- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 26 में गंगा जी के माहात्म्य का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
भीष्म का स्वर्ग लोक प्रस्थान
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जो बुद्धि में बृहस्पति के, क्षमा में ब्रह्मा जी के, पराक्रम में इन्द्र के और तेज में सूर्य के समान थे, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले वे महातेजस्वी गंगानन्दन भीष्म जब अर्जुन के हाथ से मारे जाकर युद्ध में वीरशय्या पर पड़े हुए काल की बाट जोह रहे थे और भाइयों तथा अन्य लोगों सहित राजा युधिष्ठिर उनसे तरह-तरह के प्रश्न कर रहे थे, उसी समय बहुत-से दिव्य महर्षि भीष्म जी को देखने के लिये आये। उनके नाम ये हैं- अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, अगस्त्य, संयतचित सुमति, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रमति, दम, बृहस्पति, शुक्राचार्य, व्यास, च्यवन, काश्यप, ध्रुव , दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, रैभ्य, यवक्रीत, त्रित, स्थूलाक्ष, शबलाक्ष, कण्व, मेधातिथि, कृश, नारद, पर्वत, सुधन्वा, एकत, नितम्भू, भुवन, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निनन्दन परशुराम और कच। ये सभी महात्मा महर्षि जब भीष्म जी को देखने के लिये वहाँ पधारे, तब भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने उनकी क्रमश: विधिवत पूजा की। पूजन के पश्चात् वे महर्षि सुखपूर्वक बैठकर भीष्म जी से सम्बन्ध रखने वाली मधुर एवं मानोहर कथाएं कहने लगे। उनकी वे कथाएं सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को मोह लेती थीं। शुद्ध अन्तःकरण वाले उन ऋषि-मुनियों की बातें सुनकर भीष्म जी हुए और अपने को स्वर्ग में ही स्थित मानने लगे। तदनन्तर वे महर्षिगण भीष्म जी और पाण्डवों की अनुमति लेकर सबके देखते-देखते ही वहाँ से अदृश्य हो गये। उन महाभाग मुनियों के अदृश्य हो जाने पर भी समस्त पाण्डव बारंबार उनकी स्तुति और उन्हें प्रणाम करते रहे। जैसे वेदमंत्रों के ज्ञाता ब्राह्मण उगते हुए सूर्य का उपस्थान करते हैं, उसी प्रकार प्रसन्नचित हुए समस्त पाण्डव कुरुश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म को प्रणाम करने लगे। उन ऋषियों की तपस्या के प्रभाव से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित होती देख पाण्डवों को बड़ा विस्मय हुआ। उन महर्षियों के महान सौभाग्य का चिन्तन करके पाण्डव भीष्म जी के साथ उन्हीं के सम्बन्ध में बातें करने लगे।
युधिष्ठिर का प्रस्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बातचीत के अन्त में भीष्म के चरणों में सिर रखकर धर्मपुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर यह धर्मानुकूल प्रश्न पूछा- युधिष्ठिर बोले- पितामह! कौन से देश, कौन से प्रान्त, कौन-कौन आश्रम, कौन से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियां पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं ?
भीष्म का उत्तर
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में शिलोअछवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक पुरुष का किसी सिद्ध पुरुष के साथ जो संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास सुनो। मनुष्यों में श्रेष्ठ कोई सिद्ध पुरुष शैलमालाओं से अलंकृत इस समूची पृथ्वी की अनेक बार परिक्रमा करने के पश्चात् शिलोंछवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक श्रेष्ठ गृहस्थ के घर गया। उस गृहस्थ ने उसकी विधिपूर्वक पूजा की। वह समागत ऋषि वहाँ बड़े सुख से रात भर रहा। उसके मुख पर प्रसन्नता छा रही थी। सवेरा होने पर वह शिलवृत्ति वाला गृहस्थ स्नान आदि से पवित्र होकर प्रातःकालीन नित्यकर्म में लग गया। नित्यकर्म पूर्ण करके वह उस सिद्ध अतिथि की सेवा में उपस्थित हुआ। इसी बीच में अतिथि ने भी प्रातःकाल के स्नान-पूजन आदि आवश्यक कृत्य पूर्ण कर लिये थे। वे दोनों महात्मा एक-दूसरे से मिलकर सुखपूर्वक बैठे तथा वेदों से सम्बन्ध और वेदान्त से उपलक्षित शुभ चर्चाएं करने लगे।
गंगा जी के माहात्म्य का वर्णन
बातचीत पूरी होने पर शिलोंछवृति वाले बुद्धिमान गृहस्थ ब्राह्मण ने सिद्ध को सम्बोधित करके यत्नपूर्वक वही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। शिलवृति वाले ब्राह्मण ने पूछा- ब्रह्मन! कौन-से देश, कौन-से जनपद, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियां पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं? यह बताने की कृपा करें। सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन! वे ही देश, जनपद, आश्रम और पर्वत पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके बीच से होकर सरिताओं में उत्तम भागीरथी गंगा बहती है। गंगा जी का सेवन करने से जीव जिस उत्तम गति को प्राप्त करता है उसे वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, अथवा त्याग से भी नहीं पा सकता। जिन देहधारियों के शरीर गंगा जी के जल से भीगते हैं अथवा मरने पर जिनकी हड्डियां गंगा जी में डाली जाती हैं वे कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिरते। विप्रवर! जिन देहधारियों के सम्पूर्ण कार्य गंगा जल से ही सम्पन्न होते हैं वे मानव मरने के बाद पृथ्वी का निवास छोड़कर स्वर्ग में विराजमान होते हैं। जो मनुष्य जीवन की पहली अवस्था में पापकर्म करके भी पीछे गंगा जी का सेवन करने लगते हैं वे भी उत्तम गति को ही प्राप्त होते हैं। गंगा जी के पवित्र जल से स्नान करके जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है उन पुरुषों के पुण्य की जैसी वृद्धि होती है; वैसी सैकड़ों यज्ञ करने से भी नहीं हो सकती। मनुष्य की हड्डी जितने समय तक गंगा जी के जल में पड़ी रहती है, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जैसे सूर्य उदयकाल में घने अन्धकार को विदीर्ण करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गंगा जल में स्नान करने वाला पुरुष अपने पापों को नष्ट करके सुशोभित होता है। जैसे बिना चांदनी की रात और बिना फूलों के वृक्ष शोभा नहीं पाते, उसी प्रकार गंगा जी के कल्याणमय जलसे वंचित हुए देश और दिशाएं भी शोभा एवं सौभाग्य हीन हैं। जैसे धर्म और ज्ञान से रहित होने पर सम्पूर्ण वर्णों और आश्रमों की शोभा नहीं होती है तथा जैसे सोमरस के बिना यज्ञ सुशोभित नहीं होते, उसी प्रकार गंगा के बिना जगत की शोभा नहीं है। जैसे सूर्य के बिना आकाश, पर्वतों के बिना पृथ्वी और वायु के बिना अन्तरिक्ष की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार जो देश और दिशाएं गंगा जी से रहित हैं उनकी भी शोभा नहीं होती-इसमें संशय नहीं है। तीनों लोकों में जो कोई भी प्राणी हैं, उन सबको गंगा जी के शुभ जल से तर्पण करने पर वे सब परम तृप्ति लाभ करते हैं। जो मनुष्य सूर्य की किरणों से तपे हुए गंगाजल का पान करता है, उसका वह जलपान गाय के गोबर से निकले हुए जौ की लप्सी खाने से अधिक पवित्रकारक है। जो शरीर को शुद्ध करने वाले एक सहस्र चान्द्रायण व्रतों का अनुष्ठान करता है और जो केवल गंगाजल पीता है, वे दोनों समान ही हैं अथवा यह भी हो सकता है कि दोनों समान न हों, गंगा जल पीने वाला बढ़ जाये। जो पुरुष एक हजार युगों तक एक पैर से खड़ा होकर तपस्या करता है और जो एक मास तक गंगा तट पर निवास करता हैं, वे दोनों समान हो सकते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि समान न हों।[2]
जो मनुष्य दस हजार युगों तक नीचे सिर करके वृक्ष में लटका रहे और जो इच्छानुसार गंगा जी के तटपर निवास करे, उन दोनों में गंगा जी पर निवास करने वाला ही श्रेष्ठ है। द्विजश्रेष्ठ! जैसे आग में डाली हुई रूई तुरंत जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार गंगा में गोता लगाने वाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस संसार में दुःख से व्याकुल चित होकर मैंने लिये कोई आश्रय ढूंढ़ने वाले समस्त प्राणियों के लिये गंगा जी के समान कोई दूसरा सहारा नहीं है। जैसे गरुड़ को देखते ही सारे सर्पों के विष झड़ जाते हैं, उसी प्रकार गंगा जी के दर्शन मात् रसे मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जगत में जिनका कहीं आधार नहीं है; तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली श्री गंगा जी ही हैं। वे ही उसका कल्याण करने वाली तथा कवच की भाँति उसे सुरक्षित रखने वाली है। जो नीच मानव अनेक बड़े-बड़े अमंगलकारी पापकर्मों से ग्रस्त होकर नरक में गिरने वाले हैं, वे भी यदि गंगा जी की शरण में आ जाते हैं तो ये मरने के बाद उनका उद्धार कर देती है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! जो लोग यदा गंगाजी की यात्रा करते हैं, उनपर निश्चय ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा मुनिलोग पृथक-पृथक कृपा करते आये हैं। विप्रवर! विनय और सदाचार से हीन अमंगलकारी नीच मनुष्य भी गंगा जी की शरण में जाने पर कल्याण स्वरूप हो जाते है। जैसे देवताओं का अमृत, पितरों को स्वधा और नागों को सुधा तृप्त करती हैं, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये गंगा जल ही पूर्ण तृप्ति का साधन है। जैसे भूख से पीड़ित हुए बच्चे माता के पास जाते हैं, उसी प्रकार कल्याण की इच्छा रखने वाले प्राणी इस जगत में गंगा जी की उपासना करते हैं। जैसे ब्रह्मलोक सब लोकों से श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसे ही स्नान करने वाले पुरुषों के लिये गंगा जी ही सब नदियों में श्रेष्ठ कही गयी है। जैसे धेनु स्वरूपा पृथ्वी उपजीवी देवता आदि के लिये आदरणीय है, उसी प्रकार इस जगत में गंगा समस्त उपजीवी प्राणियों के लिये आदरणीय हैं। जैसे देवता सत्र आदि यज्ञों द्वारा चन्द्रमा और सूर्य में स्थित अमृत से आजीविका चलाते हैं, उसी प्रकार संसार के मनुष्य गंगा जल सहारा लेते है। गंगा जी के तट से उड़े हुए बालु का-कणों से अभिषिक्त हुए अपने शरीर को ज्ञानी पुरुष स्वर्गलोक में स्थित हुआ-सा शोभासम्पन्न मानता है। जो मनुष्य गंगा के तीर की मिट्टी अपने मस्तक में लगाता है वह अज्ञानान्धकार का नाष करने के लिये सूर्य के समान निर्मल स्वरूप धारण करता है। गंगा की तरंग मालाओं से भीगकर बहने वाली वायु जब मनुष्य के शरीर का स्पर्श करती है, उसी समय वह उसके सारे पापों को नष्ट कर देती है। दुर्व्य सनजनित दुःखों से संतप्त होकर मरणासन्न हुआ मनुष्य भी यदि गगा जी का दर्शन करे तो उसे इतनी प्रसन्नता होती है कि उसकी सारी पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है। हंसों की मीठी वाणी, चक्रवाकों के सुमधुर शब्द तथा अन्यान्य पक्षियों के कलरवों द्वारा गंगा जी गन्धर्वों से होड़ लगाती है तथा अपने उंचे-उंचे तटों द्वारा पर्वतों के साथ स्पर्धा करती है। हंस आदि बहुसंख्यक एवं विविध पक्षियों से घिरी हुई तथा गौओं के समुदाय से व्याप्त हुई गंगा जी को देखकर मनुष्य स्वर्गलोक को भी भूल जाता है। गंगा जी के तट पर निवास करने से मनुष्यों को जो परम प्रीति-अनुपम आनन्द मिलता है वह स्वर्ग में रहकर सम्पूर्ण भोगों का अनुभव करने वाले पुरुष को भी नहीं प्राप्त हो सकता। मन, वाणी और क्रिया द्वारा होने वाले पापों से ग्रस्त मनुष्य भी गंगा जी का दर्शन करने मात्र से पवित्र हो जाता है- इसमे मुझे संशय नहीं है। गंगा जी का दर्शन, उनके जल का स्पर्श तथा उस जल के भीतर स्नान करके मनुष्य सात पीढ़ी पहले के पूर्वजों का और सात पीढ़ी आगे होने वाली संतानों का तथा इनसे भी उपरके पितरों और संतानों द्वारा उद्धार कर देता है।[3]
गंगा जल के गुणों का वर्णन
जो पुरुष गंगा जी का माहात्म्य सुनता, उनके तट पर जाने की अभिलाशा रखता, उनका दर्शन करता, जल पीता, स्पर्श करता तथा उनके भीतर गोते लगाता है, उसके दोनों कुलों का भगवती गंगा विशेष रूप से उद्धार कर देती है। गंगा जी अपने दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा अपने गंगा नाम के कीर्तन से सैकड़ो और हजारों पापियों को तार देती है। जो अपने जन्म, जीवन और वेदाध्ययन को सफल बनाना चाहता हो वह गंगा जी के पास जाकर उनके जल से देवताओं तथा पितरों का तर्पण करे। मनुष्य गंगा स्नान करके जिस अक्षय फल को प्राप्त करता है उसे पुत्रों से, धन से तथा किसी कर्म से भी नहीं पा सकता। जो सामर्थ्य होते हुए भी पवित्र जल वाली कल्याणमयी गंगा का दर्शन नहीं करते वे जन्म के अन्धों, पंगुओं और मुर्दों के समान है। भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता महर्षि तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी उपासना करते हैं, उन गंगा जी का सेवन कौन मनुष्य नहीं करेगा? ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी और विद्वान पुरुष भी जिनकी शरण लेते है, ऐसी गंगा जी का कौन मनुष्य आश्रय नहीं लेगा? जो साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित तथा संयतचित मनुष्य प्राण निकलते समय मन-ही-मन गंगा जी का स्मरण करता है, वह परम उत्तम गति को प्राप्त कर लेता है। जो पुरुष यहा जीवन पर्यन्त गंगाजी की उपासना करता है उसे भयदायक वस्तुओं से, पापों से तथा राजा से भी भय नहीं होता। भगवान महेश्वर ने आकाश से गिरती हुई परम पवित्र गंगा जी को सिर पर धारण किया, उन्हीं का वे स्वर्ग मे सेवन करते हैं। जिन्होंने तीन निर्मल मार्गों द्वारा आकाश, पाताल तथा भूतल-इन तीन लोकों का अलंकृत किया है उन गंगा जी के जल का जो मनुष्य सेवन करेगा वह कृतकृत्य हो जायगा। स्वर्गवासी देवताओं जैसे सूर्य का तेज श्रेष्ठ है, जैसे पितरों में चन्द्रमा तथा मनुष्यों में राजाधिराज श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त सरिताओं में गंगा जी उत्तम हैं। (गंगा जी में भक्ति रखने वाले पुरुष को) माता, पिता, पुत्र, स्त्री और धन का वियोग होने पर भी उतना दुःख नहीं होता, जितना गंगा के बिछोह से होता है। इसी प्रकार उसे गंगा जी के दर्शन से जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी वन के दर्शनों से, अभीष्ट विषय से, पुत्रों से तथा धन की प्राप्ति से भी नहीं होती। जैसे पूर्ण चन्द्रमा का दर्शन करके मनुष्यों की दृष्टि प्रसन्न हो जाती है, उसी तरह त्रिपथगा गंगा का दर्शन करके मनुष्यों के नेत्र आनन्द से खिल उठते हैं। जो गंगा जी में श्रद्धा रखता, उन्हीं में मन लगाता, उन्हीं के पास रहता, उन्हीं का आश्रय लेता तथा भक्तिभाव से उन्हीं का अनुसरण करता है।
वह भोगवती भागीरथी का स्नेह-भाजन होता है। पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग में रहने वाले छोटे-छोटे सभी प्राणियों को चाहिये कि वे निरन्तर गंगा जी में स्नान करें। यही सत्पुरुषों का सबसे उत्तम कार्य है। सम्पूर्ण लोकों में परम पवित्र होने के कारण गंगा जी का यश विख्यात है; क्योंकि उन्होंने भस्मीभूत होकर पड़े हुए सगरपुत्रों को यहाँ से स्वर्ग में पहुँचा दिया। वायु से प्रेरित हो बड़े वेग से अत्यन्त ऊँचे उठने वाले गंगा जी की परम मनोहर एवं कान्तिमयी तरंगमालाओं से नहाकर प्रकाशित होने वाले पुरुष परलोक में सूर्य के समान तेजस्वी होते हैं। दुग्ध के समान उज्ज्वल और घृत के समान स्निग्ध जल से भरी हुई, परम उद्धार, समृद्धिशालिनी, वेगवती तथा अगाध जलराशि वाली गंगा जी के समीप जाकर जिन्होंने अपना शरीर त्याग दिया है। वे धीर पुरुष देवताओं के समान हो गये। इन्द्र आदि देवता, मुनि और मनुष्य जिनका सदा सेवन करते हैं वे यशस्विनी, विशालकलेवरा, विश्वरूपा गंगा देवी अपनी शरण में आये हुए अन्धों, जडों और धनहीनों को भी सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं से सम्पन्न कर देती है। गंगा जी ओजस्विनी, परम पुण्यमय, मधुर जलराशि से परिपूर्ण तथा भूतल, आकाश और पाताल -इन तीन मार्गों पर विचरने वाली है। जो लोग तीनों लोकों की रक्षा करने वाली गंगा जी की शरण में आये हैं, वे स्वर्ग लोक को चले गये। जो मनुष्य गंगा जी के तट पर निवास और उनका दर्शन करता है उसे सब देवता सुख देते हैं, वे गंगा जी के स्पर्श और दर्शन से पवित्र हो गये हैं। उन्हें गंगा जी से ही महत्त्व को प्राप्त हुए देवता मनोवांछित गति प्रदान करते हैं। गंगा जगत का उद्धार करने में समर्थ हैं। भगवान पृश्र्निगर्भ की जननी पृश्र्नि के तुल्य हैं, विशाल हैं, सबसे उत्कृष्ट हैं, मंगलकारिणी हैं, पुण्यराशि से समृद्ध हैं, शिव जी के द्वारा मस्तक पर धारित होने के कारण सौभाग्यशालिनी तथा भक्तों पर अत्यन्त प्रसन्न रहने वाली हैं। इतना ही नहीं, पापों का विनाश करने के लिये वे काल रात्रि के समान हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों की आश्रयभूत हैं। जो लोग गंगा जी की शरण में गये हैं वे स्वर्गलोक में जा पहुँचे हैं। आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, दिशा और विदिशाओं में भी जिनकी ख्याति फैली हुई है, सरिताओं में श्रेष्ठ उन भोगवती भागीरथी के जल का सेवन करके सभी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं। ये गंगा जी हैं- ऐसा कहकर जो दूसरे मनुष्यों को उनका दर्शन कराता है, उसके लिये भगवती भागीरथी सुनिश्चित प्रतिष्ठा (अक्षय पद प्रदान करने वाली) हैं।[4]
गंगा का पृथ्वी पर प्रस्थान का वर्णन
वे कार्तिकेय और सुवर्ण को अपने गर्भ में धारण करने वाली, पवित्र जल की धारा बहाने वाली और पाप दूर करने वाली हैं। वे आकाश से पृथ्वी पर उतरी हुई हैं। उनका जल सम्पूर्ण विश्व के लिये पीने योग्य है। उनमें प्रातःकाल स्नान करने से धर्म, अर्थ और काम तीनों वर्गों की सिद्धि होती है। भगवती गंगा पूर्वकाल में अविनाशी भगवान नारायण से प्रकट हुई हैं। वे भगवान विष्णु के चरण, शिशुमार चक्र, ध्रुव, सोम, सूर्य तथा मेरु रूप विष्णु से अवतरित हो भगवान शिव के मस्तक पर आयी हैं और वहाँ से हिमालय पर्वत पर गिरी हैं। गंगा जी गिरिराज हिमालय की पुत्री, भगवान शंकर की पत्नी तथा स्वर्ग और पृथ्वी की शोभा हैं। राजन! वे भूमण्डल पर निवास करने वाले प्राणियों का कल्याण करने वाली, परम सौभाग्यवती तथा तीनों लोकों को पुण्य प्रदान करने वाली हैं। श्री भागीरथी मधु का स्त्रोत एवं पवित्र जल की धारा बहाती हैं। जलती हुई घी की ज्वाला के समान उनका उज्ज्वल प्रकाश है। वे अपनी उताल तरंगों तथा जल में स्नान-संध्या करने वाले ब्राह्मणों से सुशोभित होती है। वे जब स्वर्ग से नीचे की ओर चलीं तब भगवान शिव ने उन्हें अपने सिर पर धारण किया। फिर हिमालय पर्वत पर आकर वहाँ से इस पृथ्वी पर उतरी हैं। श्री गंगा जी स्वर्गलोक की जननी हैं। सबका कारण, सबसे श्रेष्ठ, रजोगुण रहित, अत्यन्त सूक्ष्म, मरे हुए प्राणियों के लिये सुखद शय्या, तीव्र वेग से बहने वाली, पवित्र जल का स्त्रोत बहाने वाली, यश देने वाली, जगत की रक्षा करने वाली, सत्स्वरूपा तथा अभीष्ट को सिद्ध करने वाली भोगवती गंगा अपने भीतर स्नान करने वालों के लिये स्वर्ग का मार्ग बन जाती है। क्षमा, रक्षा तथा धारण करने में पृथ्वी के समान और तेज में अग्नि एवं सूर्य के समान शोभा पाने वाली गंगा जी ब्राह्मण जाति पर सदा अनुग्रह करने के कारण सुब्रह्मण्य कार्तिकेय तथा ब्राह्मणों के लिये भी प्रिय एवं सम्मानित हैं। ऋषियों द्वारा जिनकी स्तुति होती है,जो भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न, अत्यन्त प्राचीन तथा परम पावन जल से भरी हुई हैं, उन गंगा जी की जगत में जो लोग मन के द्वारा भी सब प्रकार से शरण लेते हैं वे देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक में जाते हैं। जैसे माता अपने पुत्रों को स्नेहभरी दृष्टि से देखती है और उनकी रक्षा करती है, उसी प्रकार गंगा जी सर्वात्मभाव से अपने आश्रय में आये हुए सर्वगुणसम्पन्न लोकों को कृपादृष्टि से देखकर उनकी रक्षा करती है; अतः जो ब्रह्मलोक को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं उन्हें अपने मन को वश में करने वाली, सब कुछ देखने वाली, सम्पूर्ण जगत के उपयोग में आने वाली, अन्न देने वाली तथा पर्वतों को धारण करने वाली हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिनका आश्रय लेते हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी भी प्राप्त करना चाहते हैं; तथा जो अमृतस्वरूप हैं, उन भगवती गंगा जी का सिद्धिकामी जीवात्मा पुरुषों को अवश्य आश्रय लेना चाहिये। राजा भगीरथ अपनी उग्र तपस्या से भगवान शंकर सहित सम्पूर्ण देवताओं को प्रसन्न करके गंगा जी को इस पृथ्वी पर ले आये। उनकी शरण में जाने से मनुष्य को इहलोक और परलोक में भय नहीं रहता।[5]
ब्राह्मण! मैंने अपनी बुद्धि से सर्वथा विचार कर यहाँ गंगा जी के गुणों का एक अंशमात्र बताया है। मुझ में कोई इतनी शक्ति नहीं हैं कि मैं यहाँ उनके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन कर सकूं। कदाचित सब प्रकार के यत्न करने से मेरु गिरि के प्रस्तरकरणों और समुद्र के जल विन्दुओं की गणना की जा सके; परंतु यहाँ गंगा जल के गुणों का वर्णन तथा गणना करना कदापि सम्भव नहीं है। अतः मैंने बड़ी श्रद्धा के साथ जो ये गंगाजी के गुण बताये हैं, उन सब पर विश्वास करके मन, वाणी, क्रिया, भक्ति और श्रद्धा के साथ आप सदा ही उनकी आराधना करें। इस से आप परम दुर्लभ उत्तम सिद्धि प्रा़प्त करके इन तीनों लोकों मे अपने यश का विस्तार करते हुए शीघ्र ही गंगा जी की सेवा से प्राप्त हुए अभीष्ट लोकों में इच्छानुसार विचरेंगे। महान प्रभावशाली भगवती भागीरथी आपकी और मेरी बुद्धि को सदा स्वधर्मानुकूल गुणों से युक्त करें। श्री गंगा जी बड़ी भक्तवत्सला है। वे संसार में अपने भक्तों को सुखी बनाती है। भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! वह उत्तम बुद्धि वाला परम तेजस्वी सिद्ध शिलोंछवृति द्वारा जीविका चलाने वाले उम ब्राह्मण से त्रिपथगा गंगा जी के उपर्युक्त सभी यथार्थ गुणों का नाना प्रकार से वर्णन करके आकाश में प्रविष्ट हो गया। वह शिलोंछवृति वाला ब्राह्मण सिद्ध के उपदेश से गंगा जी के माहात्म्य को जानकर उनकी विधिवत उपासना करके परम दुर्लभ सिद्धि को प्राप्त हुआ। कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार तुम भी पराभक्ति के साथ सदा गंगा जी की उपासना करो। इससे तुम्हें उमत सिद्धि प्राप्त होगी। वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! भीष्म जी के द्वारा कहे हुये श्री गंगा जी की स्तुति से युक्त इस इतिहास को सुनकर भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई। जो गंगा जी के स्तवन से युक्त इस पवित्र इतिहास का श्रवण अथवा पाठ करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा।[6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-23
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 24-40
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 41-62
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 63-87
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 88-96
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 97-106
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| भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश
| कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार
| कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार
| स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन
| ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन
| वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन
| नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
| गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ
| च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना
| नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
| च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन
| च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति
| राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना
| च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान
| च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना
| विविध प्रकार के तप और दानों का फल
| जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल
| भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा
| भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश
| श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल
| राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश
| भूमिदान का महत्त्व
| भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| अन्न दान का विशेष माहात्म्य
| विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य
| सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा
| जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य
| अन्न और जल के दान की महिमा
| तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य
| गोदान की महिमा
| गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति
| राजा नृग का उपाख्यान
| पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना
| यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन
| गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना
| दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम
| गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य
| व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व
| गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना
| गोदान करने वाले नरेशों के नाम
| कपिला गौओं की उत्पत्ति
| कपिला गौओं की महिमा का वर्णन
| वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना
| गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति
| विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति
| गौओं तथा गोदान की महिमा
| व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन
| व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन
| व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन
| लक्ष्मी और गौओं का संवाद
| गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना
| ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना
| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
| सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा
| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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