- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 142 में वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
शिव से पार्वती का अनुरोध
पार्वती ने कहा- भगवन! नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले एकाग्रचित्त वानप्रस्थी महात्मा नदियों के रमणीय तट प्रदेशों में, झरनों में, सरिताओं के तटवर्ती निकुंजों में, पर्वतों पर, वनों में और फल-मूल से सम्पन्न पवित्र स्थानों में निवास करते हैं। कल्याणकारी देवेश्वर! वानप्रस्थी महात्मा अपने शरीर को ही कष्ट पहुँचाकर जीवन-निर्वाह करते हैं, अतः उनके पालन करने योग्य जो पवित्र कर्तव्य या नियम है, उसी को मैं सुनना चाहती हूँ।
भगवान महेश्वर ने कहा- देवि! (गृहस्थ एवं) वानप्रस्थों का जो धर्म है, उसको मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो और सुनकर एकचित्त हो अपनी बुद्धि को धर्म में लगाओ। नियमों का पालन करके सिद्ध हुए वनवासी साधु वानप्रस्थों को यह कर्म करना चाहिये। कैसा कर्म? यह बताता हूँ, सुनो। मनुष्य पहले गृहस्थ होकर पुत्रों के उत्पादन द्वारा पितरों के ऋण से उऋण हो पत्नी से सम्पन्न होने वाले कार्य की पूर्ति करके धर्म सम्पादन के लिये गृह का परित्याग कर दे। मन को धैर्यपूर्वक स्थिर करके मनुष्य दृढ़ निश्चय के साथ निर्द्वन्द्व (एकाकी) होकर अथवा स्त्री को साथ रखकर वनवास के लिये प्रस्थान करे।
नदी और वन से युक्त जो परम पुण्यमय प्रदेश हैं, वे प्रायः अज्ञान से मुक्त और तीर्थों तथा देवस्थानों से सुशोभित हैं। उनमें जाकर विधि का ज्ञान प्राप्त करके क्रमशः ऋषिधर्म की दीक्षा ग्रहण करे और दीक्षित होने के पश्चात एकचित्त हो परिचर्या आरम्भ करे। सबेरे उठना, शौचाचार का पालन करना, सब देवताओं को मस्तक झुकाना, शरीर में गाय का गोबर लगाकर नहाना, दोष और प्रमाद का त्याग करना, सायंकाल और प्रातःकाल स्नान एवं विधिवत् अग्निहोत्र करना, ठीक समय पर शोचाचार का पालन करना, सिर पर जटा और कटिप्रदेश में वल्कल धारण करना, समिधा और पुष्प का संग्रह करने के लिये सदा वन में विचरना, समय पर नीवार से आग्रयण कर्म (नवशस्येष्टि यज्ञ का सम्पादन) करना, साग और मूल का संकलन करना तथा सदा अपने घर को शुद्ध रखना- आदि कार्य वानप्रस्थ मुनि के लिये अभीष्ट है। इनसे उसके धर्म की सिद्धि होती है।
पहले अतिथियों के सम्मुख जाय, फिर सदा उनकी सेवा में तत्पर रहे। पाद्य और आसन आदि के द्वारा उनकी पूजा करके उन्हें भोजन के लिये बुलावे। समय पर ऐसी वस्तुओं से रसोई बनावे, जो गाँव में पैदा न हुई हों। उस रसोई के द्वारा पहले देवताओं और पितरों का पूजन करे। तत्पश्चात अतिथि को सत्कारपूर्वक भोजन करावे। ऐसा करने वाले वानप्रस्थ को सनातन धर्म की सिद्धि प्राप्त होती है।
धर्मासन पर बैठे हुए शिष्ट पुरुषों द्वारा उसे धर्मार्थयुक्त कथाएँ सुननी चाहिये। उसे अपने लिये पृथक आश्रम बना लेना चाहिये। वह पृथ्वी अथवा प्रस्तर की शय्या पर सोये। वानप्रस्थ मुनि व्रत और उपवास में तत्पर रहे, दूसरों पर क्षमा का भाव रखे, अपनी इन्द्रियों को वश में करे। दिन-रात यथासम्भव शौचाचार का पालन करके धर्म का चिन्तन करे। उन्हें दिन में तीन बार स्नान, पितरों और देवताओं का पूजन, अग्निहोत्र तथा विधिवत यज्ञ करने चाहिये। वानप्रस्थ को जीविका के लिये नीवार (तिन्नी का चावल) और फल-मूल का वेन करना चाहिये तथा शरीर में स्निग्धता लाने या तेल से होने वाले कार्यों के निर्वाह के लिये इंगुद और रेड़ी के तेल का सेवन करना उचित है।
उन्हें योग का अभ्यास करके उसमें सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये। काम और क्रोध को त्याग देना चाहिये। वीरासन से बैठकर वीरस्थान (विशाल और घने जंगल) में निवास करने चाहिये। मन को एकाग्र रखकर योगसाधन में तत्पर रहना चाहिये। श्रेष्ठ वानप्रस्थ को गर्मी में पंचाग्नि सेवन करना चाहिये। हठयोगशास्त्र में प्रसिद्ध मण्डूकयोग के अभ्यास में नियमपूर्वक लगे रहना चाहिये। किसी भी वस्तु का न्यायानुकूल सेवन करना चाहिये सदा वीरासन से बैठना और वेदी या चबूतरे पर सोना चाहिये।
धर्म में बुद्धि रखने वाले वानस्थ मुनियाँ कोशी ततोयाग्नियोग का आचरण करना चाहिये अर्थात उन्हें सर्दी के मौसम में रात को जल के भीतर बैठना या खडे़ रहना, बरसात में खुले मैदान में सोना और ग्रीष्म-ऋतु में पंचाग्नि का सेवन करना चाहिये। वे वायु अथवा जल पीकर रहें। सेवार का भोजन करें। पत्थर से अन्न या फल को कूँचकर खायँ अथवा दाँतों से चबाकर ही भक्षण करें। सम्प्रक्षाल के नियम से रहें अर्थात दूसरे दिन के लिये आहार संग्रह करके न रखें। अधोवस्त्र की जगह चीर और वल्कल पहनें, उत्तरीय के स्थान में मृगछाले से ही अपने अंगों को आच्छादित करें।[1]
उन्हें समय के अनुसार धर्म के उद्देश्य से विधिपूर्वक तीर्थ आदि स्थानों की ही यात्रा करनी चाहिये। वानप्रस्थ को सदा वन में ही रहना, वन में ही विचरना, वन में ही ठहरना, वन के ही मार्ग पर चलना और गुरु की भाँति वन की शरण लेकर वन में ही जीवन निर्वाह करना चाहिये। प्रतिदिन अग्निहोत्र और पंचमहायज्ञों का सेवन वानप्रस्थों का धर्म है। उन्हें विभागपूर्वक वेदोक्त पंच यज्ञों का निरन्तर पालन करना चाहिये। अष्टमी तिथि को होने वाले अष्ट का श्राद्धरूप यज्ञ में तत्पर रहना, चातुर्मास्य व्रत का सेवन करना, पौर्णमास और दर्शादि यज्ञ तथा नित्य यज्ञ का अनुष्ठान करना वानप्रस्थ मुनि का धर्म है। वानप्रस्थ मुनि स्त्री-समागम, सब प्रकार के संकर तथा सम्पूर्ण पापों से दूर रहकर वन में विचरते रहते हैं। स्त्रुक्-सुवा आदि यज्ञपात्र ही उनके लिये उत्तम उपकरण हैं। वे सदा आलवनीय आदि त्रिविध अग्नियों की शरण लेकर सदा उन्हीं की परिचर्या में लगे रहते हैं और नित्य सन्मार्ग पर चलते हैं। इस प्रकार अपने धर्म में तत्पर रहने वाले वे श्रेष्ठ पुरुष परमगति को प्राप्त होते हैं। वे मुनि सत्यधर्म का आश्रय लेने वाले और सिद्ध होते हैं, अतः महान् पुण्यमय ब्रह्मलोक तथा सनातन सोमलोक में जाते हैं। देवि! यह मैंने तुम्हारे निकट विस्तारयुक्त एवं मंगलमय वानप्रस्थधर्म का स्थूलभाव से वर्णन किया है।
शिव द्वारा धर्म फल प्राप्ति वर्णन
उमा देवी बोलीं- भगवन्! सर्वभूतेश्वर! समस्त प्राणियों द्वारा वन्दित महेश्वर! ज्ञानगोष्ठियों में मुनि समुदाय का जो धर्म निश्चित किया गया है, उसे बताइये। ज्ञानगोष्ठियों में जो सम्यक सिद्ध बताये गये हैं, वे वनवासी मुनि कोई तो एकाकी ही स्वच्छन्द विचरते हैं, कोई पत्नी के साथ रहते हैं। उनका धर्म कैसा माना गया है?
श्री महेश्वर ने कहा- देवि! सभी वानप्रस्थ तपस्या में संलग्न रहते हैं, उनमें से कुछ तो स्वच्छन्द विचरने वाले होते हैं। (स्त्री को साथ नहीं रखते) और कुछ अपनी-अपनी स्त्री के साथ रहते हैं। स्वच्छन्द विचरने वाले मुनि सिर मुड़ाकर गेरूए वस्त्र पहनते हैं, (उनका कोई एक स्थान नहीं होता) किंतु जो स्त्री के साथ रहते हैं, वे रात्रि को अपने आश्रम में ही ठहरते हैं।[2]
दोनों प्रकार के ही ऋषियों का यह महान कर्तव्य है कि वे प्रतिदिन तीनों समय जल में स्नान करें और अग्नि में आहुति डालें। समाधि लगावें, सन्मार्ग पर चलें और शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान करें। पहले जो तुम्हारे समक्ष वनवासियों के धर्म बताये गये हैं, उन सबका यदि वे पालन करते हैं तो उन्हें अपनी तपस्या का पूर्ण फल मिलता है। जो गृहस्थ दाम्पत्य धर्म का पालन करते हुए स्त्री को अपने साथ रखते हैं, उसके साथ ही इन्द्रियसंयमपूर्वक वेदविहित धर्म का आचरण करते हैं और केवल ऋतुकाल में ही स्त्री-समागम करते हैं, उन धर्मात्माओं को ऋषियों के बताये हुए धर्मों के पालन करने का फल मिलता है।
धर्मदर्शी पुरुषों को कामनावश किसी भोग का सेवन नहीं करना चाहिये। जो हिंसादोष से मुक्त होकर सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है, उसी को धर्म का फल प्राप्त होता है। जो सम्पूर्ण प्राणियेां पर दया करता है, सबके साथ सरलता का बर्ताव करता और समस्त भूतों को आत्मभाव से देखता है, वही धर्म के फल से युक्त होता है।
चारों वेदों में निष्णात होना और सब जीवों के प्रति सरलता का बर्ताव करना- ये दोनों एक समान समझे जाते हैं अथवा सरलता का ही महत्त्व अधिक माना जाता है। सरलता को धर्म कहते हैं और कुटिलता को अधर्म। सरलभाव से युक्त मनुष्य ही यहाँ धर्म के फल का भागी होता है। जो सदा सरल बर्ताव में तत्पर रहता है, वह देवताओं के समीप निवास करता है। इसलिये जो अपने धर्म का फल पाना चाहता हो, उसे सरलतापूर्ण बर्ताव से युक्त होना चाहिये। क्षमाशील, जितेन्द्रिय, क्रोधविजयी, धर्मनिष्ठ, अहिंसक और सदा धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है। जो पुरुष आलस्यरहित, धर्मात्मा, शक्ति के अनुसार श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वाला, सच्चरित्र और ज्ञानी होता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।[3]
उमा देवी बोलीं- सबको मान देने वाले महेश्वर! मैं यायावरों के धर्म को सुनना चाहती हूँ, आप महान अनुग्रह करके मुझे यह बताइये।
श्रीमहेश्वर ने कहा- भामिनि! तुम तत्पर होकर यायावरों के धर्म सुनो। व्रत और उपवास से उनके अंग-प्रत्यंग शुद्ध हो जाते हैं तथा वे तीर्थ-स्नान में तत्पर रहते हैं। उनमें धैर्य और क्षमा का भाव होता है। वे सत्यव्रत-परायण होकर एक-एक पक्ष और एक-एक मास का उपवास करके अत्यन्त दुर्बल हो जाते हैं। उनकी दृष्टि सदा धर्म पर ही रहती है। पवित्र मुस्कान वाली देवि! वे सर्दी, गर्मी और वर्षा का कष्ट सहन करते हुए बड़ी भारी तपस्या करते हैं और कालयोग से मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जाते हैं। वहाँ भी नाना प्रकार के भोगों से संयुक्त और दिव्यगन्ध से सम्पन्न हो दिव्य आभूषण धारण करके सुन्दर विमानों पर बैठते और दिव्यांगनाओं के साथ इच्छानुसार विहार करते हैं। देवि! यह सब यायावरों का धर्म मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो?
उमा ने कहा- प्रभो! वानप्रस्थ ऋषियों में जो चक्रचर (छकड़े से यात्रा करने वाले) हैं उनके धर्म को मैं जानना चाहती हूँ।
श्रीमहेश्वर ने कहा- शुभे! यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। चक्रचारी या शाकटिक मुनियों का धर्म सुनो। वे अपनी स्त्रियों के साथ सदा छकड़ों के बोझ ढोते हुए यथासमय छकड़ों द्वारा ही जाकर भिक्षा की याचना करते हैं। सदा तपस्या के उपार्जन में लगे रहते हैं। वे धीर मुनि तपस्या द्वारा अपने सारे पापों का नाश कर डालते हैं तथा काम और क्रोध से रहित हो सम्पूर्ण दिशाओं में पर्यटन करते हैं। शोभने! उसी जीवनचर्या से रहित हुए वे कालयोग से मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग में जाते हैं और वहाँ दिव्य भोगों से आनन्दित हो अपने मौज से घूमते-फिरते हैं। देवि! तुम्हारे इस प्रश्न का भी उत्तर दे दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो।
शाकटिक मुनियों के धर्म का वर्णन
उमा ने कहा- प्रभो! अब मैं वैखानसों का धर्म सुनना चाहती हूँ।
श्रीमहेश्वर ने कहा- शुभेक्षणे! वे जो वैखानस नाम वाले वानप्रस्थ हैं, बड़ी कठोर तपस्या में संलग्न रहते हैं। अपने तेज से देदीप्यमान होते हैं। सत्यव्रत परायण और धीर होते हैं। उनकी तपस्या में पाप का लेश भी नहीं होता है। उनमें से कुछ लोग अश्मकुट्ट (पत्थर से ही अन्न या फल को कूँचकर खाने वाले) होते हैं। दूसरे दाँतों से ही ओखली का काम लेते हैं, तीसरे सूखे पत्ते चबाकर रहते हैं, चौथे उन्छवृत्ति से जीविका चलाने वाले होते हैं। कुछ कापोती वृत्तिका आश्रय लेकर कबूतरों के समान अन्न के एक-एक दाने बीनते हैं। कुछ लोग पशुचर्या को अपनाकर पशुओं के साथ ही चलते और उन्हीं की भाँति तृण खाकर रहते हैं। दूसरे लोगब फेन चाटकर रहते हैं तथा अन्य बहुतेरे वैखानस मृगचर्या का आश्रय लेकर मृगों के समान उन्हीं के साथ विचरते हैं। कुछ लोग जल पीकर रहते, कुछ लोग हवा खाकर निर्वाह करते और कितने ही निराहार रह जाते हैं। कुछ लोग भगवान विष्णु के चरणारविन्दों का उत्तम रीति से पूजन करते हैं। वे रोग और मृत्यु से रहित हो घोर तपस्या करते हैं और अपनी ही शक्ति से प्रतिदिन मृत्यु को डराया करते हैं। उनके लिये इन्द्रलोक में ढेर-के-ढेर भोग संचित रहते हैं। वे देवतुल्य भोगों से सम्पन्न हो देवताओं की समानता प्राप्त कर लेते हैं।
सती साध्वी देवि! वे चिरकाल तक श्रेष्ठ अप्सराओं के साथ रहकर सुख का अनुभव करते हैं। यह तुमसे वैखानसों का धर्म बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो?
उमा ने कहा- भगवन! अब मैं तपस्या के धीन वालखिल्यों का परिचय सुनना चाहती हूँ।
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! वालखिल्यों की धर्मचर्या का वर्णन सुनो। वे मृगछाला पहनते हैं, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। तपस्या ही उनका धन है। सुश्रोणि! उनके शरीर की लम्बाई एक अंगूठे के बराबर है, उन्हीं शरीरों में वे सब एक साथ्ज्ञ रहते हैं। वे प्रतिदिन नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा निन्तर उगते हुए सूर्य की स्तुति करते हुए सहसा आगे बढ़ते जाते हैं और अपनी सूर्यतुल्य किरणों से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं। वे सब-के-सब धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं। उन्हीं में लोकरक्षा के लिये निर्मल सत्य प्रतिष्ठित है। देवि! उन वालखिल्यों के ही तपोबल से यह सारा जगत टिका हुआ है।
पवित्र मुसकानवाली महाभागे! उन्हीं महात्माओं की तपस्या, सत्य और क्षमा के प्रभाव से सम्पूर्ण भूतों की स्थिति बनी हुई है, ऐसा मनीषी पुरुष मानते हैं। महान पुरुष समस्त प्रजावर्ग तथा सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये तपस्या करते हैं। तपस्या से सब कुछ प्राप्त होता है। तपस्या से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। लोक में जो दुर्लभ वस्तु है, वह भी तपस्या से सुलभ हो जाती है।
उमा ने पूछा-देव! जो तपस्या के धनी तपस्वी अपने आश्रम धर्म में ही रम रहे हैं, वे किस आचरण से तपस्वी होते हैं?[4]
ऋषि मुनि द्वारा व्रत-पालन
भगवन! जो राजा या राजकुमार हैं अथवा जो निर्धन या महाधनी हैं, वे किस कर्म के प्रभाव से महान फल के भागी होते हैं? देव! वनवासी मुनि किस कर्म से दिव्य स्थान को पाकर दिव्य चन्दन से विभूषित होते हैं? देव! त्रिपुरनाशन त्रिलोचन! तपस्या के आश्रित शुभ फल के विषय में मेरा यही संदेह है। इस सारे संदेह का उत्तर आप पूर्णरूप से प्रदान करें।
श्रीमहेश्वर ने कहा- जो उपवास व्रत से सम्पन्न, जितेन्द्रिय, हिंसारहित और सत्यवादी होकर सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं, वे मृत्यु के पश्चात रोग-शोक से रहित हो गन्धर्वो के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं। जो धर्मात्मा पुरुष न्यायानुसार विधिपूर्वक हठयोग प्रसिद्ध मण्डूकयोग के अनुसार शयन करता और यज्ञ की दीक्षा लेता है, वह नागलोक में नागों के साथ सुख भोगता है। जो मृगचर्या-व्रत की दीक्षा ले मृगों के मुख से उच्छिष्ट हुई घास को प्रसन्नतापूर्वक उन्हीं के साथ रहकर भक्षण करता है, वह मृत्यु के पश्चात अमरावती पुरी में जाता है। जो व्रतधारी वानप्रस्थ मुनि सेवार अथवा जीर्ण-शीर्ण पत्ते का आहार करता तथा जाडे़ में प्रतिदिन शीत का कष्ट सहन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। जो वायु, जल, फल अथवा मूल खाकर रहता है, वह यक्षों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अप्सराओं के साथ आनन्द भोगता है।
जो गर्मी में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पंचाग्नि सेवन करता है, वह बारह वर्षों तक उक्त व्रत का पालन करके जन्मान्तर में भूमण्डल का राजा होता है। जो मुनि बारह वर्षों तक आहार का संयम करता हुआ यत्नपूर्वक मरू-साधना करके अर्थात जल को भी त्याग कर तप करता है, वह भी इस पृथ्वी का राजा होता है। जो वानप्रस्थ अपने चारों ओर विशुद्ध आकाश को ग्रहण करता हुआ खुले मैदान में वेदी पर सोता और बारह वर्षों के लिये प्रसन्नतापूर्वक व्रत की दीक्षा ले उपवास करके अपना शरीर त्याग देता है, वह स्वर्गलोग में सुख भोगता है।
भामिनि! वेदी पर शन करने से प्राप्त होने वाले फल इस प्रकार बताये गये हैं- सवारी, शय्या और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल बहुमूल्य गृह। जो केवल अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ नियमपूर्वक रहता है और नियमित भोजन करता है अथवा अनशन व्रत का आश्रय ले शरीर को त्याग देता है, वह स्वर्ग का सुख भोगता है। जो अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ बारह वर्षों की दीक्षा ले महासागर में अपने शरीर का तयाग कर देता है, वह वरुणलोक में सुख भोगता है। जो अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ निर्द्वन्द्व और परिग्रहशून्य हो बारह वर्षों के लिये व्रत की दीक्षा ले अन्त में पत्थर से अपने पैरों को विदीर्ण करके स्वयं ही अपने शरीर को त्याग देता है, वह गुह्यकलोक में आनन्द भोगता है। जो बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता और देवताओं के साथ आनन्द भोगता है। जो बारह वर्षों के लिये व्रत-पालन की दीक्षा ले अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ अपने शरीर को अग्नि में होम देता है, वह अग्निलोक में प्रतिष्ठित होता है।[5] देवि! जो ब्राह्मण नियमपूर्वक रहकर यथोचित रीति से वनवास-व्रत की दीक्षा ले अपने मन को परमात्मचिन्तन में लगाकर ममताशून्य और धर्म का अभिलाषी होकर बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करके अरणी सहित अग्नि को वृक्ष की डाली में बाँधकर अर्थात अग्नि का परित्याग करके अनावृत भाव से यात्रा करता है, सदा वीर मार्ग से चलता है, वीरासन पर बैठता है और वीर की भाँति खड़ा होता है, वह वीरगति को प्राप्त होता है।
वह इन्द्रलोक में जाकर सदा सम्पूर्ण कामनाओं से समपन्न होता है। उसके ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा होती है तथा वह दिव्य चन्दन से विभूषित होता है। वह धर्मात्मा देवलोक में देवताओं के साथ सुख-पूर्वक निवास करता है और निन्तर वीरलोक में रहकर वीरों के साथ संयुक्त होता है। जो सब कुछ त्याग कर वनवास की दीक्षा ले सत्त्वगुण में स्थित नियमपरायण एवं पवित्र हो वीरपथ का आश्रय लेता है, उसे सनातन लोक प्राप्त होते हैं। वह इन्द्रलोक में जाकर नीरोग और दिव्य शोभा से सम्पन्न हो आनन्द भोगता है और इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा स्वच्छन्द विचरता रहता है।[6]
जो ब्राह्मण पेट में शूद्र का अन्न लिये मर जाता है, वह अग्निहोत्री अथवा यज्ञ करने वाला ही क्यों न रहा हो, उसे शूद्र की योनि में जन्म लेना पड़ता है। उदर में शूद्रान्न का शेषभाग स्थित होने के कारण ब्राह्मण ब्रह्मलोक से वंचित हो शूद्रभाव को प्राप्त होता है, इसमें कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उदर में जिसके अन्न का अवशेष लेकर जो ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त होता है, वह उसी की योनि में जाता है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह करता है, उसी की योनि में जन्म ग्रहण करता है। जो शुभ एवं दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर उसकी अवहेलना करता है और नहीं खाने योग्य अन्न खाता है, वह निश्चय ही ब्राह्मणत्व से गिर जाता है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, नीच, चोर, व्रतभंग करने वाला, अपवित्र, स्वाध्यायहीन, पापी, लोभ, कपटी, शठ, व्रत का पालन न करने वाला, शूद्रजाति की स्त्री का स्वामी, कुण्डाशी (पति के जीते-जी उत्पन्न किये हुए जारज पुत्र के घर में खाने वाला अथवा पाक पात्र में ही भोजन करने वाला), सोमरस बेचने वाला और नीच सेवी ब्राह्मण ब्राह्मण की योनि से भ्रष्ट हो जाता है। जो गुरु की शैय्या पर सोने वाला, गुरुद्रोही और गुरुनिन्दा में अनुरक्त है, वह ब्राह्मण वेदवेत्ता होने पर भी ब्रह्मयोनि से नीचे गिर जाता है।
देवि! इन्हीं शुभ कर्मों और आचरणों से शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और वैश्य क्षत्रियत्व को। शूद्र अपने सभी कर्मों को न्यायानुसार विधिपूर्वक सम्पन्न करे। अपने से ज्येष्ठ वर्ण की सेवा और परिचर्या में प्रयत्नपूर्वक लगा रहे। अपने कर्तव्यपालन से कभी ऊबे नहीं। सदा सन्मार्ग पर स्थित रहे। देवताओं और द्विजों का सत्कार करे। सबके आतिथ्य का व्रत लिये रहे। ऋतुकाल में ही स्त्री के साथ समागम करे। नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। स्वयं शुद्ध रहकर शुद्ध पुरुषों का ही अन्वेषण करे। अतिथि-सत्कार और कुटुम्बीजनों के भोजन से बचे हुए अन्न का ही आहार करे और मांस न खाय। इस नियम से रहने वाला शूद्र (मृत्यु के पश्चात् पुण्यकर्मों का फल भोगकर) वैश्ययोनि में जन्म लेता है। वैश्य सत्यवादी, अहंकारशून्य, निद्र्वन्द्व, शान्ति के साधनों का ज्ञाता, स्वध्यायपरायण और पवित्र होकर नित्य यज्ञों द्वारा यजन करे। जितेन्द्रिय होकर ब्राह्मणों का सत्कार करते हुए समस्त वर्णों की उन्नति चाहे। गृहस्थ के व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन दो ही समय भोजन करे। यज्ञशेष अन्न का ही आहार करे। आहार पर काबू रखे। सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग दे। अहंकारशून्य होकर विधिपूर्वक आहुति देते हुए अग्निहोत्र कर्म का सम्पादन करे। सबका आतिथ्य-सत्कार करके अवशिष्ट अन्न का स्वयं भोजन करे।
त्रिविध अग्नियों की मन्त्रोच्चारणपूर्वक परिचर्या करे। ऐसा करने वाला वैश्य द्विज होता है। वह वैश्य पवित्र एवं महान क्षत्रियकुल में जन्म लेता है। क्षत्रियकुल में उत्पन्न् हुआ वह वैश्य जन्म से ही क्षत्रियोचित संस्कार से सम्पन्न् हो उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में तत्पर हो सर्वसम्मानित द्विज होता है। वह दान देता है, पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धिशाली यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करता है, वेदों का अध्ययन करके स्वर्ग की इच्छा रखकर सदा त्रिविध अग्नियों की शरण ले उनकी आराधना करता है, दुःखी एवं पीड़ित मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, प्रतिदिन प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करता है, स्वयं सत्यपरायण होकर सत्यपूर्ण व्यवहार करता है तथा दर्शन से ही सबके लिये सुखद होता है, वही श्रेष्ठ क्षत्रिय अथवा राजा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 1-7
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 8-22
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 23-33
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 34
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 35-52
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 53-59
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| नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन
| वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा
| वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति
| भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन
| भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा
| ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद
| दानपात्र की परीक्षा
| पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन
| युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न
| भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा
| विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना
| विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति
| विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान
| विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना
| देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना
| भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश
| कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार
| कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार
| स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन
| ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन
| वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन
| नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
| गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ
| च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना
| नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
| च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन
| च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति
| राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना
| च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान
| च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना
| विविध प्रकार के तप और दानों का फल
| जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल
| भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा
| भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश
| श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल
| राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश
| भूमिदान का महत्त्व
| भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| अन्न दान का विशेष माहात्म्य
| विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य
| सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा
| जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य
| अन्न और जल के दान की महिमा
| तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य
| गोदान की महिमा
| गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति
| राजा नृग का उपाख्यान
| पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना
| यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन
| गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना
| दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम
| गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य
| व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व
| गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना
| गोदान करने वाले नरेशों के नाम
| कपिला गौओं की उत्पत्ति
| कपिला गौओं की महिमा का वर्णन
| वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना
| गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति
| विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति
| गौओं तथा गोदान की महिमा
| व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन
| व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन
| व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन
| लक्ष्मी और गौओं का संवाद
| गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना
| ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना
| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
| सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा
| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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