपदेश करें। श्रीकृष्ण ने ही इस पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग की सृष्टि की है। इन्हीं के शरीर से पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ है। यही भयंकर बल वाले वराह के रूप में प्रकट हुए थे तथा इन्हीं पुराण-पुरुष ने पर्वतों और दिशाओं को उत्पन्न किया है। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, चारों दिशाएँ तथा चारों कोण- ये सब भगवान श्रीकृष्ण से नीचे हैं। इन्हीं से सृष्टि की परम्परा प्रचलित हुई है तथा इन्होंने ही इस प्राचीन विश्व का निर्माण किया है। कुन्तीनन्दन! सृष्टि के आरम्भ में इनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ और उसी के भीतर अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी स्वतः प्रकट हुए। जिन्होंने उस घोर अन्धकार का नाश किया है, जो समुद्र को भी डाँट बताता हुआ सब ओर व्याप्त हो रहा था (अर्थात जो अगाध और अपार था)। पार्थ! सत्ययुग में श्रीकृष्ण सम्पूर्ण धर्मरूप से विराजमान थे, नेत्रों में पूर्णज्ञान यश विवेकरूप से स्थित थे, द्वापर में बलरूप से स्थित हुए थे और कलियुग में अधर्म रूप से इस पृथ्वी पर आयेंगे (अर्थात उस समय अधर्म ही बलवान होगा)। इन्होंने ही प्राचीन काल में दैत्यों का संहार किया और ये ही दैत्य सम्राट बलि के रूप में प्रकट हुए। ये भूतभावन प्रभु ही भूत और भविष्य इनके ही स्वरूप हैं तथा ये ही इस सम्पूर्ण जगत के रक्षा करने वाले हैं। जब धर्म का ह्रास होने लगता है, तब ये शुद्ध अन्तःकरण वाले श्रीकृष्ण देवताओं तथा मनुष्यों के कुल में अवतार लेकर स्वयं धर्म में स्थित हो उसका आचरण करते हुए उसकी स्थापना तथा पर और अपर लोकों की रक्षा करते हैं।[1] कुन्तीनन्दन! ये त्याज्य वस्तु का त्याग करके असुरों का वध करने के लिये स्वयं कारण बनते हैं। कार्य, अकार्य और कारण सब इन्हीं के स्वरूप हैं। ये नारायण देव ही भूत, भविष्य और वर्तमान काल में किये जाने वाले कर्मरूप हैं। तुम इन्हीं को राहु, चन्द्रमा और इन्द्र समझो। श्रीकृष्ण ही विश्वकर्मा, विश्वरूप, विश्वभोक्ता, विश्वविधाता और विश्वविजेता हेै। वे ही एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में रक्त से भरा खप्पर लिये विकराल रूप घारण करते हैं। अपने नाना प्रकार के कर्मों से जगत में विख्यात हुए श्रीकृष्ण की ही सग लोग स्तुमि करते हैं। सैंकड़ो गन्धर्व, अप्सराएँ तथा देवता सदा इनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। राक्षस भी इनसे सम्मति लिया करते हैं।[2]

एकमात्र ये ही धन के रक्षक और विजय के अभिलाषी हैं। यज्ञ में स्तोता लोग इन्हीं की स्तुति करते हैं। समागम करने वाले विद्वान रथन्तर साम में इन्हीं के गुण गाते हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण वेद के मंत्रों से इन्हीं का स्तवन करते हैं और यजुर्वेदी अध्वर्यु यज्ञ में इन्हीं को हविष्य का भाग देते हैं। भारत! इन्होंने ही पूर्वकाल में ब्रह्मरूप पुरातन गुहा में प्रवेश करके इस पृथ्वी का जल में प्रलय होना देखा है। इन सृष्टि कर्म करने वाले श्रीकृष्ण ने दैत्यों, दानवों तथा नागों को विक्षुब्ध करके इस पृथ्वी का रसातल से उद्धार किया है। व्रज की रक्षा के लिये गोवर्धन पर्वत उठाने के समय इन्द्र आदि देवताओें ने इनकी स्तुति की थी। भरतनन्दन! ये एकमात्र श्रीकृष्ण ही समस्त पशुओं (जीवों) के अधिपति हैं। इनको नाना प्रकार के भोजन अर्पित किये जाते हैं। युद्ध में ये ही विजय दिलाने वाले माने जाते हैं। पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक सभी इन सनातन पुरुष श्रीकृष्ण के वश में रहते हैं। इन्होंने कुम्भ में देवताओं (मित्र और वरुण)- का वीर्य स्थापित किया था; जिससे महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति हुई बतायी जाती है। से ही सर्वत्र विचरने वाले वायु हैं, तीव्रगामी अश्व हैं, सर्वव्यापी हैं, अंशुमाली सूर्य और आदि देवता हैं। इनहोंने ही समस्त असुरों पर विजय पायी तथा इन्होंने ही अपने तीन पदों से तीनों को नाप लिया था। ये श्रीकृष्ण सम्पूर्ण देवताओं, पितरों ओर मनुष्यों के आत्मा हैं। इन्हीं को यज्ञवेत्ताओं का यज्ञ कहा गया है। ये ही दिन और रात का विभाग करते हुए सूर्यरूप में उदित होते हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन इन्हीं के दो मार्ग हैं। इन्हीं के ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में पृथ्वी को प्रकाशित करने वाली किरणें फैलती हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण इन्हीं की सेवा करते हैं और इन्हीं के प्रकाश का सहारा लेकर सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं। ये यज्ञकर्ता श्रीकृष्ण प्रत्येक मास में यज्ञ करते हैं। प्रत्येक यज्ञ में वेदज्ञ ब्राह्मण इन्हीं के गुण गाते हैं। ये ही तीन नाभियों, तीन धामों और सात अश्वों से युक्त इस संवत्सर-चक्र को धारण करते हैं। वीर कुन्तीनन्दन! ये महातेजस्वी ओर सर्वत्र व्याप्त रहने वाले सर्वसिंह श्रीकृष्ण अकेले ही अन्धकारनाशक सूर्य और समस्त कार्यों का कर्ता समझो। इन्हीं महात्मा वासुदेव ने एक बार अग्निस्वरूप होकर खाण्डव वन की सूखी लकडि़यों में व्याप्त हो पूर्णतः तृप्ति का अनुभव किया था। ये सर्वव्यापी प्रभु ही राक्षसों और नागों को जीतकर सबको अग्नि में ही होम देते हैं।[2]इन्होंने ही अर्जुन को श्वेत अश्व प्रदान किया था। इन्होंने ही समस्त अश्वों की सृष्टि की थी। ये ही संसार रूपी रथ को बाँधने वाले बन्धन हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण ही इस रथ के चक्र हैं। ऊर्ध्व, मध्य और अधः- जिसकी गति है। काल, अदृष्ट, इच्छा और संकल्प- ये चार जिसके घोड़े हैं। सफेद, काला और लाल रंग का त्रिविध कर्म ही जिसकी नाभि है। वह संसार-रथ इन श्रीकृष्ण के ही अधिकार में है। पाँचों भूतों के आश्रयरूप श्रीकृष्ण ने ही आकाश की सृष्टि की है। इन्होंने ही पृथ्वी, स्वर्गलोक और अन्तरिक्ष की रचना की है, अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी इन हृषीकेश ने ही वन और पर्वतों को उत्पन्न किया है। इन्हीं वासुदेव ने वज्र का प्रहार करने के लिये उद्यत हुए इन्द्र को मार डालने की इच्छा से कितनी ही सरिताओं को लाँघा और उन्हें परास्त किया था। वे ही महेन्द्ररूप हैं। ब्राह्मण बड़े-बड़े यज्ञों में सहस्रों पुरानी ऋचाओं द्वारा एकमात्र इन्हीं की स्तुति करते हैं।[3]

राजन! इन श्रीकृष्ण के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं हे जो अपने झार में महातेजस्वी दुर्वासा को ठहरा सके। इनको ही अद्वितीय पुरातन ऋषि कहते हैं। ये ही विश्व निर्माता हैं और अपने स्वरूप से ही अनेक पदार्थों की सृष्टि करते रहते हैं। ये देवताओं के देवता होकर भी वेदों का अध्ययन करते और प्राचीन विधियों का आश्रय लेते हैं। लौकिक और वैदिक कर्म का जो फल है, वह सब श्रीकृष्ण ही हैं, ऐसा विश्वास करो। ये ही सम्पूर्ण लोकों की शुक्ल ज्योति हैं तथा तीनों लोक, तीनों लोकपाल, त्रिविध अग्नि, तीनों व्याहृतियाँ और सम्पूर्ण देवता भी ये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं। संवत्सर, ऋतु, पच, दिन-रात, कला, काष्ठा, मात्रा, मुहूर्त, लव और क्ष्रण- इन सबको श्रीकृष्ण का ही स्वरूप समझो। पार्थ! चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, अमावस्या, पौर्णमासी, नक्षत्रयोग तथा ऋतु- इन सबकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से ही हुई है। रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, प्रजापति, देवमाता अदिति और सप्तर्षि- ये सब-के-सब श्रीकृष्ण से ही प्रकट हुए हैं। ये विश्वरूप श्रीकृष्ण ही वायु रूप धारण करके संसार को चेष्टा प्रदान करते हैं, अग्निरूप होकर सबको भस्म करते हैं, जल का रूप धारण करके जगत को डुबोते हैं और ब्रह्मा होकर सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। ये स्वयं वेद्यस्वरूप होकर भी वेदवेद्य तत्त्व को जानने का प्रयत्न करते हैं। विधिरूप होकर भी विहित कर्मों का आश्रय लेते हैं। ये ही धर्म, वेद और बल में स्थित हैं। तुम यह विश्वास करो कि सारा चराचर जगत श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। ये विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण परम ज्योतिर्मय सूर्य का रूप धारण करके पूर्व दिशा में प्रकट होते हैं। जिनकी प्रभा से सारा जगत् प्रकाशित होता है। से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन्होंने पूर्वकाल में पहले जल की सृष्टि करके फिर सम्पूर्ण जगत् को उत्पनन किया था। ऋतु, नाना प्रकार के उत्पात, अनेकानेक अद्भुत पदार्थ, मेघ, बिजली, ऐरावत और सम्पूर्ण चराचर जगत की इन्ही से उत्पत्ति हुई है। तुम इन्हीं को समस्त विश्व का आत्मा- विष्णु समझो। ये विश्व के निवास स्थान और निर्गुण हैं। इन्हीं को वासुदेव, जीवभूत संकर्षण, प्रद्युम्न और चौथा अनिरुद्ध कहते हैं। ये आतमयोनि परमात्मास सबको अपनी आज्ञा के अधीन रखते हैं।[3]

कुन्तीकुमार! ये देवता, असुर, मनुष्य, पितर और तिर्यग रूप से पाँच प्रकार के संसार की सृष्टि करने की इच्छा रखकर पन्चभूतों से युक्त जगत के प्रेरक होकर सबको अपने अधीन रखते हैं। उन्होंने ही क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की सृष्टि की है। इन्होंने जरायुज आदि चार प्रकार के प्राणियों से युक्त इस चराचर जगत की सुष्टि करके चतुर्विध भूत समुदाय और कर्म- इन पाँचों की बीजरूपा भूमिका निर्माण किया। ये ही आकाश स्वरूप बनकर इस पृथ्वी पर प्रचुर जल की वर्षा करते हैं। राजन! इन्होंने ही इस विश्व को उत्पन्न किया है और ये ही आत्मयोनि श्रीकृष्ण अपनी ही शक्ति से सबको जीवन प्रदान करते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, लोक, ऋषि, पितर, प्रजा और संक्षेपतः सम्पूर्ण प्राणियों को इन्हीं से जीवन मिलता है। ये भगवान भूतनाथ ही सदा विधिपूर्वक समस्त भूतों की सृष्टि की इच्छा रखते हैं। शुभ-अशुभ और स्थावर- जंगमरूप यह सारा जगबत श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ है, इस बात पर विश्वास करो। भूत, भविष्य और वर्तमान सब श्रीकृष्ण का ही स्वरूप हैं। यह तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये।[4]प्राणियों का अन्तकाल आने पर साक्षात श्रीकृष्ण ही मृत्यु रूप बन जाते हैं। ये धर्म के सनातन रक्षक हैं। जो बात बीत चुकी है तथा जिसका अभी कोई पता नहीं है, वे सब श्रीकृष्ण से ही प्रकट होते हैं, यह निश्चित रूप से जान लो। तीनों लोकों में जो कुछ भी उत्तम, पवित्र तथा शुभ या अशुभ वस्तु है, वह सब अचिन्त्य भगवान श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है, श्रीकृष्ण से भिनन कोई वस्तु है, ऐसा सोचना अपनी विपरीत बुद्धि का ही परिचय देना है। भगवान् श्रीकृष्ण की ऐसी ही महिमा है। बल्कि ये इससे भी अधिक प्रभावशाली हैं। ये ही परम पुरुष अविनाशी नारायण हैं। ये ही स्थावर-जंगमरूप जगत् के आदि, मध्य और अन्त हैं तथा संसार में जन्म लेने की इच्छा वाले प्राणियों की उत्पत्ति के कारण भी ये ही हैं। इन्हीं को अविकारी परमात्मा कहते हैं।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-12
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 13-25
  3. 3.0 3.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 26-39
  4. 4.0 4.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 40-46

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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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