त्रिवर्ग का निरूपण

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में त्रिवर्ग का निरूपण वर्णन हुआ है।[1]

शिव कथन

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! विद्या, वार्ता, सेवा, शिल्पकला और अभिनय-कला- ये मनुष्यों के जीवन निर्वाह के लिये पाँच वृत्तियाँ बनायी गयी हैं। देवि! सभी मनुष्यों के लिये विद्या का योग पहले ही निश्चित कर दिया जाता है। विद्या से लोग कर्तव्य और अकर्तव्य को जानते हैं, अन्यथा नहीं। विद्या से ज्ञान बढ़ता है, ज्ञान से तत्त्व का दर्शन होता है और तत्त्व का दर्शन कर लेने के पश्चात् मनुष्य विनीतचित्त होकर समस्त पुरुषार्थों का भाजन हो जाता है। विद्या से विनीत हुआ पुरुष संसार में शुभ जीवन बिता सकता है, अतः अपने आपको पहले विद्या द्वारा पुरुषार्थ को भाजन बनाकर क्रोधविजयी एवं जितेन्द्रिय पुरुष सम्पूर्ण भूतों के आत्मा-परमात्मा का चिन्तन करे। परमात्मा का चिन्तन करके मनुष्य सत्पुरुषों के लिये भी पूजनीय बन जाता है।

शिव द्वारा त्रिवर्ग का निरूपण

जीवात्मा पहले कुल परम्परा से चले आते हुए सदाचार का ही आश्रय ले। देवि! यदि विद्या से अपनी जीविका चलाने की इच्छा हो तो शुश्रूषा आदि गुणों से सम्पन्न हो किसी गुरु से राजीविद्या अथवा लोकविद्या की शिक्षा ग्रहण करे और उसे ग्रन्थ एवं अर्थ के अभ्यास द्वारा प्रयत्नपूर्वक दृढ़ करे। देवि! ऐसा करने से मनुष्य विद्या का फल पा सकता है, अन्यथा नहीं। न्याय से ही विद्याजनित फलों को पाने की इच्छा करे। वहाँ अधर्म को सर्वथा त्याग दे। यदि वार्तावृत्ति के द्वारा जीविका चलाने की इच्छा हो तो जहाँ सींचने के लिये जल की व्यवस्था हो, ऐसे खेत में तदनुरूप कार्य विधिपूर्वक करे। अथवा यथासमय उस द्वेष की आवश्यकता के अनुसार वस्तु, उसे मूल्य, व्यय, लाभ और परिश्रम आदि का भली-भाँति विचार करके व्यापार करे। देशवासी पुरुष को पशुओं का पालन-पोषण भी अवश्य करना चाहिये। अनेक प्रकार के बहुसंख्यक पशु भी उसके लिये अर्थप्राप्ति के साधक हो सकते हैं। जो कोई बुद्धिमान मनुष्य सेवा द्वारा जीवननिर्वाह करना चाहे तो वह मन को संयम में रखकर श्रवण करने योग्य मीठे वचनों का प्रयोग करे। जैसे-जैसे सेव्य स्वामी संतुष्ट रहे, वैसे ही वैसे उसे संतोष दिलावे। सेवक के गुणों से सम्पन्न हो अपने आपको स्वामी के आश्रित रखे। स्वामी का कभी अप्रिय न करे, यही संक्षेप से सेवा का स्वरूप है। उसके साथ वियोग होने से पहले अपने लिये दूसरी कोई गति न देखे। शिल्पकर्म अथवा कारीगरी और नाट्यकर्म प्रायः निम्न जाति के लोगों में चलते हैं। शिल्प और नाट्य में भी यथायोग्य न्यायानुसार कार्य का वेतन लेना चाहिये।

सरल व्यवहार वाले सभी मनुष्यों से सरलता से ही वेतन लेना चाहिये। कुटिलता से वेतन लेने वाले के लिये वह पाप का कारण बनता है। जीविका-साधन के जितने उपाय हैं, उन सबके आरम्भों पर पहले न्यायपूर्वक विचार करे। अपनी शक्ति, उपाय, देश, काल, कारण, प्रवास, प्रक्षेप और फलोदय आदि के विषय में युक्तिपूर्वक विचार एवं चिन्तन करके दैव की अनुकूलता देखकर जिसमें अपना हित निहित दिखायी दे, उसी उपाय का आलम्बन करे। इस प्रकार अपने लिये जीविकावृत्ति चुनकर उसका सदा ही पालन करे और ऐसा प्रयत्न करे, जिससे वह दैव और मानुष विघ्नों से पुनः उसे छोड़ न बैठे। रक्षा, वृद्धि और उपभोग करते हुए उस वृत्ति को पाकर नष्ट न करे। यदि रक्षा आदि की चिन्ता छोड़कर केवल उपभोग ही किया जाय तो पर्वत-जैसी धनराशि भी नष्ट हो जाती है।[1]

आजीविका के उपायों का वर्णन

आजीविका के उपायों से धन का उपार्जन करके विद्वान पुरुष धर्म, अर्थ, काम तथा संकट-निवारण- इन चारों के उद्देष्य से उस धन के चार भाग करे। भामिनि! उन चारों विभागों में भी जैसा विधान है, उसे सुनो। यज्ञ करने, दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करके अन्न देने, देवताओं, ब्राह्मणों तथा पितरों की पूजा करने, मूलधन की रक्षा करने, सत्पुरुषों के रहने तथा क्रियापरायण धर्मात्मा पुरुषों के सहयोग के लिये तथा इसी प्रकार अन्यान्य सत्कर्मों के उद्देश्य से धर्मार्थ धन का दान करे। फल की प्राप्ति का विचार न करके धर्म के कार्य में धन देना चाहिये। ऐश्वर्यपूर्ण स्थान की प्राप्ति के लिये, राजा का प्रिय होने के लिये, कृषि, गोरक्षा अथवा वाणिज्य के आरम्भ के लिये, मन्त्रियों और मित्रों के संग्रह के लिये, आमन्त्रण और विवाह के लिये, पूर्ण पुरुषों की वृत्ति के लिये, धन की उत्पत्ति एवं प्राप्ति के लिये तथा अनर्थ के निवारण और ऐसे ही अन्य कार्यों के लिये अर्थार्थ धन का त्याग करना चाहिये।

हेतुयुक्त अनुबन्ध (सकारण सम्बन्ध) देखकर उसके लिये धन का त्याग करना चाहिये। अर्थ अनर्थ का निवारण करता है तथा धन एवं अभीष्ट फल की प्राप्ति कराता है। निर्धन मनुष्य सैकड़ों यत्न करके भी धन नहीं पा सकते। अतः धन की रक्षा करनी चाहिये तथा विधिपूर्वक उसका दान करना चाहिये। शरीर के पोषण के लिये विशेष प्रकार के आहार की व्यवस्था तथा ऐसे ही अन्य कार्यों के निमित्त कामार्थ धन का व्यय करना उचित है। गुण-दोष का विचार करके धर्म, अर्थ और काम सम्बन्धी धनों का तत्तत कार्यों में व्यय करना चाहिये। शुचिस्मिते! धन का जो चौथा भाग हैए उसे आपत्तिकाल के लिये सदा सुरक्षित रखे। शोभने! राज्य-विध्वंस का निवारण करने, दुर्भिक्ष के समय काम आने, बड़े-बड़े रोगों से छुटकारा पाने, बुढ़ापे में जीवन-निर्वाह करने, साहस और अमर्षपूर्वक शत्रुओं से बदला लेने, विदेश यात्रा करने तथा सब प्रकार की आपत्तियों से छुटकारा पाने आदि के उद्देश्य से अपने धन को अपने निकट बचाये रखना चाहिये। धन संकटों से छुड़ाने वाला है, इसलिये इस जगत में धनवानों को सुख होता है। वह धन यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है। इतना ही नहीं, वह परम यशस्वरूप है। धर्म, अर्थ और काम यह त्रिवर्ग कहलाता है। वह जिनके वश में होता है, उन सबके लिये कल्याणकारी होता है। ऐसा बर्ताव करने वाले लोग उभय लोक में अपना हित साधन करते हैं।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-9
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-10

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दान-धर्म-पर्व
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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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