छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 96 में छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जब सूर्यदेव इस प्रकार याचना कर रहे थे, उस समय महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि ने कौन-सा कार्य किया?

भीष्म द्वारा सूर्यदेव के याचना करने पर जमदग्नि के कार्य का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- कुरुनन्दन। सूर्यदेव के इस तरह प्रार्थना करने पर भी अग्नि के समान तेजस्वी जमदग्नि मुनि का क्रोध शान्त नहीं हुआ। प्रजानाथ! तब विप्ररूपधारी सूर्य ने हाथ जोड़ प्रणाम करके मधुर वाणी द्वारा यों कहा- विप्रर्षे! आपका लक्ष्य तो चल है, सूर्य भी सदा चलते रहते हैं। अतः निरन्तर यात्रा करते हुए सूर्यरूपी चंचल लक्ष्य का आप किस प्रकार भेदन करेंगे?

जमदग्नि बोले- हमारा लक्ष्य चंचल हो या स्थिर, हम ज्ञान दष्टि से पहचान गये हैं कि तुम्हीं सूर्य हो। अतः आज दण्ड देकर तुम्हें अवश्य ही विनयुक्त बनायेंगे। दिवाकर! तुम दोपहर के समय आधे निमेष के लिये ठहर जाते हो। सूर्य! उसी समय तुम्हें स्थिर पाकर हम अपने बाणों द्वारा तुम्हारे शरीर का भेदन कर डालेंगे। इस विषय में मुझे कोई (अन्यथा) विचार नहीं करना है।

सूर्य बोले- धमुर्धरों में श्रेष्ठ विप्रर्षे! निसंदेह आप मेरे शरीर का भेदन कर सकते हैं। भगवन! यद्यपि मैं आपका अपराधी हूँ तो भी आप मुझे अपना शरणागत समझिये।

छत्र और उपानह की उत्पत्ति

भीष्म जी कहते हैं- राजन! सूर्यदेव की यह बात सुनकर जमदग्नि हंस पड़े और उनसे बोले- ‘सूर्यदेव! अब तुम्हें भय नहीं मानना चाहिये; क्योंकि तुम मेरे शरणागत हो गये हो। ‘ब्राह्मणों में जो सरलता है, पृथ्वी में जो स्थिरता है, सोम का जो सौम्यभाव, सागर की जो गम्भीरता, अग्नि की जो दीप्ति, मेरु की जो चमक और सूर्य का जो प्रताप है- इन सबका वह पुरुष उल्लंघन कर जाता है, इन सबकी मार्यादा का नाश करने वाला समझा जाता है जो शरणागत का वध करता है। जो शरणागत की हत्या करता है, उसे गुरुपत्नीगमन ब्रह्मत्या और मदिरापान का पाप लगता है’। तात! इस समय तुम्हारे द्वारा जो यह अपराध हुआ है, उसका कोई समाधान -उपाय सोचो। जिससे तुम्हारी किरणों द्वारा तपा हुआ मार्ग सुगमता पूर्वक चलने योग्य हो सके’।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! इतना कहकर भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि मुनि चुप हो गये। तब भगवान सूर्य ने उन्हें शीघ्र ही छत्र और उपानह दोनों वस्तुऐं प्रदान कीं।

दान की प्रशंसा

सूर्यदेव ने कहा- महर्षे! यह छत्र मेरी किरणों का निवारण करके मस्तक की रक्षा करेगा तथा चमड़े के बने ये एक जोड़े जूते हैं, जो पैरों को जलने से बचाने के लिये प्रस्तुत किये गये हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये। आज से जगत में इन दोनों वस्तुओं का प्रचार होगा और पुण्य के सभी अवसरों पर इनका दान उत्तम एवं अक्षय फल देने वाला होगा।

भीष्म जी ने कहते है- भारत! छाता और जूता- इन दोनों वस्तुओं का प्राकट्य- छाता लगाने और जूता पहनने की प्रथा सूर्य ने ही जारी की है। इन वस्तुओं का दान तीनों लोकों में पवित्र बताया गया है। इसलिये तुम ब्राह्मणों को उत्तम छाते और जूते दिया करो। उनके दान से महान धर्म होगा। इस विषय में मुझे भी संदेह नहीं है। भरतश्रेष्ठ जो ब्राह्मण को सौ शलाकाओं से युक्त सुन्दर छाता दान करता है, वह परलोक में सुखी होता है। भरतभूषण! वह देवताओं, ब्राह्मणों और अप्सराओं द्वारा सतत सम्मानित होता हुआ इन्द्रलोक में निवास करता है।[1]

महाबाहो! भरतनन्दन! जिसके पैर जल रहे हों ऐसे कठोर व्रतधारी स्नातक द्धिज को जूते दान करता है, वह शरीर-त्याग के पश्चात् देववन्दित लोकों में जाता है।[2] और बड़ी प्रसन्नता के साथ गोलोक में निवास करता है। भरतश्रेष्ठ! भरतसत्तम! यह मैंने तुमसे छातों और जूतों के दान का सम्पूर्ण फल बताया है।

शूद्रों पर कृपा करने का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। इस जगत में शूद्रों के लिये सदा द्धिजातियों की सेवा को ही परम धर्म बताया गया है। वह सेवा किन कारणों से कितने प्रकार की कही गयी है? भरतभूषण! भरतरत्न! शूद्रों को द्धिजों की सेवा से किन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है? मुझे धर्म का लक्षण बताइये।

भीष्म जी ने कहा- राजन। इस विषय में ब्रह्मवादी पराशर ने शूद्रों पर कृपा करने के लिये जो कुछ कहा है, उसी इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। बड़े-बूढ़े पराशर मुनि ने सब वर्णों पर कृपा करने के लिये शौचाचार से सम्पन्न निर्मल एवं अनामय धर्म का प्रतिपादन किया। तत्त्वज्ञ पराशर मुनि ने अपने सारे धर्मोपदेश को ठीक-ठीक आनुपूर्वी सहित अपने शिष्‍यों को पढ़ाया। वह एक सार्थक धर्मशस्त्र था।

पराशर ने कहा- मनुष्य को चाहिये कि वह जीतेन्द्रिय, मनोनिग्रही, पवि. चंचलता रहित, सबल, धैर्यशील, उत्तरोत्तर वाद-विवाद न करने वाला, लोभहीन, दयालु, सरल, ब्रह्मवादी, सदाचार परायण और सर्वभूत हितैषी होकर सदा अपने ही देह में रहने वाले काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह और मद- इन छह शत्रुओं को अवश्‍य जीतें। बुद्धिमान मनुष्य विधिपूर्वक धैर्य का आश्रय ले गुरुजनों की सेवा में तत्पर, अहंकार शून्य तथा तीनों वर्णों की सहानुभूति का पात्र होकर अपनी शक्ति और बल के अनुसार कर्म, मन, वाणी, और नेत्र- इन चारों के द्वारा चार प्रकार संयम का अबलंवन ले शांत चित्त, दमनशील एवं जीतेन्द्रिय हो जाये। दक्ष, ज्ञानीजनों का नित्य अन्वेषण करने वाला यज्ञ शेष अमृत रूप अन्न का भोजन करे। जैसे भौरा फूलों से मधु का संचय करता है, उसी प्रकार तीनों वर्णों से मुधकरि भिक्षा का संचय करते हुए ब्राह्मण भिक्षु को धर्म का आचरण करना चाहिये। ब्राह्मणों का धन है वेद-शास्‍त्रों का स्वाध्याय, क्षत्रियों का धन है बल, वैश्‍यों का धन है व्यापार और खेती तथा शूद्रों का धन है तीनों वर्णों की सेवा। इस धर्मरूपी धन का उच्छेद करने से मनुष्य नरक में पड़ता है। नरक से निकलने पर ये धर्म रहित निर्दय मनुष्य म्लेच्छ होते हैं और मलेच्छ होने के बाद फिर पाप कर्म करने से उन्हें सदा के लिये नरक और पशु-पक्षी आदि तिर्यक योनि की प्राप्ति होती है। जो लोग प्राचीन वर्णाश्रमोचित सन्मार्ग का आश्रय सारे विपरीत मार्गों का परित्याग करके स्वधर्म के मार्ग पर चलते हैं, समस्त प्राणियों के प्रति दया रखते हैं और क्रोध को जीतकर शास्त्रोक्त विधि से श्रद्धा पूर्वक देवताओं तथा ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, उनके लिये यथावत रूप से क्रमश: सम्पूर्ण धर्मों के ग्रहण की विधि तथा सेवा भाव की प्राप्ति आदि का वर्णन करता हूँ। जो विशेष रूप से शौच का सम्पादन करना चाहते हैं, उनके लिये सभी शौच विषयक प्रयोजनों का वर्णन करता हूँ। तत्त्वदर्शी विद्वानों ने शास्त्र में महाशौच आदि विद्यानों को प्रत्यक्ष देखा है।[2]

शौच-कर्म का वर्णन

वहाँ शूद्र भी भिक्षुओं के शौचाचार के लिये मिट्टी तथा अन्य आवश्‍यक पदार्थों का प्रबन्ध करें।[3] जो धर्म के ज्ञाता, केवल धर्म के ही आश्रित तथा सम्यक ज्ञान से सम्पन्न हैं, उन सर्वहितेसी संन्यासियों को चाहिये कि वे सज्जना चरित मार्ग पर स्थित हों इस पवित्र कोमलता स्वरूप स्थान (मल त्याग के योग्य क्षेत्र आदि) का निश्‍चय करें। मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले पुरुष को चाहिये कि वह निर्जन एवं घिरे हुए स्थान को देखकर वहाँ सजल पात्र और देखभाल कर ली हुई मृत्तिका रखें। फिर उस भूमि का भलिभाँति निरीक्षण करके मौन होकर मूल-त्याग के लिये बैठें। यदि दिन हो तो उत्तर की ओर मुंह करके और रात हो तो दक्षिणा भिमुख होकर मल या मूत्र का त्याग करें। मल त्याग करने के पूर्व उस समय भूमि को तिनके आदि से ढ़के रहना चाहिये तथा अपने मस्तक को भी वस्त्र से आच्छादित किये रहना उचित है। जब तक शौक कर्म समाप्त न हो जाये तब तक मुंह से कुछ न बोलें, अर्थात मौन रहे। शौच-कर्म पूरा करके भी आचमन के अनन्तर जाते समय मौन ही रहें। शौच के लिये बैठा हुआ पुरुष अपने सामने मृत्तिका और जल पात्र रखें। धीर पुरुष कमण्डलु को हाथ में लिये हुए दाहिने पाश्‍व और उरू के मध्य देश में रखें और सावधानी के साथ धीरे-धीरे मूत्र त्याग करें, जिससे अपने किसी अंग पर उसका छींटा न पड़े। तत्पश्चात् हाथ से विधिपूर्वक शुद्ध जल लेकर मूत्र स्थान (उपस्थ) को ऐसी सावधानी के साथ धोऐं जिससे उसमें मूत्र की बूंदें न लगी रह जायें तथा अशुद्ध हाथ से दोनों जांघों का भी स्पर्श न करें। यदि मल त्याग किया गया हो तो गुदा भाग को धोते समय उसमें क्रमश: तीन बार मिट्टी लगाऐं। गुदा को शुद्ध करने के लिये बारंबार इस प्रकार धोना चाहिये कि जल का आघात कपड़े में न लगे। जिसका कपड़ा मल से दूषित हो गया है ऐसे पुरुष के लिये द्धिगुण शौच का विधान है। उसे दोनों पैरों, दोनो जांघों और दोनों हाथों की विशेष शुद्धि अवश्‍य करनी चाहिये। शौच का पालन न करने से शरीर-शुद्धि के विषय में संदेह बना रहता है। अतः जिस-जिस प्रकार से शरीर शुद्धि हो वैसे-ही-वैस कार्य करने की चेष्टा करें। मिट्टी के साथ क्षार और रेह मिलाकर उसके द्वारा वस्त्र की शुद्धि करनी चाहिये।

जिसमें कोई अपवित्र वस्तु लग गयी हो उस वस्त्र से उस वस्तु का लेप मिट जाये और उसकी दुर्गन्ध दूर हो जाये, ऐसी शुद्धि का सम्पादन आवश्‍यक होता है। आपत्तिकाल में चार, तीन, दो अथवा एक बार मृत्तिका लगानी चाहिये। देश और काल के अनुसार शौचाचार में गौरव अथवा लाघव किया जा सकता है। इस विधि से प्रतिदिन आलस्य का परित्याग करके शौच (शुद्धि) का सम्पादन करें तथा शुद्धि का सम्पादन करने वाला पुरुष दोनों पैरों को धोकर इधर-उधर दृष्टि न डालता हुए बिना किसी घबराहट के चला जाये। पहले पैरों को भलि-भाँति धोकर फिर कलाई से लेकर समूचे हाथ को ऊपर से नीचे तक धो डाले। इसके बाद हाथ में जल लेकर आचमन करे।[3] आचमन के समय मौन होकर तीन बार जल पीये।[4] उस जल में किसी प्रकार की आवाज न हो तथा आचमन के पश्चात् वह जल हृदय तक पहुँचे। विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह अंगूठे के मूलभाग से दो बार मुह पोंछें। इसके बाद इन्द्रियों के छिद्रों का स्पर्श करे। वह प्रथम बार जो जल पीता है, उससे ऋग्वेद को तृप्त करता है, द्धितीय बार का जल यजुर्वेद को और तृतीय बार का जल सामवेद को तृप्त करता है। पहली बार जो मुख का मार्जन किया जाता है, उससे अथर्ववेद तृप्त होता है और द्धितीय बारे के मार्जन से इतिहास-पुराण एवं स्मृतियों के अधिष्ठाता देवता संतुष्ट होते हैं। मुखमार्जन के पश्चात् द्धिज जो अंगुलियों से नेत्रों का स्पर्श करता है, उसके द्वारा वह सूर्यदेव को तृप्त करता है। नासिका के स्पर्श से वायु को और दोनों कानों के स्पर्श से वह दिशाओं को संतुष्ट करता है। आचमन करने वाला पुरुष अपने मस्तक पर जो हाथ रखता है, उसके द्वारा वह ब्रह्मा जी को तृप्त करता है और ऊपर की ओर जो जल फेंकता है, उसके द्वारा वह आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है। वह अपने दोनों पैरों पर जो जल डालता है, इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। आचमन करने वाला पुरुष पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके अपने हाथ को घुटने के भीतर रखकर जल का स्पर्श करे। भोजन आदि सभी अवसरों पर सदा आचमन करने की यही विधि है। यदि दांतों अन्न लगा हो तो अपने को जूठा मानकर पुनः आचमन करे, यह शौचाचार की विधि बतायी गयी। किसी वस्तु की शुद्धि के लिये उस पर जल छिड़कना भी कर्तव्य माना जाता है। (साधु-सेवा के उद्वेश्‍य से) घर से निकलते समय शूद्र के लिये भी यह शौचाचार की विधि देखी गयी है। जिसने मन को वश में किया है तथा जो अपने हित की इच्छा रखता है, ऐसे सुयशकामी शूद्र को चाहिये कि वह सदा शौचाचार से सम्पन्न होकर ही संन्‍यासियों के निकट जाये और उनकी सेवा आदि का कार्य करे। क्षत्रिय आरम्भ (उत्साह) रूप यज्ञ करने वाले होते हैं। वैश्‍यों के यज्ञ में हविष्य (हवनीय पदार्थ) की प्रधानता होती है, शूद्रों का यज्ञ सेवा ही है तथा ब्राह्मण जप रूपी यज्ञ करने वाले होते हैं। शूद्र सेवा से जीवन निर्वाह करने वाले होते हैं। वैश्‍य से व्यापार जीवी हैं, दुष्टों का दमन करना क्षत्रियों की जीवन वृति है और ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय से जीवन निर्वाह करते हैं। क्योंकि ब्राह्मण तपस्या से, क्षत्रिय पालन आदि से वैश्‍य अतिथि सत्कार से और शूद्र सेवावृति से शोभा पाते हैं।

शूद्र धर्म का वर्णन

अपने मन को वश में रखने वाले शूद्र को सदा ही तीन वर्णों की विशेषतः आश्रम वासियों की सेवा करनी चाहिये। त्रिवर्ण की सेवा में अषक्त हुए शूद्र को अपनी शक्ति, वुद्धि, धर्म तथ शास्त्र ज्ञान के अनुसार आश्रम वासियों की सेवा करनी चाहिये। विशेषतः संन्यास आश्रम में रहने वाले भिक्षु की सेवा उसके लिये परम कर्तव्य है। शास्त्रों के सिद्वान्त- ज्ञान में निपुण शिष्ट पुरुष चारों आश्रमों में संन्‍यास को ही प्रधान मानते हैं। शिष्ट पुरुष वेदों और स्मृतियों के विधान के अनुसार जिस कर्तव्‍य का उपदेश करें असमर्थ पुरुष को उसी का अनुष्ठान करना चाहिये। उसके लिये वही धर्म निश्चित किया गया है।[4] इसके विपरीत करने वाला मानव कल्याण का भागी नहीं होता है, अतः शूद्र को संन्‍यासियों की सेवा करके सदा अपना कल्याण करना चाहिये।[5] मनुष्य इस लोक में जो कल्याणकारी कार्य करता है, उसका फल मृत्यु के पश्चात् उसे प्राप्त होता है। जिसे वह अपना कर्तव्य समझता है, उस कार्य को वह दोष दृष्टि न रखते हुए करे। दोष दृष्टि रखते हुए जो कार्य किया जाता है, उसका फल इस जगत में बड़े दुःख से प्राप्त होता है। शूद्र को चाहिये कि वह प्रिय वचन बोले, क्रोध को जीते, आलस्य दूर भगा दे, ईर्ष्‍या-द्वेष से रहित हो जाये, क्षमाशील, शीलवान तथा सतधर्म में तत्पर रहे। आपत्ति काल में वह संन्‍यासियों के आश्रम में जाकर उनकी सेवा करे। ‘यही मेरा परम धर्म है, इसी के द्वारा मैं अत्यन्त दुस्तर घोर-संसार सागर से पार हो जाऊंगा। इसमें संशय नहीं है। मैं निर्भय होकर इस देह का त्याग करके परमगति को प्राप्त हो जाऊंगा। इससे बढ़कर मेरे लिये दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। यही सनातन धर्म है।’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके प्रसन्नचित्त हुआ शूद्र बुद्धि को एकाग्र करके सदा उत्तम शुश्रूषा-धर्म का पालन करे। शूद्र को चाहिये कि वह नियम पूर्वक सेवा में तत्तपर रहे, सदा यज्ञ शिष्ट अन्न भोजन करे। मन और इन्द्रियों को वश में रखे और सदा कर्तव्या कर्तव्य को जाने। सभी कार्यो में जो आवश्‍यक कृत्य हों, उन्हें करके ही दिखावे। जैसे-जैसे संन्यासी को प्रसन्नता हो, उसी प्रकार उसका कार्य साधन करे। जो कार्य संन्यासी के लिये हितकर न हो, उसे कदापि ने करे। जो कार्य संन्‍यास-आश्रम के विरूद्व न हो तथा जो धर्म के अनुकूल हो, शुभ की इच्छा रखने वालो शूद्र को वह कार्य सदा बिना विचारे ही करना चाहिये। मन-वाणी और क्रिया द्वारा सदा ही उन्हें संतुष्ट रखें।

जब वे संन्यासी खड़े हों, तब सेवा करने वाले शूद्र को स्वयं भी खड़ा रहना चाहिये तथा जब वे कहीं जा रहे हो तब उसे स्वयं भी उनके पीछे-पीछे जाना चाहिये। यदि वे आसन पर बैठे हों तब वह स्वयं भी भूमि पर बैठे। तात्पर्य है कि सदा ही उनका अनुसरण करता रहे। रात्रि के कार्य पूरा करके प्रतिदिन उनसे आज्ञा लेकर विधि पूर्वक स्नान करके उनके लिये जल से भरा हुआ कलश ले आकर रखे। फिर संन्‍यासियों के स्थान पर जाकर उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करे इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्राह्मण आदि गुरुजनों को प्रणाम करे। इसी प्रकार स्वधर्म का अनुष्ठान करने वाले आचार्य आदि को नमस्कार एवं अभिवादन करे। उनका कुशल समाचार पूछे। पहले जो शूद्र आश्रम के कार्य में सिद्वहस्त हों, उनका स्वयं भी सदा अनुकरण करे, उनके समान कार्य परायण हों। अपने समान धर्माशूद्र को प्रणाम करे, दूसरे शूद्रों को कदापि नहीं। संन्‍यासियों अथवा आश्रम के दूसरे व्यक्तियों को कहे बिना ही प्रतिदिन नियम पूर्वक उठे और झाड़ू देकर आश्रम की भूमि को लीप-पोत दे। तत्पश्चात् धर्म के अनुसार फूलों का संग्रह करके पूजनीय देवता की उन फूलों द्वारा पूजा करे। इसके बाद आश्रम से निकलर तुरंत ही दूसरे कार्य में लग जाये। आश्रम वासियों के स्वाध्याय में विघ्न न पड़े, इसके लिये सदा सचेष्ट रहे। जो स्वाध्याय में विघ्न डालता है, वह पाप का भागी होता है।[5] अपने-आपको इस प्रकार सावधानी के साथ सेवा में लगाये रखना चाहिये जिससे वे साधु लोग प्रसन्न हो।[6] शूद्र को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ‘मैं तो शास्त्रों में धर्मतः तीनों वर्णों का सेवक वताया गया हूँ। फिर जो संन्‍यास आश्रम में रहकर जो कुछ मिल जाये, उसी से निर्वाह करने वाले बड़े-बूढ़े संन्यासी हैं, उनकी सेवा के विषय में तो कहना ही क्या है? (उनकी सेवा करना तो मेरा परम धर्म है ही)। ‘जो केवल ज्ञानदर्शी, वीतराग संन्यासी हैं, उनकी सेवा मुझे विशेष रूप से मन को वश में रखते हुए करनी चाहिये। ‘उनकी कृपा और तपस्या से मैं मनोवांछित शुभ गति प्राप्त कर लूंगा। ’ऐसा निश्‍चय करके यदि शूद्र पूर्वोक्त विधि से संन्‍यासियों का सेवन करे तो परम गति को प्राप्त होता है। शूद्र सेवा कर्म से जिस मनोवांछित गति को प्राप्त कर लेता है, वैसी गति दान तथा उपवास आदि के द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता।

शूद्र द्वारा ब्राह्मण की सेवा

मनुष्य जैसे जल से कपड़े धोता है, उस जल की स्वच्छता के अनुसार ही वह वस्त्र स्वच्छ होता है। शूद्र भी इसी मार्ग से चलकर जैसे पुरुष का सेवन करता है, संसर्गवश वह शीध्र वैसा हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। अत शूद्र को चाहिये कि अपने मन को वश में करके प्रयत्न पूर्वक संन्‍यासियों की सेवा करे। जो राह चलने से थके-मांदे कष्ट पा रहे हों तथा रोग से पीड़ित हों, उन संन्‍यासियों की उस आपत्ति के समय यत्न और नियम के साथ विशेष सेवा करें। उन कुशासन, मृगचर्म और भिक्षा पात्र की भी देख भाल करें तथा उनकी रुचि के अनुसार सारा कार्य करता रहे। सब कार्य इस प्रकार सावधानी से करे, जिससे कोई अपराध न बनने पावे। संन्यासी यदि रोग ग्रस्त हो जाये तो सदा उद्यत रहकर उनके कपड़े धोवे। उनके लिये औषधि ले आवे तथा उनकी चिकित्सा के लिये प्रयत्न करे। भिक्षुक बीमार होने पर भी भिक्षाटन के लिये जाये। विद्वान चिकित्सकों के यहाँ उपस्थित हो तथा रोग-निवारण के लिये उपयुक्त विशुद्ध औषधियों का संग्रह करें। जो चिकित्सक प्रसन्नतापूर्वक औषधि दे, उसी से संन्यासी को औषध लेना चहिये। अश्रद्धापूर्वक दी हुई औषधियों को संन्यासी अपने उपयोग न ले। जो श्रद्धा पूर्वक दी गयी और श्राद्ध से ही ग्रहण की गई हों, उसी औषधि के सेवन से धर्म होता है और रोगों से छुटकारा भी मिलता है। शूद्र को चाहिये कि जब तक यह शरीर छूट न जाये तब तक इसी प्रकार विधि पूर्वक सेवा करता रहे। धर्म का उल्लघंन करके उन साधु-संन्‍यासियों के प्रति विपरीत आचरण न करे। शीत-उष्म आदि सारे द्वंद स्वभाव से ही आते-जाते रहते हैं, समस्त पदार्थ स्वभाव से ही उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। सारे त्रिगुणमय पदार्थ समुद्र की लहरों के समान उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं। जो बुद्धिमान एवं तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसा मानता है, वह जल से निर्लिप्त रहने वाले पद पघपत्र के समान पाप से लिप्त नहीं होता। इस प्रकार शूद्रों का आलस्य शून्य होकर संन्‍यासियों की सेवा के लिये प्रयत्न शील रहना चाहिये। वह सब प्रकार की छोटी-बड़ी सेवाओं द्वारा ऐसी चेष्टा करे, जिससे वे संन्यासी सदा संतुष्ट रहें।[6]भिक्षु का अपराध कभी न करें, उसकी अवहेलना भी न करें, उसकी कड़ी बात का कभी उत्तर न दें और यदि वह कुपित हो तो उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करें।[7] सदा कल्याणकारी बात ही बोलें और प्रसन्नतापूर्वक कल्याणकारी कर्म ही करें। संन्यासी कुपित हो तो उसके सामने चुप ही रहें, बातचीत न करें। संन्यासी को चाहिये कि भाग्य से कोई वस्तु मिले या न मिले, जो कुछ प्राप्त हो उसी से जीवन निर्वाह एवं शरीर का र्पोषण करें। जो क्रोधी हो, उससे किसी वस्तु की याचना न करें। जो ज्ञान से द्वेष रखता हो, उससे भी कोई वस्तु न मांगे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियों पर दया करें। जैसे अपने ऊपर उसी प्रकार दूसरों पर समतापूर्ण दृष्टि डालें।

संन्यासी पुण्य तीर्थों का निरंतर सेवन करे, नदियों के तट पर कुटी बनाकर रहे। अथवा सूने घर में डेरा डाले। वन में वृक्षों के नीचे अथवा पर्वतों की गुफाओं में निवास करें। सदा वन में विचरण करे। वेदरूपी वन का आश्रय ले, किसी भी स्थान में एक रात या दो रात से अधिक न रहें। कहीं भी आसक्त न हों। संन्यासी जंगली फल-मूल अथवा सूखे पत्ते का आहार करे। वह भोग के लिये नहीं, शरीर यात्रा के निर्वाह के लिये भोजन करे। वह धर्मतः अन्न का भोजन करे। कामना पूर्वक कुछ भी न खाय। रास्ता चलते समय वह दो हाथ आगे तक की भूमि पर ही दृष्टि रखे और एक दिन में एक कोस से अधिक न चले। मान हो या अपमान-वह दोनों अवस्थाओं में समान भाव से रहे। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण को एक समान समझे। समस्त प्राणियों को निर्भय करे और सबको अभय की दक्षिणा दे। शीत-उष्ण आदि द्वंदों से निर्विकार रहे, किसी को नमस्कार न करे। सांसारिक सुख और परिग्रह से दूर रहे। ममता और अहंकार को त्याग दे। समस्त प्राणियों में से किसी के भी आश्रित न रहे। वस्तुओं के स्वरूप के विषय में विचार करके उनके तत्त्वज्ञ को जाने। सदा सत्य में अनुरक्त रहे। ऊपर, नीचे या अगल-बगल में कहीं किसी वस्तु की कामना न करे। इस प्रकार विधि पूर्वक यति धर्म का पालन करने वाला संन्यासी काल के परिणाम वश अपने शरीर को पके हुए फल की भाँति त्यागकर सनातन ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है। वह ब्रह्म निरामय, अनादि, अनन्त, सौम्यगुण से युक्त, चेतना से ऊपर उठा हुआ, अनिर्वचनीय, बीजहीन, इन्द्रियातीत, अजन्मा, अजेय, विनाशी, अभेद्य, सूक्ष्म, निगुर्ण, सर्वशक्तिमान, निर्विकार, भूत, वर्तमान और भविष्काल का स्वामी तथा परमेश्वर है। वहीं अव्यक्त, अर्न्तयामी पुरुष और क्षेत्र भी है। जो उसे जान लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह भिक्षु घोंसला छोड़कर उड़ जाने वाले पक्षी की भाँति यहीं इस शरीर को त्याग समस्त पापों को ज्ञानाग्नि से दग्ध कर देने के कारण निर्वाण-मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका वैसा ही फल भोगता है। बिना किये हुए कर्म का फल किसी को नहीं भोगना पड़ता है तथा किये हुए कर्म का फल भोग के बिना नष्ट नहीं होता है।[7]

शुभ कर्म के आचरण का वर्णन

जो शुभ कर्म का आचरण करता है, उसे शुभ फल की प्राप्ति होती है और जो अशुभ कर्म करता है, वह अशुभ फल का भागी होता है।[8] अतः जो अपना कल्याण चाहता हो, वह शुभ कर्मों का ही आचरण करे। अशुभ कर्मों का त्याग दे। ऐसा करने से वह शुभ फलों ही प्राप्त कर सकेगा। मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी इन्द्रियों को वश में करके शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न हो। शास्त्र के ज्ञान से ही मनुष्य को अनामय गति की प्राप्ति हो सकती है। साधु पुरुष जिसका अन्वेषण करते हैं, वह परम गति शास्त्रों में देखी गयी है। जहाँ पहुँचकर मनुष्य अनन्त दुःख का परित्याग करके अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। इस धर्म का आश्रय लेकर पाप योनि में उत्पन्न हुए पुरुष तथा स्त्रियां, वैश्‍य और शूद्र भी परम गति को प्राप्त कर लेते हैं। फिर जो विद्वान ब्राह्मण अथवा बहुश्रुत क्षत्रिय है, उसकी सदगति के विषय में क्या कहना है। जिस देहधारी के पाप क्षीण नहीं हुए हैं उसे ज्ञान नहीं होता। जब मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तब वह कृतकृत्य हो जाता है। ज्ञान या विज्ञान को प्राप्त कर लेने पर भी दोष दृष्टि से रहित हो गुरुजनों के प्रति पहले जैसा ही सद्भाव रखे। अथवा एकाग्रचित्त होकर पहले से भी अधिक श्रद्धाभाव रखे। शिष्य जिस तरह गुरु का अपमान करता है, उसी प्रकार गुरु भी शिष्‍यों के प्रति बर्ताव करता है। अर्थात शिष्य को अपने कर्म अनुसार फल मिलता है। गुरु का अपमान करने वाले शिष्य का किया हुआ वेद शास्त्रों का अध्ययन व्यर्थ हो जाता है। उसका सारा ज्ञान अज्ञान रूप में परिणित हो जाता है। वह नरक में जाने के लिये अशुभ मार्ग को ही प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। उसका पुण्य नष्ट हो जाता है और ज्ञान अज्ञान हो जाता है। जिसने पहले कभी कल्याण का दर्शन नहीं किया है ऐसा मनुष्य शास्त्रोक्त विधि को न देखने के कारण अभिमान वश मोह को प्राप्त हो जाता है। अतः उसे तत्त्वा ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। अत: किसी को भी ज्ञान का अभिमान नहीं करना चाहिये। ज्ञान का फल है शांति, इसलिये सदा शांति के लिये ही प्रयत्न करें। मन का निग्रह और इन्द्रियों का संयम करके सदा क्षमाशील तथा अदोषदर्शी होकर गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये। धैर्य के द्वारा उपस्थ और उदर की रक्षा करे। नेत्रों के द्वारा हाथ ओर पैरों की रक्षा करे। मन से इन्द्रियों के विषयों का बचावे और मन को बुद्धि में स्थापित करें। पहले शुद्ध और घिरे हुए स्थानों में जाकर आसन ले, उसके ऊपर धैर्यपूर्वक बैठें और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ध्यान के लिये प्रयत्न करें। विवेकयुक्त साधक अपने हृदय में विराज मान परमात्मदेव का साक्षात्कार करे। जैसे आकाश में विद्युत का प्रकाश देखा जाता है तथा जिस प्रकार किरणों वाले सूर्य प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार उस परमात्म देव को धूम रहित अग्नि की भाँति तेजस्वी स्वरूप से प्रकाशित देखें। हृदय देश में विराज मान उन अविनाशी सनातन परमेश्वर का बुद्धिरूपी नेत्रों के द्वारा दर्शन करे। जो योग युक्त नहीं है ऐसा पुरुष अपने हृदय में विराज मान उस महेश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता। योग युक्त पुरुष ही मन को हृदय में स्थापित करके बुद्धि के द्वारा उस अन्‍तर्यामी परमात्मा का दर्शन करता है।[8]

यदि इस प्रकार हृदय देश में ध्यान-धारण न कर सके तो यथावत रूप से योग से योग का आश्रय ले।[9] सांख्य शास्त्र के अनुसार उपासना करे। इस शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच भूत और सोलहवां मन- ये सोलह विकार हैं। पांच तन्मात्राऐं, मन, अहंकार और अवयक्त- ये आठ प्रकृतियां हैं। ये आठ प्रकृतियां और पूर्वोक्त सोलह विकार- इन चौबीस तत्त्वों का यहाँ रहने वाले तत्त्वज्ञ पुरुष को जानना चाहिये। इस प्रकार प्रकृति-पुरुष का विवेक हो जाने से मनुष्य शरीर के बन्धन से ऊपर उठकर भवसागर से पार हो जाता है, अन्यथा नहीं। ज्ञानयुक्त बुद्धि वाले पुरुष को यही सांख्य योग मानना चाहिये। प्रतिदिन शान्तचित्त हो अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाने और अपना हित साधन करने के लिये इसी प्रकार उपर्युक्त तत्त्वों का विचार करने से मनुष्य को यर्थात तत्त्व का बोध हो जाता है और वह बन्धन से छूट जाता है। शुद्ध तत्त्वार्थ को तत्त्व से जानने वाला पुरुष अवयव रहित अद्धितीय ब्रह्म हो जाता है। मनुष्य को सदा सत्पुरुषों के समीप रहना चाहिये। विद्या में बढ़े-चढे़ पुरुषों का सेवन करना चाहिये। जो जिसके निकट रहता है, उसके समान वर्ण का हो जाता है। जैसे नील पक्षी मेरु पर्वत का आश्रय लेने से सुवर्ण के समान रंग का हो जाता है।

भीष्म जी कहते हैं -युधिष्ठिर! शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले महामुनि पराशर इस प्रकार चारों वर्णों के लिये कर्तव्य का विधान बताकर तथा शुश्रुसा और समाधि से प्राप्त होने वाली गति का निरूपण करके एकाग्रत्ति हो अपने आश्रम को चले गये।

युधिष्ठिर का प्रश्न

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! इस लोक में महाभाग देवता किन महात्माओं को मस्तक झुकाते हैं? मैं उन समस्त ऋषियों का यर्थात परिचय सुनना चाहता हूँ।

भीष्म द्वारा इंद्र और मातलि के संवाद का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में प्राचीन बातों को जानने वाले महाज्ञानी ब्राह्मण इस इतिहास का वर्णन करते हैं। तुम उस इतिहास को सुनो। जब इन्द्र वृत्रासुर को मारकर लौटे, उस समय देवता उन्हें आगे करके खड़े थे। महर्षिगण महेन्द्र की स्तुति करते थे। हरित वाहनों वाले इन्द्र रथ पर बैठकर उत्तम शोभा से सम्पन्न हो रहे थे उसी समय मातलि ने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्र से कहा।

मातलि बोले- भगवन! जो सबके द्वारा वन्दित होते हैं, उन समस्त देवताओं के आप अगुआ हैं; परंतु आप भी इस जगत में जिनको मस्तक झुकाते हैं, उन महात्माओं का मुझे परिचय दीजिये।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! मातलि की वह बात सुनकर शचिपति देवराज इन्द्र ने उपर्युक्त प्रश्‍न पूछने वाले अपने सारथी से इस प्रकार कहा। इन्द्र बोले- मातले! धर्म, अर्थ और काम का चिन्तन करते हुए जिनकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती, मैं प्रतिदिन उन्हीं को नमस्कार करता हूँ। मातले! जो रूप और गुण से सम्पन्न हैं तथा युवतियों के हृदय-मन्दिर में हठात प्रवेश कर जाते हैं अर्थात जिन्हें देखते ही युवतियां मोहित हो जाती हैं, ऐसे पुरुष यदि काम-भोग से दूर रहते हैं तो मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ। मातले! जो अपने को प्राप्त हुए भोगों में ही संतुष्ट हैं- दूसरों से अधिक की इच्छा नहीं रखते। जो सुन्दर वाणी बोलते हैं और प्रवचन करने में कुशल हैं, जिनमें अहंकार और कामना का सर्वथा अभाव है तथा जो सबसे अर्घ्य पाने योग्य हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।[9] धन, विद्या और एश्वर्य जिनकी बुद्धि को विचलित नहीं कर सकते तथा जो चंचल हुई बुद्धि को भी विवेक से काबू में कर लेते हैं, उनकी मैं नित्य पूजा करता हूँ।[10] मातले! जो प्रिय पत्नी युक्त हैं, पवित्र आचार विचार से रहते हैं, नित्य अग्निहोत्र करते हैं और जिनके कुटुम्ब में चैपायों (गौ आदि पशुओं) का भी पालन होता है, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। मातले! जिनका अर्थ और काम धर्ममूलक होकर वृद्धि को प्राप्त हुआ है तथा जिसके धर्म और अर्थ नियत हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। धर्ममूलक धन की कामना रखने वाले ब्राह्मणों को तथा गौओं और पतिव्रता नारियों को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। मातले! जो जीवन की पूर्ण अवस्था में मानव भोगों का उपभोग करके तपस्या द्वारा स्वर्ग में आते हैं, उनका मैं सदा ही पूजन करता हूँ। जो भोगों से दूर रहते हैं, जिनकी कहीं भी आसक्ति नहीं है जो सदा धर्म में तत्पर रहते हैं, इन्द्रियों का काबू में रखते हैं, जो सच्चे संन्यासी हैं और पर्वतों के समान कभी विचलित नहीं होते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषों की मैं मन से पूजा करता हूँ। मातले! जिनकी विद्या ज्ञान के कारण स्वच्छ है, जो सुप्रसिद्ध धर्म के पालन की इच्छा रखते हैं तथा जिनके शौचाचार की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ।

सरोवर निर्माण से प्राप्त फल का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा- भरतश्रेष्ठ! सरोवरों के बनाने का जो फल है उसे आज मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।

भीष्म जी ने कहा-राजन! जो तालाब बनवाता है, वह पुरुष विचित्र धातुओं से विभूषित धनाध्यक्ष कुबेर के समान दर्शनीय है। वह तीनों लोकों में सर्वत्र पूजित होता है। तालाब का संस्थापन श्रेष्ठ एवं कीर्ति जनक है। वह इस लोक और परलोक में उत्तम निवास स्थान है। वह पुत्र का घर तथा धन की वृद्धि करने वाला है। मनीषी पुरुषों ने सराबरों को धर्म, अर्थ और काम तीनों का फल देने वाला बताया है। तालाब देश में मूर्तिमान पुण्य स्वरूप है और क्षेत्र में देश का भारी आश्रय है। मैं तालाब को चारों (स्वेदज, अण्डज, उदभिज्ज, जराजयु) प्रकार के प्राणियों के लिये उपयोगी देखता हूँ। जगत में जितने भी सरोवर हैं, वे सभी उत्तम संपत्ति प्रदान करते हैं। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर भूत- ये सभी जलाशय का आश्रय लेते हैं। अतः सरोवर खाद वाने में जो गुण हैं उन सबका मैं तुमसे वर्णन करूंगा तथा ऋषियों ने तालाब खोदने से जिन फलों की प्राप्ति बतायी है, उनका भी परिचय दे रहा हूँ। जिस सरोवर में एक वर्ष तक पानी ठहरता है, उसका फल मनीषी पुरुषों ने अग्निहोत्र बताया है अर्थात उसे खोदने वाले को प्रतिदिन अग्निहोत्र करने का पुण्य प्राप्त होता है। जिसके तालाब में गर्मी भर जल रहता है, उसके लिये ऋषियों ने वाजपेय यज्ञ के फल की प्राप्ति बतायी है। जिसके खोदवाये हुए सरोवर में सदा साधु पुरुष तथा गौऐं पानी पीती हैं, वह अपने कुल को तार देता है।

जिसके जलाशय में प्यासी गौऐं पानी पीती हैं तथा तृषित मृग, पक्षी एवं मनुष्य अपनी प्यास बुझाते हैं, वह अश्‍वमेध यज्ञ का फल पाता है। मनुष्य उस तालाब में जो जल पीते, स्नान करते और तट पर विश्राम लेते हैं, वह सरा पुण्य सरोवर बनवाने वाले को परलोक में अक्षय होकर मिलता है।[10] शत्रुओं को संताप देने वाले तात! जल विशेष रूप से दुर्लभ वस्तु है; अतः जल दान करने से शाशवत सिद्धि प्राप्त होती है।[11] तिल, जल, दीप, अन्न और रहने के लिये घर दान करो, तथा बन्धु-बान्धवों के साथ आनन्दित रहो, क्योंकि ये सब वस्तुऐं मरे हुओं के लिये दुर्लभ हैं। नरश्रेष्ठ! जल का दान सभी दानों से गुरुतर है। वह समस्त दानों से बढ़कर है; अतः उसका दान अवश्‍य ही करना चाहिये।

वृक्ष लगाने से प्राप्त फल

इस प्रकार यह सरोवर खोदाने का उत्तम फल बताया गया है। इसके बाद वृक्ष लगाने का फल भली प्रकार बताऊंगा। स्थावर भूतों की छः जातियां बतायी गयी हैं- वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, त्वक्सार तथा तृण, वीरूध- ये वृक्षों की जातियां हैं। इनके लगाने से ये-ये गुण बताये गये हैं। कटहल और आम आदि वृक्ष जाति के अन्तर्गत हैं। मन्दार और गुल्म कोटि में माने गये हैं। नागिका, मलिया आदि वल्ली के अन्तर्गत हैं। मालती आदि लताऐं हैं। बांस और सुपारी आदि के पेड़ त्वक्सार जाति के अन्तर्गत हैं। खेत में जो घास और अनाज उगते हैं, वे सब तृण जाति में अन्तर्भूत हैं। भरतनन्दन! वृक्ष लगाने से मनुष्य लोक में कीर्ति बनी रहती है और मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक में शुभ फल की प्राप्ति होती है।

वृक्ष लगाने वाला पुरुष पितरों द्वारा भी सम्मानित होता है। देवलोक में जाने पर भी उसका नाम नहीं नष्ट होता। वह अपने बीते हुए पूर्वजों और आने वाली संतानों को भी तार देता है। अतः वृक्ष अवश्‍य लगाने चाहिये। जिसके कोई पुत्र नहीं है, उसके भी वृक्ष ही पुत्र होते हैं; इसमें संशय नहीं है। वृक्ष लगाने वाला पुरुष परलोक में जाने पर स्वर्ग में अक्षय लोकों को प्राप्त होता है। तात! वृक्ष अपने फूलों से देवताओं का, फलों से पितरों का तथा छाया से अतिथियों का सदा पूजन करते रहते हैं। किन्नर, नाग, राक्षस, देव, गन्धर्व, मनुष्य तथा ऋषिगण भी वृक्षों का आश्रय लेते हैं। फल और फूलों से भरे हुए वृक्ष इस जगत में मनुष्यों को तृप्त करते हैं। जो वृक्ष दान करते हैं, उनके वे वृक्ष परलोक में पुत्र की भाँति पार उतारते हैं। अतः कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा ही सरोवर के किनारे वृक्ष लगाना चाहिये। वृक्ष लगाकर उनकी पुत्रों की भाँति रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि वे धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो तालाब बनवाता है और उसके किनारे वृक्ष लगाता है, जो द्विज यज्ञ का अनुष्ठान करता है तथा दूसरे जो लोग सत्य भाषण करने वाले हैं, वे सब-के-सब स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होते हैं। इसलिए सरोवर खोदावे और उसके तट पर बगीचे भी लगावे। सदा नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करेऔर विधिपूर्वक सत्य बोले। [11]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 1
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 2
  3. 3.0 3.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 3
  4. 4.0 4.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 4
  5. 5.0 5.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 5
  6. 6.0 6.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 6
  7. 7.0 7.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 7
  8. 8.0 8.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 8
  9. 9.0 9.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 9
  10. 10.0 10.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 10
  11. 11.0 11.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 96 भाग 11

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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान 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भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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