श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन का वर्णन हुआ है[1]

कृष्ण द्वारा शिव को नमस्कार

तात! तदनन्‍तर मेरे मस्‍तक पर शीतल जल और दिव्‍य सुगन्‍ध से युक्‍त फूलों की शुभ वृष्टि होने लगी। उसी समय देव किंकरों ने दिव्‍य दुन्‍दुभि बजाना आरम्‍भ किया और पवित्र गन्‍ध से युक्‍त पुण्‍यमयी सुखद वायु चलने लगी। तब पत्‍नी सहित प्रसन्‍न हुए वृषभध्‍वज महादेव जी ने मेरा हर्ष बढ़ाते हुए -से वहाँ सम्‍पूर्ण देवताओं से कहा- 'देवताओं! तुम सब लोग देखो कि महात्‍मा उपमन्यु की मुझ में नित्‍य एकभाव से बनी रहने वाली कैसी उत्तम भक्ति है।' श्रीकृष्‍ण! शूलपाणि महादेव जी के ऐसा कहने पर वे सब देवता हाथ जोड़ उन वृषभ ध्‍वज शिव जी को नमस्‍कार करके बोले- 'भगवान! देवदेवेश्वर! लोकनाथ! जगत्‍पते! ये‍ द्विजश्रेष्‍ठ उपमन्‍यु आपसे अपनी सम्‍पूर्ण कामनाओं के अनुसार अभीष्‍ट फल प्राप्‍त करें।' ब्रह्मा आदि सम्‍पूर्ण देवताओं के ऐसा कहने पर सबके ईश्वर और कल्‍याणकारी भगवान शिव ने मुझसे हंसते हुए- से कहा- भगवान शिव जी बोले- वत्‍स उपमन्‍यों! मैं तुम पर बहुत संतुष्‍ट हूँ। मुनिपांडव! तुम मेरी ओर देखो। ब्रह्मर्षे! मुझमें तुम्‍हारी सुदृढ़ भक्ति है। मैंने तुम्‍हारी परीक्षा कर ली है। तुम्‍हारी इस भक्ति से मुझे अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नता हुई है, अत: मैं तुम्‍हें आज तुम्‍हारी सभी मनोवांछित कामनाएं पूर्ण किये देता हूँ। परम बुद्धिमान महादेव जी के इस प्रकार कहने पर मेरे नेत्रों हर्ष के आंसू बहने लगे और सारे शरीर में रोमांच हो आया। तब मैंने धरती पर घुटने टेककर भगवान को बारंबार प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणी द्वारा महादेव जी से इस प्रकार कहा - 'देव! आज ही मैंने वास्‍तव में जन्‍म ग्रहण किया है। आज मेरा जन्‍म सफल हो गया, क्‍योंकि इस समय मेरे सामने देवताओं और असुरों के गुरु आप साक्षात् महादेवजी खड़े हैं। 'जिन अमित पराक्रमी महादेवजी देवता भी सुगमतापूर्वक देख नहीं पाते हैं उन्‍हीं का मुझे प्रत्‍यक्ष दर्शन मिला है, अत: मुझसे बढ़कर धन्‍यवाद का भागी दूसरा कौन हो सकता है ? 'अजन्‍मा, अविनाशी, ज्ञानमय तथा सर्वश्रेष्‍ठ रूप से विख्‍यात जो सनातन पर तत्‍व है, उसका ज्ञानी पुरुष इसी रूप में ध्‍यान करते हैं (जैसा कि आज मैं प्रत्‍यक्ष देख रहा हूं)।[1]

'जो सम्‍पूर्ण प्राणियों का आदिकारण, अविनाशी, समस्‍त तत्‍वों के विधान का ज्ञाता तथा प्रधान परम पुरुष है, वह ये भगवान महादेव जी ही है। 'इन्‍हीं जगदीश्वर ने अपने दाहिने अंग से लोकस्‍त्रष्‍टा ब्रह्मा को और बायें अंग से जगत की रक्षा के लिये विष्‍णु को उत्‍पन्‍न किया है। 'प्रलयकाल प्राप्‍त होने पर इन्‍हीं भगवान शिव ने रुद्र की रचना की थी। वे ही रुद्र सम्‍पूर्ण चराचर जगत का संहार करते हैं। 'वे ही महा तेजस्‍वी काल होकर कल्‍प के अन्‍त में समस्‍त प्राणियों को अपना ग्रास बनाते हुए-से प्रलयकालीन अग्नि के सदृश स्थित होते हैं। 'ये ही देवदेव महादेव चराचर जगत की सृष्‍टि करके कल्‍पान्‍त में सबकी स्‍मृति-शक्ति को मिटाकर स्‍वयं ही स्थित रहते हैं। 'ये सर्वत्र गमन करने वाले, सम्‍पूर्ण प्राणियों के आत्‍मा तथा समस्‍त भूतों के जन्‍म और वृद्धि के हेतु हैं। ये सर्वव्‍यापी परमेश्वर सदा सम्‍पूर्ण देवताओं से अदृश्‍य रहते हैं। 'प्रभो! यदि आप मुझ पर संतुष्‍ट हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो हे देव! हे सुरेश्वर! मेरी सदा आप में भक्ति बनी रहे। 'सुरश्रेष्‍ठ! विभो! आपकी कृपा से मैं भूत, वर्तमान और भविष्‍य को जान सकू, ऐसा मेरा निश्‍चय है। 'मैं अपने बन्‍धु-बान्‍धवों सहित सदा अक्षय दूध-भात का भोजन प्राप्‍त करूं और हमारे इस आश्रम में सदा आपका निकट निवास रहे।' मेरे ऐसा कहने पर लोक पूजित चराचरगुरु महातेजस्‍वी महेश्वर भगवान शिव मुझसे यों बोले- भगवान शिव ने कहा- ब्रह्मान! तुम दु:ख से रहित अजर-अमर हो जाओ। यशस्‍वी, तेजस्‍वी तथा दिव्‍य ज्ञान से सम्‍पन्‍न बने रहो। मेरी कृपा से तुम ऋषियों के भी दर्शनीय एवं आदरणीय होओगे तथा सदा शीलवान, गुणवान, सर्वज्ञ एवं प्रियदर्शन बने रहोगे। तुम्‍हें अक्षय यौवन और अग्नि के समान तेज प्राप्‍त हो। तुम्‍हारे लिये क्षीरसागर सुलभ हो जायेगा। तुम जहाँ-जहाँ प्रिय वस्‍तु की इच्‍छा करोगे वहां-वहाँ तुम्‍हारी सारी कामना सफल होगी, और तुम्‍हें क्षीरसागर का सान्निध्‍य प्राप्‍त होगा। तुम अपने भाई-बन्‍धुओं के साथ एक कल्‍प तक अमृत सहित दूध-भात का भोजन पाते रहो। तत्‍पश्‍चात तुम मुझे प्राप्‍त हो जाओगे। तुम्‍हारे बन्‍धु-बान्‍धव, कुल तथा गोत्र की परम्‍परा सदा अक्षय बनी रहेगी। द्विजश्रेष्‍ठ! मुझ में तुम्‍हारी सदा अचल भक्ति होगी तथा द्विजप्रवर! तुम्‍हारे इस आश्रम के निकट मैं सदा अदृश्‍य रूप से निवास करूंगा। बेटा! तुम इच्‍छानुसार यहाँ रहो। कभी किसी बात के लिये चिन्‍ता न करना। विप्रवर! तुम्‍हारे स्‍मरण करने पर मैं पुन: तुम्‍हें दर्शन दूंगा। ऐसा कहकर वे करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्‍वी भगवान शंकर उपर्युक्‍त वरदान प्रदान करके वही अन्‍तर्धान हो गये। श्रीकृष्‍ण! इस प्रकार मैंने समाधि के द्वारा देवाधिदेव भगवान शंकर का प्रत्‍यक्ष दर्शन प्राप्‍त किया। उन बुद्धिमान महादेव जी ने जो कुछ कहा था, वह सब मुझे प्राप्‍त हो गया है। श्रीकृष्‍ण! यह सब आप प्रत्‍यक्ष देख लें। यहाँ सिद्ध महर्षि, विद्याधर, यक्ष, गन्‍धर्व और अप्‍सराएं विद्यमान हैं। देखिये, यहाँ के वृक्ष, लता और गुल्‍म सब प्रकार के फूल और फल देने वाले हैं। ये सभी ऋतुओं के फूलों से युक्‍त, सुखदायक पल्‍लवों से समन्‍न और सुगन्‍ध से परिपूर्ण हैं।[2] महाबाहों! देवताओं के भी देवताओं तथा सबके ईश्‍वर महात्‍मा शिव के प्रसाद से ही यहाँ सब कुछ दिव्‍य भाव से सम्‍पन्‍न दिखायी देता है।

उपमन्यु कृष्‍ण संवाद

भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं - राजन! उनकी यह बात सुनकर मानो मुझे भगवान शिव का प्रत्‍यक्ष दर्शन हो गया हो, ऐसा प्रतीत हुआ। फिर बड़े विस्‍मय में पड़कर मैंने उन महामुनि से पूछा - 'विप्रवर! आप धन्‍य हैं। आपसे बढ़कर पुण्‍यात्‍मा पुरुष दूसरा कौन है? क्‍योंकि आपके इस आश्रम में साक्षात देवाधिदेव महादेव निवास करते हैं। 'मुनिश्रेष्‍ठ! क्‍या कलयाणकारी भगवान शिव मुझे भी इसी प्रकार दर्शन देंगे? मुझ पर भी कृपा करेंगे?'

उपमन्यु बोले - निष्‍पाप कमलनयन! जैसे मैंने भगवान दर्शन किया है, उसी प्रकार आप भी थोड़े ही समय में महादेव जी का दर्शन प्राप्‍त करेंगे, इसमें संशय नहीं है। पुरुषोत्‍तम! मैं दिव्‍य दृष्टि से देख रहा हूँ आप आज से छठे महीने में अमित पराक्रमी महादेवजी का दर्शन करेंगे। यदुश्रेष्‍ठ! पत्‍नी सहित महादेवजी से आप सोलह और आठ वर प्राप्‍त करेंगे। यह मैं आपसे सच्‍ची बात कहता हूँ। महाबाहों! बुद्धिमान महादेव जी के कृपा-प्रसाद से मुझ सदा ही भूत, भविष्‍य और वर्तमान-तीनों काल का ज्ञान प्राप्‍त है। माधव! भगवान हर ने यहाँ रहने वाले इन सहस्‍त्रों मुनियों को कृपापूर्ण हृदय से अनुगृहीत किया है। फिर आप पर वे अपना कृपा प्रसाद क्‍यों नहीं प्रकट करेंगे। आप-जैसे ब्राह्मण भक्‍त, कोमलस्‍वभाव और श्रद्धालु पुरुष का समागम देवताओं के लिये भी प्रशंसनीय है। मैं आपको जपने योग्‍य मंत्र प्रदान करूंगा, जिससे आप भगवान शंकर का दर्शन करेगें।

उपमन्यु द्वारा कृष्‍ण को शिव के दर्शन का वर्णन

श्रीकृष्‍ण कहते हैं- तब मैंने उनसे कहा- बहृान्! महामुने! मैं आपके कृपा प्रसाद से दैत्‍य दलों का दलन करने वाले देवेश्‍वर महादेव जी का दर्शन अवश्‍य करूंगा। भरतनन्‍दन! इस प्रकार महादेव जी की महिमा से सम्‍बन्‍ध रखने वाली कथा कहते हुए उन मुनीश्वर के आठ दिन एक मुहूर्त समान बीत गये। आठवें दिन विप्रवर उपमन्‍यु ने विधिपूर्वक मुझे दीक्षा दी। उन्‍होनें मेरा सिर मुड़ा दिया। मेरे शरीर में घी लगाया तथा मुझे दण्‍ड, कुशा, चीर एवं मेखला धारण कराया। मैं एक महीने तक फलाहार करके रहा और दूसरे महीने में केवल जल का आहार किया। तीसरे, चौथे और पांचवे महीने मैं दोनों बांहे उपर उठाये एक पैर से खड़ा रहा। आलस्‍य को अपने पास नहीं आने दिया। उन दिनों वायुमात्र ही मेरा आहार रहा। भारत! पाण्‍डुनन्‍दन! छठे महीने में आकाश के भीतर मुझे सहस्‍त्रों सूर्यों का सा तेज दिखायी दिया। उस तेज के भीतर एक और तेजोमण्‍डल दृष्टिगोचर हुआ, जिसका सर्वांग इन्‍द्रधनुष परिवेष्टित था। विद्युन्‍माला उसमें झरोखे के समान प्रतीत होती थी। वह तेज नील पर्वत माला के समान प्रकाशित होता था। उस द्विध तेज के कारण वहाँ का आकाश बक पंक्तियों से विभूषित सा जान पड़ता था। उस नील तेज के भीरत महातेजस्‍वी भगवान शिव तप, तेज, कान्ति तथा अपनी तेजस्विनी पत्नी उमा देवी के साथ विराजमान थे। उस नील तेज में पार्वती देवी के साथ स्थित हुए भगवान महेश्वर ऐसी शोभा पा रहे थे मानो चन्‍द्रमा के साथ सूर्य श्‍याम मेघ के भीतर विराज रहे हों।[3]

कुन्‍तीनन्‍दन! जो सम्‍पूर्ण देव समुदाय की गति हैं तथा सबकी पीड़ा हर लेते हैं, उन भगवान हर को जब मैंने देखा, तब मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मेरे नेत्र आश्‍चर्य से खिल उठे। भगवान मस्‍तक पर मुकुट था। उनके हाथ में गदा, त्रिशूल और दण्‍ड शोभा पाते थे। सिर पर जटा थी। उन्‍होनें व्‍याघ्रचर्म धारण कर रखा था। पिनाक और वज्र भी उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी दाढ़ तीखी थी। उन्‍होंने सुन्‍दर बाजूबंद पहनकर सर्पमय यज्ञोपवीत धारण कर रखा था। वे अपने वक्ष: स्‍थल पर अनेक रंग वाली दिव्‍य माला धारण किये हुए थे, जो गुल्‍फदेश (घुटनों)- तक लटक रही थे। जैसे शरद ऋतु में संध्‍या की लाली से युक्‍त ओर घेरे से घिरे हुए चन्‍द्रमा का दर्शन होता हो, उसी प्रकार मैंने मालावेष्टित उन भगवान महादेव जी का दर्शन किया था। प्रथमगणों द्वारा सब ओर से घिरे हुए महातेजस्‍वी महादेव परिधि से घिरे हुए शरत्‍काल के सूर्य की भाँति बड़ी कठिनाई से देख जाते थे। इस प्रकार मन को वश में रखने वाले और कर्मेन्द्रियों द्वारा शुभ कर्म का ही अनुष्‍ठान करने वाले महादेव जी की, जो ग्‍यारह सौ रुद्रों से घिरे हुए थे, मैंने स्‍तुति की। बारह आदित्‍य, आठ वसु, साध्‍यगण, विश्‍वेदेव तथा अश्विनी कुमार- ये भी सम्‍पूर्ण स्‍तुतियों द्वारा सबके देवता महादेव जी की स्‍तुति कर रहे थे। इन्‍द्र तथा वामनरूपधारी भगवान विष्‍णु - ये दोनों अदिति कुमार और ब्रह्माजी भगवान शिव के निकट रथन्‍तर साम का ज्ञान कर रहे थे। बहुत-से योगीश्‍वर, पुत्रों सहित ब्रह्मार्षि तथा देवर्षिगण भी योग सिद्धि प्रदान करने वाले, पिता एवं गुरुरूप महादेव जी की स्‍तुति करते थे। महाभूत, छन्‍द, प्रजा‍पति, यज्ञ, नदी, समुद्र, नाग, गन्‍धर्व, अप्‍सरा तथा विद्याधर- ये सब गीत, वाद्य तथा नृत्‍य आदि के द्वारा तेजस्वियों के माध्‍यम में विराजमान तेजोराशि जगदीश्वर शिव की पूजा-अर्चना करते थे। राजन! पृथ्‍वी अन्‍तरिक्ष, नक्षत्र, ग्रह, मास, पक्ष, ऋतु, रात्रि, संवत्‍सर, क्षण, मुहूर्त, निमेष, युगचक्र तथा दिव्‍य विद्याएं-ये सब (मूर्तिमान होकर) शिव जी को नमस्‍कार कर रहे थे। वैसे ही सत्‍वेत्ता पुरुष भी भगवान शिव को नमस्‍कार करते थे। युधिष्ठिर! सनत्‍कुमार, देवगण, इतिहास, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्‍त्‍य, पुलह, क्रतु, सात मनु, सोम, अथर्वा, बृहस्‍पति, भृगु, दक्ष, कश्‍यप, वसिष्‍ठ, काश्‍य, छन्‍द, दीक्षा, यज्ञ, दक्षिणा, अग्नि, हविष्‍य, यज्ञोपयोगी मूर्तिमान, द्रव्‍य, समस्‍त प्रजापालकगण, नदी, नग, नाग, सम्‍पूर्ण देवमाताएं, देवपत्नियां, देवकन्‍याएं, सहस्‍त्रों, लाखों, अरबों महर्षि, पर्वत, समुद्र और दिशाएं - ये सब के शान्‍तस्‍वरूप भगवान शिव को नमस्‍कार करते थे। गीत और वाद्य की कला में कुशल अप्‍सराएं तथा गन्‍धर्व दिव्‍य तालपर गाते हुए अद्भुत शाक्तिशाली भगवान भव की स्‍तुति करते थे। महाराज! विद्याधर, दानव, गुहृाक, राक्षस तथा समस्‍त चराचर प्राणी मन वाणी और क्रियाओं द्वारा भगवान शिव को नमस्‍कार करते थे। देवेश्‍वर शिव मेरे सामने खड़े थे। भारत! मेरे सामने महादेव जी को खड़ा देख प्रजापतियों से लेकर इन्‍द्र तक सारा जगत मेरी ओर देखने लगा। किंतु उस समय महादेव जी को देखने की मुझ में शक्ति नहीं रह गयी थी। तब भगवान शिव ने मुझसे कहा- 'श्रीकृष्‍ण! मुझे देखो, मुझसे वार्तालाप करो। तुमने पहले भी सैकड़ों और हजार बार मेरी आराधना की है। [4]

कृष्‍ण द्वारा महादेव देवी उमा की स्तुति

तीनों लोकों में तुम्‍हारे समान दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है। ‘जब मैंने मस्‍तक झुकाकर महादेव जी को प्रणाम किया, तब देवी उमा को बड़ी प्रसन्‍न्‍ता हुई। उस समय मैंने ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा प्रशंसित भगवान शिव से इस प्रकार कहा। श्रीकृष्‍ण कहते हैं– सबके कारणभूत सनातन परमेश्‍वर! आपको नमस्‍कार है। ऋषि आपको ब्रह्मा जी का भी अधिपति बताते हैं। साधु पुरुष आपको ही तप, सत्‍वगण, रजोगण, तमोगण तथा सत्‍यस्‍वरूप कहते हैं। आप ही ब्रृहृा रुद्र, वरुण, अग्नि, मनु, शिव, धाता, विधाता और त्‍वष्‍टा हैं। आप ही सब ओर मुखवाले परमेश्वर हैं। समस्‍त चराचर प्राणी आप ही से उत्‍पन्‍न हुए हैं। आपने ही स्‍थावर-जंगम प्राणियों सहित इस समस्‍त त्रिलोकी की दृष्टि की है। यहाँ जो-जो इन्द्रियां, जो सम्‍पूर्ण मन, जो समस्‍त वायु और सात[5] अग्नियाँ हैं, जो देवसमुदाय के अंदर रहने वाले स्‍तवन के योग्‍य देवता हैं, उन सबसे पर आपकी स्थिति है। ऋषिगण आपके विषय में ऐसा ही कहते हैं। वेद, यज्ञ, सोम, दक्षिणा, अग्नि, हविष्‍य तथा जो कुछ भी यज्ञोपयोगी सामग्री है, वह सब आप भगवान ही हैं, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, दान, अध्‍ययन, व्रत और नियम, लज्‍जा, कीर्ति, श्री, धुति, तुष्टि तथा सिद्धि– ये सब आपके स्‍वरूप की प्राप्ति कराने वाले हैं। भगवान! काम, क्रोध, भय, लोभ, मद, स्‍तब्‍धता, मात्‍सर्य, आधि और व्‍याधि– ये सब आपके ही शरीर हैं। क्रिया, विकार, प्रणय, प्रधान, अविनाशी, बीज, मनका परम कारण और सनातन प्रभाव– ये भी आपके ही स्‍वरूप हैं। अव्‍यक्‍त, पावन, अचिन्‍त्‍य, हिरण्‍मय सूर्यस्‍वरूप आप ही समस्‍त गणों के आदिकारण तथा जीवन के आश्रय हैं। महान, आत्‍मा, मति, ब्रह्मा, विश्व, शंभु, स्‍वयम्‍भू, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, संवित, ख्‍याति, धृति ओर स्‍मृति– इन चौदह पर्यायवाची शब्‍दों द्वारा आप परमात्‍मा ही प्रकाशित होते हैं। वेद से आपका बोध प्राप्‍त करके ब्रह्माज्ञानी ब्राहृाण मोह का सर्वथा नाश कर देता है। ऋषियों द्वारा प्रशं‍सित आप ही सम्‍पूर्ण भूतों के हृदय में स्थित क्षेत्रज्ञ हैं। आपके सब ओर हाथ-पैर हैं। सब ओर नेत्र मस्‍तक और मुख हैं। आपके सब ओर कान हैं और जगत में आप सबको व्‍याप्‍त करके स्थित हैं। जीव के आंख मीजने और खोलने से लेकर जितने कर्म हैं, उनके फल आप ही हैं। आप अविनाशी परमेश्‍वर ही सूर्य की प्रभा और अग्नि की ज्‍वाला हैं। आप ही सबके हृदय में आत्‍मारूप से निवास करते हैं। अणिमा, महिमा, और प्राप्ति आदि सिद्धियां तथा ज्योति भी आप ही हैं। आप में बोध और मनन की शक्ति विद्यमान है। जो लोग आपकी शरण में आकर सर्वथा आपके आश्रित रहते हैं, वे ध्‍यानपरायण, नित्‍य योगयुक्‍त, सत्‍यसकंल्‍प तथा जितेन्द्रिय होते हैं। जो आपको अपनी हृदयगुहा में स्थित आत्‍मा, प्रभु, पुराण-पुरुष, मूर्तिमान परब्रह्मा, हिरण्‍मय पुरुष और बुद्धिमानों की परम गतिरूप में निश्चित भाव से जानता है, वहीं बुद्धिमान लौकिक बुद्धि का उल्‍लंघन करके परमात्‍मा-भाव में प्रतिष्ठित होता है। विद्वान पुरुष महत्त्व, अंहकार और पंचतंमात्रा इन सात सूक्ष्‍म तत्त्वों को जानकर आपके स्‍वरूपभूत छ: अंगो का बोध प्राप्‍त करके प्रमुख विधियोग का आश्रय ले आप में ही प्रवेश करते हैं। कुन्‍तीनन्‍दन! जब मैंने सबकी पीड़ा का नाश करने वाले महादेव जी की इस प्रकार स्‍तुति की, तब यह सम्‍पूर्ण चराचर जगत सिंहनाद कर उठा।[6]

ब्राह्मणों के समुदाय, देवता, असुर, नाग, पिशाच, पितर, पक्षी, राक्षसगण, समस्‍त भूतगण तथा महर्षि भी उस समय भगवान शिव को प्रणाम करने लगे। मेरे मस्‍तक पर ढेर-के-ढेर दिव्‍य सुगन्धित पुष्‍पों की वर्षा होने लगी तथा अत्‍यंत सुखदायक हवा चलने लगी। जगत के हितैषी भगवान शंकर ने उमा देवी की ओर देखकर मेरी ओर देखा और फिर इन्‍द्र पर दृष्टिपात करके स्‍वयं मुझसे कहा– ‘शत्रु श्रीकृष्‍ण! मुझमें जो तुम्‍हारी पराभक्ति है, उसे सब लोग जानते हैं, अब तुम अपना कल्‍याण करो, क्‍योंकि तुम्‍हारे उपर मेरा विशेष प्रेम है। ‘सत्‍पुरुषों में श्रेष्‍ठ! यदुकुल सिंह श्रीकृष्‍ण! मैं तुम्‍हें आठ वर देता हूँ। तुम जिन परम दुर्लभ वरों को पाना चाहते हो, उन्‍हें बताओ।’[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 326-345
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 346-366
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 367-385
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 386-405
  5. गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्य- ये पाँच वैदिक अग्नियाँ हैं। स्मार्त्त छठी और लौकिक सातवीं अग्नि है।
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 406-424
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 425-429

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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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