- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 63 में अन्न दान का विशेष माहात्म्य का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का प्रस्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ। जिस राजा को दान करने की इच्छा हो, वह इस लोक गुणवान ब्राह्मणों को किन-किन वस्तुओं का दान करे। किस वस्तु के देने से ब्राह्मण तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं? और प्रसन्न होकर क्या देते हैं? महावाहो। अब मुझे दान जनित महान पुण्य का फल बताइये। राजन। इहलोक परलोक में कौन-सा दान विशेष फल देने वाला होता है? यह मैं आपके मुंह से सुनना चाहता हूँ। आप इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर। यही बात मैंने पहले एक बार देवर्शी नारद जी से पूछी थी। उस समय उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वहीं तुम्हें बता रहा हूँ सुनो।
नारद द्वारा अन्न दान के विशेष माहात्म्य के बारे में बताना
नारद जी ने कहा- देवता और ऋषि अन्न की ही प्रशंसा करते हैं, अन्न से ही लोक यात्रा का निर्वाह होता है। उसी से बुद्धि को स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा उस अन्न में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। अन्न के समान न कोई दान था और न होगा। इसलिये मनुष्य अधिकतर अन्न का ही दान करना चाहते हैं। प्रभो। संसार में अन्न ही शरीर के बल को बढ़ाने वाला है। अन्न के ही आधार पर प्राण टिके हुए हैं और इस सम्पूर्ण जगत को अन्न ने ही धारण कर रखा है। इस जगत में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षा मांगने वाले भी अन्न से ही जीते हैं। अन्न से ही सबके प्राणों की रक्षा होती है। इस बात का सबको प्रत्यक्ष अनुभव है, इसमें संशय नहीं है। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अन्न के लिये दुखी, बाल-बच्चों वाले, महामनस्वी ब्राह्मण को और भिक्षा मांगने वाले को भी अन्न दान करें। जो याचना करने वाले सुपात्र ब्राह्मण को अन्न दान देता है, वह परलोक में अपने लिये एक अच्छी निधि (खजाना) बना लेता है। रास्ते का थका-मादा बूढ़ा राहगीर यदि घर पर आ जाये तो अपना कल्याण चाहने वाले गृहस्थ को उस आरणीय अतिथि का आदर करना चाहिये। राजन। जो पुरुष मन में उठे हुए क्रोध को दबाकर और ईर्ष्या को त्यागकर अच्छे शील-स्वभाव का परिचय देता हुआ अन्न दान करता है वह इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है। अपने घर पर कोई भी आ जाये तो उसका न तो अपमान करना चाहिये और न उसे ताड़ना ही देनी चाहिये; क्योंकि चाण्डाल अथवा कुत्ते को भी दिया हुआ अन्न दान कभी नष्ट नहीं होता (व्यर्थ नहीं जाता)। जो मनुष्य कष्ट में पड़े हुए अपरिचित राही को प्रसन्नतापूर्वक अन्न देतो है उसे महान धन की प्राप्ति होती है। नरेश्वर। जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों और अतिथियों को अन्न देकर संतुष्ट करता है, उसके पुण्य का फल महान है। जो महान पाप करके भी याचक मनुष्य को, उसमें भी विशेषतः ब्राह्मण को अन्न देता है, वह अपने पाप के कारण मोह में नहीं पड़ता है। ब्राह्मण को अन्न का दान दिया जाये तो अक्षय फल प्राप्त होता है और शूद्र को भी देने से महान फल प्राप्त होता है; क्योंकि अन्न का दान शूद्र को दिया जायेगा। ब्राह्मण को, उसका विशेष फल होता है। यदि ब्राह्मण अन्न की याचना करे तो उससे गोत्र, शाखा, वेदाध्ययन और निवासस्थान आदि का परिचय न पूछें; तुरंत ही उसकी सेवा में अन्न उपस्थित कर दें। जो राजा अन्न का दान करता है उसके लिये अन्न के पौधे इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण मनोबांछित फल देने वाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है। जैसे किसान अच्छी वृष्टि मनाया करते हैं, उसी प्रकार पितर भी यह आशा लगाये रहते हैं कि कभी हम लोगों का पुत्र या पौत्र भी हमारे लिये अन्न प्रदान करेगा। ब्राह्मण एक महान प्राणी है। यदि वह ‘मुझे अन्न दो’ इस प्रकार स्वयं अन्न की याचना करता है तो मनुष्य को चाहिये कि सकाम भाव से या निष्काम भाव से उसे अन्न दान देकर पुण्य प्राप्त करे।
भारत। ब्राह्मण सब मनुष्यों का अतिथि और सबसे पहले भोजन पाने का अधिकारी है। ब्राह्मण जिस घर पर सदा भिज्ञा मांगने के लिये जाते हैं और वहाँ से सत्कार पाकर लौटते हैं उस घर की संपत्ति अधिक बढ़ जाती है तथा उस घर का मालिक मरने के बाद महान सौभाग्यशाली कुल में जन्म पाता है। जो मनुष्य इस लोक में सदा अन्न, उत्तम स्थान और मिष्टान्न का दान करता है, वह देवताओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक में निवास करता है। नरेश्वर। अन्न ही मनुष्यों के प्राण है, अन्न में ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्न दान करने वाला मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगत अन्न दान करने वाला पुरुष प्राणदाता और सर्वस्व देने वाला कहलाता है। अतिथि ब्राह्मण को विधि पूर्वक अन्न दान करके दाता परलोक में सुख पाता है और देवता भी उसका आदर करते हैं। युधिष्ठिर। ब्राह्मण महान प्राणी एवं उत्तम क्षेत्र है। उसमें जो बीज वोया जाता है, वह महान पुण्य फल देने वाला होता है। अन्न का दान ही एक ऐसा दान है जो दाता और भोक्ता जो दोनों को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करने वाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान है, उन सबका फल परोक्ष है। भारत। अन्न से ही संतान की उत्पत्ति होती है। अन्न से ही रति की सिद्धि होती है। अन्न से ही धर्म और अर्थ की सिद्धि समझो। अन्न से ही रोगों का नाश होता है। पूर्व कल्प में प्रजापति ने अन्न को अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्न रूप ही हैं; क्योंकि अन्न ही सबका आधार है। अन्न का आहार न मिलने पर शरीर में रहने वाले पांचों तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्न की कमी हो जाने से बड़े-बड़े बलवानों का बल भी क्षीण हो जाता है। निमंत्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्न के बिना बन्द हो जाते है। नरश्रेष्ठ। अन्न न हो तो वेदों का ज्ञान भी भूल जाता है। यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम रूप जगत है सब-का-सब अन्न के ही आधार पर टिका हुआ है। अतः बुद्धिमान पुरुषों का चाहिये कि तीनों लोकों में धर्म के लिये अन्न का दान अवश्य करें। पृथ्वीनाथ। अन्न दान करने वाले मनुष्य के बल, ओज, यश और कीर्ति का तीनों लोकों में सदा ही विस्तार होता रहता है। भारत। प्राणों का स्वामी पवन मेघों के ऊपर स्थित होता है और मेघ में जो जल है, उसे इन्द्र धरती पर बरसाते हैं। सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी के रसों को ग्रहण करते हैं। वायु देव सूर्य से उन रसों को लेकर फिर भूमि पर बरसाते हैं।[2] भरतनन्दन। इस प्रकार जब मेघ से पृथ्वी सेजल गिरता है, तब पृथ्वी देवी स्निगध (गीली) होती है। फिर उस गीली धरती से अनाज के अंकुर उत्पन्न होते हैं, जिससे जगत के जीवों का निर्वाह होता है। अन्न से ही शरीर में मांस, मेदा, अस्थि और वीर्य का प्रादुर्भाव होता है। पृथ्वीनाथ। उस वीर्य से प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अग्नि और सोम उस वीर्य की सृष्टि और पुष्टि करते हैं। इस तरह सूर्य, वायु, और वीर्य एक ही राशि हैं जो अन्न से प्रकट हुए हैं। उन्हीं से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति हुई है। भरतश्रेष्ठ। जो घर पर आये हुए याचक को अन्न देता है, वह सब प्राणियों का प्राण और तेज का दान करता है।
भीष्म की युधिष्ठिर से वार्ता
भीष्म जी कहते हैं- नरेश्वर। जब नारद जी ने मुझे इस प्रकार अन्न-दान का माहात्मय बतलाया तब से मैं नित्य अन्न का दान किया करता था। अतः तुम भी दोष दृष्टि और जलन छोड़कर सदा अन्न-दान करते रहना। राजन। प्रभो। तुम सुयोग्य ब्राह्मणों को विधि पूर्वक अन्न का दान करके उसके पुण्य से स्वर्गलोक को प्राप्त कर लोगे। नरेश्वर। अन्न-दान करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, उनका परिचय देता हूं, सुनो। स्वर्ग में उन महामनस्वी अन्नदाताओं के घर प्रकाशित होते रहते हैं। उन गृहों की आकृति तारों के समान उज्ज्वल और अनेकानेक खंभों से सुशोभित होती है। वे गृह चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। उन पर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त झालरें लगी हैं। उनमें से कितने ही भवन प्रातःकाल के सूर्य की भाँति लाल प्रभा से युक्त हैं, कितने ही स्थावर हैं और कितने ही विमानों के रूप में विचरते रहते हैं। उनमें सैकड़ों कक्षाऐं और मंजिलें होती हैं। उन घरों के भीतर जलचर जीवों सहित जलाशय होते हैं। कितने ही घर वैदूर्यमणिमय (नील) सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। कितने ही चांदी और सोने के वने हुए हैं। उन भवनों में अनेकानेक वृक्ष शोभा पाते हैं जो संपूर्ण मनवांछित फल देने वाले हैं। उन गृहों में अनेक प्रकार की बावड़ियां, गलियां, सभा भवन, कूप, तालाब और गंभीर घोष करने वाले सहस्रों जुते रथ आदि वाहन होते हैं। वहाँ भक्ष-भोज्य पदार्थों के पर्वत, वस्त्र और आभूषण हैं। वहाँ की नदियां दूध बहाती हैं। अन्न के पर्वतोंपम ढेर लगे रहते हैं। उन भवनों में सफेद बादलों के समान अट्टालिकाऐं और सुवर्ण निर्मित प्रकाशपूर्ण शैय्याऐं शोभा पाती हैं। वे महल अन्नदाता पुरुषों को प्राप्त होते हैं; इसलिये तुम भी अन्न दान करो। ये पुण्य जनित लोक अन्न दान करने वाले महामनस्वी पुरुषों को प्राप्त होते हैं। अतः इस पृथ्वी पर सभी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक अन्न का दान करना चाहिये।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 19-37
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 38-52
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| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
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| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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