ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 83 में ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताने का वर्णन हुआ है[1]-

गौओं का माहात्मय का वर्ण्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जो मनुष्य सदा यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन और गोदान करते हैं उन्हें प्रतिदिन यज्ञदान और यज्ञ करने का फल मिलता है। दही और गोघृत के बिना यज्ञ नहीं होता। उन्हीं से यज्ञ का यज्ञत्व सफल होता है। अत: गौओं को यज्ञ का मूल कहते हैं। सब प्रकार के दानों में गोदान ही उत्तम माना जाता है; इसलिये गौऐं श्रेष्ठ, पवित्र तथा परम पावन हैं। मनुष्य को अपने शरीर की पुष्टि तथा सब प्रकार के विघ्नों की शांति के लिये भी गौओं का सेवन करना चाहिये। इनके दूध, दही और घी सब पापों से छुड़ाने वाले हैं। भरतश्रेष्ठ! गौऐं इहलोक और परलोक में भी महान तेजोरूप मानी गयी हैं। गौओं से बढ़कर पवित्र कोई वस्तु नहीं है।

युधिष्ठिर! इस विषय में विद्वान पुरुष इन्द्र और ब्रह्मा जी के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में देवताओं द्वारा दैत्यों के परास्त हो जाने पर जब इन्द्र तीनों लोकों के अधीश्‍वर हुए तब समस्त प्रजा मिलकर बड़ी प्रसन्नता के साथ सत्य और धर्म में तत्पर रहने लगी। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर एक दिन जब ऋषि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, असुर, गरुड़ और प्रजापति गण ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित थे, नारद, पर्वत, विश्‍वावसु, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व जब दिव्य तान छेड़कर गाते हुए वहाँ उन भगवान ब्रह्मा जी की उपासना करते थे, वायुदेव दिव्य पुष्पों को सुगंध लेकर बह रहे थे, पृथक- पृथक ऋतुऐं भी उत्तम सौरभ से युक्त दिव्य पुष्प भेंट कर रही थीं, देवताओं का समाज जुटा था, समस्त प्राणियों का समागम हो रहा था, दिव्य - वाद्यों की मनोरम ध्वनि गूंज रही थी तथा दिव्यांगनाओं और चारणों से वह समुदाय घिरा हुआ था।

ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना

देवराज इन्द्र ने देवेश्‍वर ब्रह्मा जी को प्रणाम करे पूछा- ‘भगवन! पितामह! गोलोक समस्त देवताओं और लोकपालों के ऊपर क्यों है? मैं इसे जानाना चाहता हूँ। प्रभो! गौओं ने यहाँ किस तपस्या का अनुष्ठान अथवा ब्रह्मचर्य का पालन किया है, जिससे वे रजोगुण से रहित होकर देवताओं से भी ऊपर स्थान में सुखपूर्वक निवास करती हैं?

तब ब्रह्मा जी ने बलसूदन इन्द्र से कहा- ‘बलासुर का विनाश करने वले देवेन्द्र! तुमने सदा गौओं की अवहेलना की है।' प्रभो! इसलिये तुम इनका माहत्म्य नहीं जानते। सुरश्रेष्ठ! गौओं का महान प्रभाव और माहात्मय मैं बताता हूं, सुनो। ‘वासव! 'गौओं का यज्ञ का अंग और साक्षात यज्ञरूप बतलाया गया है; क्योंकि इनके दूध, दही और घी के बिना यज्ञ किसी तरह सम्पन्न नहीं हो सकता। ‘ये अपने दूध-घी से प्रजा का भी पालन पोषण करती हैं।' इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते तथा नाना प्रकार के धान्य एवं बीज उत्पन्न करते हैं। ‘उन्हीं से यज्ञ सम्पन्न होते और हव्य-कव्य का भी सर्वथा निर्वाह होता है। सुरेश्‍वर। इन्हीं गौओं से दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। ये गौऐं बड़ी पवित्र होती हैं। बैल भूख-प्यास से पीड़ित होकर भी नाना प्रकार के बोझ ढोते रहते हैं। इस प्रकार गौऐं अपने कर्म से ऋषियों तथ प्रजाओं का पालन करती हैं। वासव! इनके व्यवहार में माया नहीं होती। ये सदा सत्कर्म में ही लगी रहती हैं। ‘इसी से ये गौऐं हम सब लोगों के ऊपर स्थान में निवास करती हैं।' शक्र तुम्हारे प्रश्‍न के अनुसार मैंने यह बात बताई कि गौऐं देवताओं के ऊपर स्थान में क्यों निवास करती हैं। शतक्रतु इन्द्र! इसके सिवा ये गौऐं वरदान भी प्राप्त कर चुकी हैं और प्रसन्न होने पर दूसरों को वर देने की शक्ति रखती हैं।’ सुरभि गौऐं पुण्य कर्म करने वाली और शुभलक्षिणा होती हैं। सुरश्रेष्ठ! बलसूदन! वे जिस उद्वेश्‍य से पृथ्वी पर गयी हैं, उसको भी मैं पूर्णरूप से बता रहा हूं, सुनो।

‘तात! पहले सत्ययुग में जब महामना देवेश्‍वरगण तीनों लोकों पर शासन करते थे और अमरश्रेष्ठ जब देवी अदिति पुत्र के लिये नित्य एक पैर से खड़ी रहकर अत्यन्त घोर एवं दुष्कर तपस्या करती थीं और उस तपस्या से संतुष्ट होकर साक्षात भगवान विष्णु ही उनके गर्भ में पदार्पण करने वाले थे उन्हीं दिनों की बात है, महादेवी अदिति को महान तप करती देख दक्ष की धर्मपारायण पुत्री सुरभि देवी ने बड़े हर्ष के साथ घोर तपस्या आरंभ की। ‘कैलास के रमणीय शिखर पर जहाँ देवता और गन्धर्व सदा विराजित रहते हैं, वहाँ वह उत्तम योग का आश्रय ले ग्यारह हजार वर्षों तक एक पैर से खड़ी रही।' उसकी तपस्या से देवता, ऋषि और बड़े-बड़े नाग भी संतप्त हो उठे। ‘वे सब लोग मेरे साथ ही सुभलक्षिणा तपस्विनी सुरभि देवी के पास जाकर खड़े हुए। 'तब मैंने वहाँ उससे कहा-‘सती-साध्वी देवी। तुम किस लिये यह घोर तपस्या करती हो?' 'शोभने! महाभागे! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। देवी! तू इच्छानुसार वर मांग।’ पुरन्दर! इस तरह मैंने सुरभि को वर मांगने के लिये प्रेरित किया। सुरभि ने कहा- भगवन! निष्पाप लोक पितामह। मुझे वर लेने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। मेरे लिये तो सबसे बड़ा वर यही है कि आज आप मुझ पर प्रसन्न हो गये हैं।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 1-24
  2. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 25-52

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दान-धर्म-पर्व
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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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