भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 1 में भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन हुआ है[1]-

भीष्‍म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्‍म जी कहते हैं- महाभाग! तुम तो सदा परतन्‍त्र हो (काल,अदृष्‍ट और ईश्‍वर के अधीन हो), फिर अपने को शुभाशुभ कर्मों का कारण क्‍यों समझते हो? वास्‍तव में कर्मों का कारण क्‍या है, यह विषय अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म तथा इन्द्रियों की पहुँच से बाहर है।

गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु की कथा

इस विषय में विद्वान पुरुष गौतमी ब्राह्मणी, व्‍याध, सर्प, मृत्‍यु और काल के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। कुन्‍तीनन्‍दन! पूर्वकाल में गौतमी नामवाली एक बूढ़ी ब्राह्मणी थी, जो शान्ति के साधन में संलग्‍न रहती थी। एक दिन उसने देखा, उसके इकलौते बेट को साँप ने डँस लिया और उसकी चेतना शक्ति लुप्‍त हो गई। इतने ही में अर्जुनक नाम वाले एक व्‍याध ने उस साँप को ताँत के फाँस में बाँध लिया और अमर्षवश वह उसे गौतमी के पास ले आया लाकर उसने कहा- ‘महाभागे! यही वह नीच सर्प है, जिसने तुम्‍हारे पुत्र को मार डाला है। जल्‍दी बताओ, मैं किस तरह इसका वध करूँ? ‘मैं इसे आग में झोंक दूँ या इसके टूकडे़-टूकड़े कर डालूँ? बालक की हत्‍या करने वाला यह पापी सर्प अब अधिक समय तक जीवित रहने योग्‍य नहीं है’ गौतमी बोली- अर्जुनक! छोड़ दे इस सर्प को। तू अभी नादान है। तुझे इस सर्प को नहीं मारना चाहिये। होनहार को कोई टाल नहीं सकता- इस बात को जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करके कौन अपने ऊपर पाप का भारी बोझ लादेगा? संसार में धर्माचरण करके जो अपने को हल के रखते हैं [2] वे पानी के ऊपर चलने वाली नौका के समान भवसागर से पार हो जाते हैं; परंतु जो पाप के बोझ से अपने को बोझिल बना लेते हैं, वे जल में फेंके हुए हथियार की भाँति नरक-समुद्र में डूब जाते है। इसको मार डालने से मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता और इस सर्प के जीवित रहने पर भी तुम्‍हारी क्‍या हानि हो सकती है? ऐसी देशा में इस जीवित प्राणी के प्राणों का नाश करके कौन यमराज के अनन्‍त लोक में जाय?

गौतमी ब्राह्मणी एवं व्याध का संवाद

व्‍याध ने कहा- गुण और अवगुण को जानने वाली देवि! मैं जानता हूँ कि बड़े-बड़े़ लोग किसी भी प्राणी को कष्‍ट में पड़ा देख इसी तरह दु:खी हो जाते हैं। परंतु ये उपदेश तो स्‍वस्‍थ पुरुष के लिये हैं (दु:खी मनुष्‍य के मन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता)। अत: मैं इस नीच सर्प को अवश्‍य मार डालूँगा। शान्ति चाहने वाले पुरुष काल की गति बताते हैं (अर्थात् काल ने ही इसका नाश कर दिया है, ऐसा कहते हुए शोक का त्‍याग करके संतोष धारण करते हैं) परंतु जो अर्थवेत्‍ता हैं- बदला लेना जानते हैं, वे शत्रु का नाश करके तुरंत ही शोक छोड़ देते हैं। दूसरे लोग श्रेय का नाश होने पर मोहवश सदा उसके लिये शोक करते रहते हैं ; अत: इस शत्रुभूत सर्प के मारे जाने पर तुम भी तत्‍काल ही अपने पुत्र- शोक को त्‍याग देना। गौतमी बोली- अर्जुनक! हम-जैसे लोगों को कभी किसी तरह की हानि से भी पीड़ा नहीं होती। धर्मात्‍मा सज्‍जन पुरुष सदा धर्म में ही लगे रहते हैं। मेरा यह बालक सर्वथा मरने ही वाला था; इसलिये मैं इस सर्प को मारने में असमर्थ हूँ। ब्राह्मणों को क्रोध नहीं होता; फिर वे क्रोधवश दूसरों को पीड़ा कैसे दे सकते हैं; अत: साधो! तू भी कोमलता का आश्रय लेकर इस सर्प को अपराध को क्षमा कर और इसे छोड़ दे। व्‍याध ने कहा- देवि! इस सर्प को मार डालने से जो बहुतों का भला होगा, यही अक्षय लाभ है। बलवानों से बलपूर्वक लाभ उठाना ही उत्‍तम लाभ है। काल से जो लाभ होता है वही सच्‍चा लाभ है। इस नीच सर्प के जीवित रहने से तुम्‍हें कोई श्रेय नहीं मिल सकता। गौतमी बोली- अर्जुनक! शत्रुको कैद करके उसे मार डालने से क्‍या लाभ होता है; तथा शत्रुको अपने हाथ में पाकर उसे न छोड़ने से किस अभीष्‍ट मनोरथ की प्राप्ति हो जाती है? सौम्‍य! क्या कारण है कि मैं इस सर्प के अपराध को क्षमा न करूँ? तथा किसलिये इसको छुटकारा दिलाने का प्रयत्‍न न करूँ?[3]

व्‍याध ने कहा- गौतमी! इस एक सर्प से बहुतेरे मनुष्‍यों के जीवन की रक्षा करना चाहिये।[4] अनेकों की जान लेकर एक की रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष अपराधी को त्‍याग देते हैं; इसलिये तुम भी इस पापी सर्प को मार डालो। गौतमी बोली- व्‍याध! इस सर्प के मारे जाने पर मेरा पुत्र पुन: जीवन प्राप्‍त कर लेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका वध करने से दूसरा कोई लाभ भी मुझे नहीं दिखायी देता है। इसलिये इस सर्प को तुम जीवित छोड़ दो। व्‍याधने कहा- देवि! वृत्रासुर का वध करके देवराज इन्‍द्र श्रेष्‍ठ पद के भागी हुए और त्रिशूलधारी रुद्रदेव ने दक्ष के यज्ञ का विध्‍वंस करके उसमें अपने लिये भाग प्राप्‍त किया। तुम भी देवताओं द्वारा किये गये इस बर्ताव का ही पालन करो। इस सर्प को शीघ्र ही मार डालो। इस कार्य में तुम्‍हें शंका नहीं करनी चाहिये।

सर्प एवं अर्जुनक का संवाद

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! व्‍याध के बार-बार कहने और उकसाने पर भी महाभागा गौतमी ने सर्प को मारने का विचार नहीं किया। उस समय बन्‍धन से पीड़ित होकर धीरे-धीरे साँस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाई से अपने को सँभालकर मन्‍दस्‍वर से मनुष्‍य की वाणी में बोला। सर्प ने कहा- ओ नादान अर्जुनक! इसमें मेरा क्‍या दोष है? मैं तो पराधीन हूँ। मृत्‍यु ने मुझे विवश करके इस कार्य के लिये प्रेरित किया था। उसके कहने से ही मैंने इस बालक को डँसा है, क्रोध से और कामना से नहीं। व्‍याध! यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्‍यु का है। व्‍याध ने कहा- ओ सर्प! यद्यपि तूने दूसरे के अधीन होकर यह पाप किया है तथापि तू भी तो इसमें कारण है ही; इसलिये तू भी अपराधी है। सर्प! जैसे मिट्टी का बर्तन बनाते समय दण्‍ड और चाक आदि को भी उसमें कारण माना जाता है, उसी प्रकार तू भी इस बालक के वध में कारण है। भुजंगम! जो भी अपराधी हो, वह मेरे लिये वध्‍य है; पन्‍नग! तू भी अपराधी है ही; क्‍योंकि तू स्‍वयं अपने आपको इसके वध में कारण बताता है। सर्प ने कहा- व्‍याध! जैसे मिट्टी का बर्तन बनाने में ये दण्‍ड–चक्र आदि सभी कारण पराधीन होते हैं, उसी प्रकार मैं भी मृत्‍यु के अधीन हूँ। इसलिये तुमने जो मुझ पर दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है। अथवा यदि तुम्‍हारा यह मत हो कि ये दण्‍ड-चक्र आदि भी एक-दूसरे के प्रयोजक होते हैं; इसलिये कारण हैं ही। किंतु ऐसा मानने से एक-दूसरे को प्रेरणा देने वाला होने के कारण कार्य-कारणभाव के निर्णय में संदेह हो जाता है। ऐसी दशा में न तो मेरा कोई दोष है और न मैं वध्‍य अथवा अपराधी ही हूँ। यदि तुम किसी का अपराध समझते हो तो वह सारे कारणों के समूह पर ही लागू होता है। व्‍याध ने कहा- सर्प! यदि मान भी लें कि तू अपराध का न तो कारण है और न कर्ता ही है तो भी इस बालक की मृत्‍यु तो तेरे ही कारण हुई है, इ‍सलिये मैं तुझे मारने योग्‍य समझता हूँ। सर्प! तेरे मत के अनुसार यदि दुष्‍टतापूर्ण कार्य करके भी कर्ता उस दोष से लिप्‍त नहीं होता है, तब तो चोर या हत्‍यारे आदि जो अपने अपराधों के कारण राजाओं के यहाँ वध्‍य होते हैं, उन्‍हें भी वास्‍तव में अपराधी या दोष का भागी नहीं होना चाहिये।[5] अत: तू क्‍यों बहुत बकवाद कर रहा है। सर्प ने कहा- व्‍याध! प्रयोजक (प्रेरक) कर्ता रहे या न रहे, प्रयोज्‍य कर्ता के बिना क्रिया नहीं होती; इसलिये यहाँ यद्यपि हम लोग (मैं और मृत्‍यु) समानरूप से हेतु; हैं तो भी प्रयोजक होने के कारण मृत्‍यु पर ही विशेषरूप से यह अपराध लगाया जा सकता है। यदि तुम मुझे इस बालक की मृत्‍यु का वस्‍तुत: कारण मानते हो तो यह तुम्‍हारी भूल है। वास्‍तव में विचार करने पर प्रेरणा करने के कारण दूसरा ही (मृत्‍यु ही) अपराधी सिद्व होगा; क्‍योकि वही प्राणियों के विनाश में अपराधी है।[6]

व्‍याध ने कहा- खोटी बुद्विवाले नीच सर्प! तू बालहत्‍यारा और क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाला है; अत: निश्‍चय ही मेरे हाथ से वध के योग्‍य है। तू वध्‍य होकर भी अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये क्‍यों बहुत बातें बना रहा है? सर्प ने कहा- व्‍याध! जैसे यजमान के यहाँ यज्ञ में ॠत्विज् लोग अग्नि में आहुति डालते हैं; किंतु उसका फल उन्‍हें नहीं मिलता। इसी प्रकार इस अपराध के फल या दण्‍ड को भोगने में मुझे नहीं सम्मिलित करना चाहिये।[7]

मुत्‍यु देवता एंव सर्प का संवाद

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! मुत्‍यु की प्रेरणा से बालक को डँसने वाला सर्प जब बारं-बार अपने को निर्दोष और मृत्‍यु को दोषी बताने लगा तब मृत्‍यु देवता भी वहाँ आ पहुँचा और सर्प से इस प्रकार बोला। मृत्‍यु ने कहा- सर्प! काल से प्रेरित होकर ही मैंने तुझे इस बालको डँसने के लिये प्रेरणा दी थी; अत: इस शिशुप्राणी के विनाश में न तो तू कारण है और न मैं ही कारण हूँ। सर्प! जैसे हवा बादलों को इधर-उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलों की ही भाँति मैं भी काल के वशमें हूँ। सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब कालात्‍मक हैं और काल की ही प्रेरणा से प्राणियों को प्राप्‍त होते हैं। सर्प! पृथ्‍वी अथवा स्‍वर्ग लोक में जितने भी स्‍थावर-जंग्‍म पदार्थ हैं, वे सभी काल के अधीन हैं। यह सारा जगत ही कालस्‍वरूप है। इस लोक में जितने प्रकार की प्रवृति-निवृति तथा उनकी विकृतियाँ (फल) हैं, ये सब काल के ही स्‍वरूप हैं। पन्‍नग! सूर्य, चन्‍द्रमा, जल, वायु, इन्‍द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्‍वी, मित्र, पर्जन्‍य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव और अभाव- ये सभी कालके द्वारा ही रचे जाते हैं और काल ही इनका संहार कर देता है। सर्प! यह सब जानकर भी तुम मुझे कैसे दोषी मानते हो? और यदि ऐसी स्थिति में भी मुझे पर दोषारोपण हो सकता है, तब तो तू भी दोषी ही है। सर् पने कहा- मृत्‍यों! मैं तुम्‍हें न तो निर्दोष बताता हूँ और न दोषी ही। मैं तो इतना ही कह रहा हूँ कि इस बालको डँसने के लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था। इस विषय में यदि काल का दोष है अथवा यदि वह भी निर्दोष है तो हो, मुझे किसी के दोषी की जाँच नहीं करनी है और जाँच करने का मुझे कोई अधिकार भी नहीं है। परंतु मेरे ऊपर जो दोष लगाया गया है, उसका निवारण तो मुझे जैसे-तैसे करना ही है। मेरे कहने का यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्‍यु का भी दोष सिद्ध हो जाय।

सर्प, अर्जुनक एवं मृत्यु देवता के मध्य वार्ता

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर सर्प ने अर्जुनक से कहा- ‘तुमने मृत्‍यु की बात तो सुन ली न? अब मुझ निरपराध को बन्‍धन में बाँधकर कष्‍ट देना तुम्‍हारे लिये उचित नहीं है। व्‍याध ने कहा- पन्‍नग! मैंने मृत्‍यु की और तेरी-दोनों की बातें सुन लीं; किंतु भुजंगम! इससे तेरी निर्दोषता नहीं सिद्ध हो रही है। इस बालक के विनाश में तू और मृत्‍यु दोनों ही कारण हो; अत: मैं दोनों को ही कारण या अपराधी मानता हूँ, किसी एक को अपराधी या निरपराध नहीं मानता। श्रेष्‍ठ पुरुषों को दु:ख देने वाले इस क्रूर एवं दुरात्‍मा मृत्‍यु को धिक्‍कार है और तू तो इस पाप का कारण है ही; इसलिये तुझ पापात्‍मा का वध मैं अवश्‍य करूँगा। मृत्‍यु ने कहा- व्‍याध! हम दोनों काल के अधीन होने के कारण विवश हैं। हम तो केवल उसके आदेश का पालनमात्र करते हैं। यदि तुम अच्‍छी तरह विचार करोगे तो हम लोगों पर दोषारोपण नहीं करोगे।[8] व्‍याध ने कहा- मृत्‍यु और सर्प! यदि तुम दोनों काल के अधीन हो तो मुझ तटस्‍थ व्‍यक्ति को परोपकारी के प्रति वर्ष और दूसरों का अपकार करने वाले तुम दोनों पर क्रोध क्‍यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ। मृत्‍यु ने कहा- व्‍याध! जगत में जो कोई भी चेष्‍टा हो रही है, वह सब काल की प्रेरणा से ही होती है। यह बात मैंने तुम से पहले ही बता दी है। अत: व्‍याध! हम दोनों को काल के अधीन और काल के ही आदेश का पालक समझकर तुम्‍हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये।

काल का संवाद

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर धार्मिक विषय में संदेह उपस्थित होने पर काल भी वहाँ आ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्‍यु एवं अर्जनक व्‍याध से इस प्रकार बोला। काल ने कहा- व्‍याध! न तो मैं, न यह मृत्‍यु और न यह सर्प ही इस जीव की मृत्‍यु में अपराधी हैं। हम लोग किसी की मृत्‍यु में प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं। अर्जुनक! इस बालक ने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्‍यु में प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाश का कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्म से ही मरता है। इस बाल कने जो कर्म किया है, उसी से यह मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाश का कारण है। हम सब लोग कर्म के ही अधीन हैं। संसार में कर्म ही मनुष्‍यों का पुत्र-पौत्र के समान अनुगमन करने वाला है। कर्म ही दु:ख-सुख के सम्‍बन्‍ध का सूचक है। इस जगत में कर्म ही जैसे परस्‍पर एक-दूसरे को प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मों से ही प्रेरित हुए हैं। जैसे कुम्‍हार मिट्टी के लोंदे से जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है। उसी प्रकार मनुष्‍य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है। जैसे धूप और छाया दोनों नित्‍य-निरन्‍तर एक-दूसरे से मिल रहते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ता दोनों अपने कर्मानुसार एक-दूसरे से सम्‍बद्ध होते हैं। इस प्रकार विचार करने से न मैं, न मृत्‍यु, न सर्प, न तुम (व्‍याध) और न यह बूढ़ी गौतमी ही इस बालक की मृत्‍यु में कारण है। यह शिशु स्‍वयं ही कर्म के अनुसार अपनी मृत्‍यु में कारण हुआ है। नरेश्‍वर! काल के इस प्रकार कहने पर गौतमी ब्राह्मणी को यह निश्‍चय हो गया कि मनुष्‍य को अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। फिर वह अर्जुनक से बोली। गौतमी ने कहा- व्‍याध! न यह काल, न सर्प और न मृत्‍यु ही यहाँ कारण हैं। यह बालक अपने कर्मों से ही प्रेरित हो काल के द्वारा विनाश को प्राप्‍त हुआ है। अर्जुनक! मैंने भी वैसा कर्म किया था जिससे मेरा पुत्र मर गया है। अत: काल और मृत्‍यु अपने-अपने स्‍थान को पधारें; और तू इस सर्पको छोड़ दे। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर काल, मृत्‍यु और सर्प जैसे आये थे वैसे ही चले गये; और अर्जुनक तथा गौतमी ब्राह्मणी का भी शोक दूर हो गया। नरेश्‍वर! इस उपाख्‍यानम को सुनकर तुम शान्ति धारण करो, शोक में न पड़ो। सब मनुष्‍य अपने-अपने कर्मों के अनुसार प्राप्‍त होने वाले लोकों में ही जाते हैं। तुमने या दुर्योधन ने कुछ नहीं किया है। काल की ही यह सारी करतूत समझो, जिससे समस्‍त भूपाल मारे गये हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्‍म की यह बात सुनकर महातेजस्‍वी धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर की चिन्‍ता दूर हो गयी; तथा उन्‍होंने पुन: इस प्रकार प्रश्‍न किया।[9]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-17
  2. अपने ऊपर पापका भारी बोझ नहीं लादते हैं
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 18-29
  4. क्‍योंकि यदि यह जीवित रहा तो बहुतों को काटेगा।
  5. फिर तो पाप और उसका दण्‍ड भी व्‍यर्थ ही होगा
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 30-46
  7. क्‍योंकि वास्‍तव में मृत्‍यु ही अपराधी है
  8. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 47-65
  9. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 66-83

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दान-धर्म-पर्व
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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल 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विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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